पंजाब में विधानसभा चुनाव से मात्र कुछ माह पूर्व यकायक ही मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का इस्तीफा हालांकि बहुतों को चौंकाने का कारण बना। लेकिन इसकी पटकथा 2017 में ही लिखी जानी शुरू हो गई थी। मार्च 2017 में प्रचंड बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने राजा अमरिंदर सिंह की कार्यशैली से विधायकों की नाराजगी का पहला स्वर मात्र पांच माह बाद ही 8 अगस्त 2017 को सामने आ गया था जब पार्टी के नवनिर्वाचित 80 विधायकों में से 33 ने पूर्ववर्ती अकाली-भाजपा सरकार में शामिल मंत्री विक्रम सिंह मजिठिया के ऊपर लगे मादक पदार्थों की तस्करी के आरोपों की जांच कराने को कहा। इन विधायकों ने बकायदा एक पत्र लिखकर मजिठिया प्रकरण पर कार्यवाही की बात सीएम अमरिंदर सिंह से की। लेकिन इस पत्र को महाराजा अमरिंदर सिंह ने कूड़े के डब्बे में डाल विधायकों में असंतोष की पहली चिंगारी जगाने का काम किया। विधायकों ने इसके अलावा कई बार अमरिंदर सिंह को चुनाव प्रचार के दौरान उनके ही द्वारा ली गई शपथ याद दिलाने का प्रयास किया हालांकि नतीजा शून्य रहा। अमरिंदर सिंह ने 2017 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सिखों की पवित्र पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ की कसम खाते हुए राज्य से ड्रग्स के अवैध कारोबार को नेस्तनाबूत करने का संकल्प लिया था। अमरिंदर सिंह के कामकाज की शैली विचित्र थी। वे राज्य सरकार के सचिवालय नहीं जाते थे। अपने सरकारी आवास से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी। वे अपने फार्म हाउस में रहा करते थे जहां आम जनता तो दूर मंत्री और विधायक तक की पहुंच मुश्किल से हो पाती थी। अमरिंदर सिंह पार्टी नेताओं से ज्यादा भरोसा कुछ चुनिंदा नौकरशाहों पर करते थे। उनके प्रमुख सचिव सुरेश कुमार को पंजाब का सुपर सीएम तक कहा जाने लगा था। कांग्रेस सूत्रों की मानें तो पंजाब का मुख्यमंत्री रहते अमरिंदर सिंह ने पार्टी आलाकमान तक के निर्देश मानने बंद कर दिए थे। इन सूत्रों की मानें तो अमरिंदर सिंह कई बार बुलाने पर भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात करने दिल्ली आने को राजी नहीं होते थे। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के खास सिपहसालारों में शामिल पार्टी नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम की पुलिस सुरक्षा केंद्र सरकार द्वारा हटा दिए जाने के बाद जब प्रियंका ने अमरिंदर सिंह से उन्हेें पंजाब पुलिस की सुरक्षा देने को कहा तो महाराजा ने निर्णय लेने में महीनों लगा दिए। कृष्णम को पंजाब पुलिस की सुरक्षा कांग्रेस महासचिव हरीश रावत के पंजाब प्रभारी बनने के बाद ही मिल पाई।
जानकारों का दावा है कि राहुल गांधी संग तो कैप्टन अमरिंदर सिंह का संवाद न के बराबर था। हरीश रावत को पंजाब का प्रभारी बनाने की सबसे बड़ी वजह महाराज अमरिंदर सिंह को सही ट्रैक पर लाना था। रावत ने इसकी शुरुआत पार्टी के विधायकों से मेल-मुलाकात बढ़ाने और उनकी शिकायतों को आलाकमान तक पहुंचाने से की। अमरिंदर सिंह मंत्रिमंडल में शामिल रजिंदर बाजवा, सुखबीर सरकारिया एवं सुखजिंदर सिंह रंधावा को कहा गया कि वे कैप्टन से खफा चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू के पक्ष में विधायकों को लाने का प्रयास करें। दरअसल, हरीश रावत को पंजाब प्रभारी, पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सिद्धू की ताजपोशी का मार्ग बनाने के लिए ही राहुल गांधी ने बनाया था। रावत ने इसके लिए पहले विधायकों के जरिए कैप्टन की घेराबंदी शुरू की। इसका बड़ा असर तब देखने को मिला जब अपनी सत्ता को डोलते देख पटियाला के पूर्व महाराजा को पार्टी आलाकमान द्वारा नियुक्त एक तीन सदस्यीय कमेटी के सामने हाजिरी भरनी पड़ी। इस कमेटी के गठन का उद्देश्य कैप्टन को पार्टी आलाकमान की ताकत का एहसास कराना भर था। इसके बाद नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना सरल हो गया। चौतरफा घिर चुके कैप्टन को हरीश रावत समझा पाने में सफल रहे कि विधायक दल में वे अपना समर्थन खो चुके हैं इसलिए अब यदि पार्टी आलाकमान के निर्देश नहीं माने गए तो सीएम की कुर्सी भी छिन सकती है। इस तरह सिद्दू प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बन गए। पंजाब कांग्रेस भीतर लगी आग लेकिन सिद्धू के अध्यक्ष बनने के बाद बुझने के बजाय और भड़क गई। सिद्धू ने अपनी ही पार्टी की सरकार को घेरना शुरू कर दिया। पार्टी सूत्रों की मानें तो कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी इससे खासी नाराज हो उठीं। उन्होंने बजरिए हरीश रावत और अजय माकन सिद्दू को व्यर्थ की बयानबाजी न करने की सलाह दी लेकिन ‘फ्री शॉट’ मारने के आदि सिद्धू काबू में नहीं आए।
जानकारों का दावा है कि सिद्धू राहुल और प्रियंका गांधी की शह चलते पार्टी प्रभारी हरीश रावत के कंट्रोल से बाहर हो चुके हैं। प्रदेश अध्यक्ष बनने के साथ ही उन्होंने कैप्टन को सत्ता से बेदखल करने का खेल शुरू कर डाला। विधायक पहले से ही कैप्टन की कार्यशैली के चलते उनसे खासे नाराज थे। इसका लाभ नवजोत सिंह सिद्धू ने उठाया। जब तक कैप्टन संभल पाते, अपने खिलाफ बुने जा चुके चक्रव्यूह को तोड़ने की नीति तैयार कर पाते, विधायक दल का दो तिहाई हिस्सा उनके खिलाफ हो गया। नतीजा विधान दल का नेता होने के बावजूद उन्हें बताए बगैर प्रभारी महासचिव रावत ने विधान दल की बैठक बुला डाली। कैप्टन को समझ आ गया कि अब गेम हाउट ऑफ कंट्रोल है। उन्होंने शहीदाना अंदाज में इस्तीफा देकर अपना आखिरी दांव चल दिया है। बहुत संभव है राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला उठाकर वे अपने लिए कांग्रेस से इत्तर राजनीतिक रास्ता तलाश लें। हाल-फिलहाल उनका राजनीतिक भविष्य समाप्ति की ओर जाता नजर आ रहा है।