- प्रियंका यादव
महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘संयुक्त राष्ट्र महिला’ अपने भागीदारों के साथ मिलकर भारत ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ के तहत उन महिलाओं को शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर रही है, जो किसी कारणवस स्कूल की शिक्षा पूरी नहीं कर पाईं और कोई विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने वंचित रह गई। यूएन की इस मुहीम से ऐसी महिलाओं को शिक्षा पूरी करने के साथ ही कौशल प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है जिसका असर भी दिखने लगा है
दुनिया की आधी आबादी कहीं जाने वाली करोड़ों महिलाएं आज भी अपनी शिक्षा पूरी करने के अवसरों से वंचित रह जाती हैं जिसका कारण कभी गरीबी होती है तो कभी घर की जिम्मेदारियां। आगे पढ़ने की चाह होते हुए भी उन्हें पढ़ने का दूसरा अवसर नहीं मिल पाता है। लेकिन अब दूसरा अवसर भी मिलेगा और सम्मान से शिक्षा पूरी करने का अधिकार भी। इसका जिम्मा उठाया है ‘संयुक्त राष्ट्र महिला’ संस्था ने। इस संस्था द्वारा भारत की संस्थाओं के साथ मिलकर सैकड़ों महिलाओं के लिए ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ चलाया गया है। यह कार्यक्रम उन महिलाओं को शिक्षा पूरी करने का दूसरा अवसर दे रहा है, जिन्होंने परिवार व जिम्मेदारियों का बोझ उठाने की वजह से स्कूली शिक्षा अधूरी छोड़ दी थी। ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ में महिलाओं को शिक्षा पूरी करने के अवसर के साथ ही कौशल प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। जिससे वह पढ़-लिखकर कोई व्ययसाय शुरू कर सकें या कोई अच्छी नौकरी पा सकें। अभियान शुरू होने के कुछ ही महीनों बाद बड़े स्तर पर इसके अच्छे प्रभाव देखें भी जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा चलाया जा रहा यह ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ महिलाओं को औपचारिक शिक्षा में फिर से प्रवेश करने, व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने, उद्यमशीलता कौशल सीखने और उन्हें रोजगार एवं व्यवसाय के अवसरों से जोड़ने में मदद करता है। ‘संयुक्त राष्ट्र महिला’ यानी (यूएन वीमेन) के ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ के लिए ‘आइना’ संस्था के परियोजना समन्वयक बिस्वा रंजन बेहरा इस संदर्भ में कहते हैं कि उन लड़कियों को बस एक और अवसर की जरूरत थी। जब उन्हें वो मिला तो उन्होंने गंवाया नहीं। इसी कार्यक्रम के अंतर्गत 16 से 50 साल की उम्र के बीच 300 से ज्यादा महिलाओं ने दसवीं और बारहवीं की परीक्षा पास की है। इसके अलावा मुंडो, सहार, जुआंग, गौडा और दलित समुदायों की गरीब एवं कमजोर जनजातियों की लगभग 250 अन्य महिलाओं ने नए कौशल हासिल किए और भारत भर में रोजगार हासिल करके आमदनी अर्जित करने के काबिल बनीं, जिससे उन्हें प्रगति के अन्य अवसर प्राप्त हुए हैं। आज ये महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। अपने परिवार का भरण-पोषण करने में पूर्णतः सक्षम हैं।
यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस अभियान से शिक्षा पूरी करने वाली 20 साल की कलावती देहुरी बताती हैं कि जब उनकी स्कूल की शिक्षा पूरी नहीं हो पाई थी तो वह कोई कौशल भी हासिल नहीं कर सकीं जिसकी वजह से उन्हें घर पर ही बैठना पड़ा। लेकिन उसकी किस्मत तब बदली जब उन्हें उड़ीसा के ढेनकनाल जिले में ‘आइना’ नामक एक स्थानीय एनजीओ जो ‘संयुक्त राष्ट्र महिला’ संस्था द्वारा ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ (सेकंड एजुकेशन चांस) और रोजगार परक प्रशिक्षण कार्यक्रम के तहत सिलाई का काम सीखा और जल्द ही उन्हें तमिलनाडु की एक कपड़ा इकाई में सिलाई ऑपरेटर के रूप में रोजगार मिल गया। कलावती आज न केवल बेहतर जीवन और भविष्य का सपना देख सकती है, बल्कि इन सपनों को साकार करने का कौशल भी उनके पास है। कलावती ही नहीं अन्य कई लड़कियां हैं जो कमजोर वर्ग से हैं। जो शिक्षा, प्रशिक्षण की कमी और कामकाज के अवसर न प्राप्त होने के चलते घर बैठने को मजबूर हैं। उन्हें इस कार्यक्रम के तहत सशक्त बनाने का प्रयास किया जा रहा हैं। इन्हीं में से एक है 22 वर्षीय पूजा पात्रा। जिन्होंने नर्स सहायक का प्रशिक्षण ‘द्वितीय अवसर शिक्षा’ प्रोग्राम से लिया है। पूजा को कोरोना महामारी के दौरान भुवनेश्वर के अस्पताल में प्रशिक्षण दिया गया। जिसके बाद अब सात अन्य महिला साथियों के साथ आंध्र प्रदेश के एक बड़े निजी अस्पताल में नर्स के रूप में काम करती है।
गंभीर हुई ड्रॉपआउट की समस्या
उड़ीसा समेत देश भर में कई ऐसे राज्य हैं जहां लड़कियां अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं। गरीबी और सामाजिक कारणों के अतिरिक्त कई अध्ययनों से मालूम होता है कि भारत में स्कूल जाने वाली लड़कियों में से एक चौथाई लड़कियां मासिक धर्म के दौरान स्कूल नहीं जा पाईं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि ज्यादातर स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं होता है या उन्हें सैनेटरी पैड उपलब्ध नहीं हो पाता है। स्कूलों में टीचर्स का अभाव हो या ग्रामीण इलाकों में शिक्षा का गिरता स्तर। ऐसे कई सवाल देश की शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा देते हैं। इन्हीं में एक सवाल है बच्चों का पढ़ाई को ड्रॉपआउट कर देना। कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि देश के कई राज्यों में पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, हर साल 16.88 फीसदी लड़कियां आठवीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। इनमें से कई लड़कियों को कम उम्र में शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है। कम उम्र में मां बनने की वजह से कई लड़कियों की असमय ही मौत हो जाती है। वहीं इनमें से एक कारण घर से स्कूलों का बहुत दूर होना भी है। इसी साल केंद्र सरकार द्वारा कहा गया था कि वर्ष 2022-2023 में देश भर में 12 लाख 53 हजार 19 विद्यार्थी स्कूल से बाहर हो गए हैं, इनमें जहां लड़कों की संख्या 6 लाख 97 हजार 121 है, वहीं लड़कियों की संख्या 6 लाख 22 हजार 78 है। हालांकि लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या ज्यादा है।
इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के पिछले साल एक सर्वेक्षण के अनुसार लड़कियों के बीच में स्कूल छोड़ने के कारणों में कहा गया था कि 33 प्रतिशत लड़कियों की पढ़ाई घरेलू काम करने के कारण छूट गई। कई जगहों पर ये भी पाया गया कि बच्चों ने स्कूल छोड़ने के बाद परिजनों के साथ मजदूरी या लोगों के घरों में सफाई करने का काम शुरू कर दिया है। परियोजना मंजूरी बोर्ड (पीएबी) की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में अधिकतर बच्चों ने पढ़ाई छोड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार ड्रॉपआउट करने वालों की राष्ट्रीय दर 12.6 प्रतिशत है। यह समस्या सात राज्यों में प्रमुख है। बिहार, आंध्र प्रदेश, असम, गुजरात, कर्नाटक, मेघालय,पंजाब में ज्यादा है। यह समस्या न सिर्फ स्कूल प्रबंधन पर सवाल उठती है बल्कि सरकार की शिक्षा नीति पर भी संदेह पैदा करती है। वहीं सरकार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लक्षित साल 2030 तक स्कूली शिक्षा के स्तर पर 100 प्रतिशत सकल नामांकन दर हासिल करना चाहती है। लेकिन बच्चों द्वारा पढ़ाई ड्रॉपआउट करना इसमें बाधा बन रहा है। साल 2021-22 में बिहार के स्कूलों में माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर 20.46, गुजरात में 17.85, आंध्र प्रदेश में 16.7, असम में 20.3, कर्नाटक 14.6, पंजाब में 17.2 और मेघालय में 21.7 फीसदी दर्ज की गई। वहीं, इस अवधि में मध्य प्रदेश में माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर 10.1, उत्तर प्रदेश में 12.5 और त्रिपुरा में 8.34 प्रतिशत दर्ज की गई। राजधानी दिल्ली में भी काफी बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हैं।
पश्चिम बंगाल में माध्यमिक स्कूली स्तर पर साल 2020-21 की तुलना में 2021-22 में ड्रॉपआउट दर में काफी सुधार दर्ज किया गया है। हालांकि राज्य को छात्रों के बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर को और कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है। महाराष्ट्र में यह दर साल 2020-21 के 11.2 से बेहतर होकर साल 2021-22 में 10.7 प्रतिशत दर्ज की गई। वहीं उत्तर प्रदेश में वार्षिक औसत दर 15 प्रतिशत से अधिक रही। राजस्थान में इसमें गिरावट दर्ज की गई। हालांकि अनुसूचित जनजाति से संबंधित ड्रॉपआउट दर 9 प्रतिशत और मुस्लिम बच्चों में 18 प्रतिशत है। साल 2019 में गैर-सरकारी संस्था, मंजरी फाउंडेशन ने यूएन वीमेन के ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ को फंड देकर एक दूसरी संस्था ‘प्रदान’ के साथ मिलकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के कुछ जिलों में महिलाओं के लिए वयस्क शिक्षा की पहल शुरू की। इस कार्यक्रम के तहत ओपन स्कूलिंग शिक्षा प्रणाली के माध्यम से महिलाओं को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए प्रवेश दिलवाया जाता है। इसमें उन लोगों की भी सहायता की जाती है, जो अपनी बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद व्यावसायिक कौशल हासिल करना चाहते हैं।
बिहार के गया जिले में साल 2019 में लगभग 300 महिलाओं को स्कूली शिक्षा से फिर जोड़ा गया। जिनमें से 213 महिलाएं कक्षा दसवीं और बारहवीं की परीक्षा पास करने में सफल रहीं। यह संस्था महिलाओं को व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में भी प्रशिक्षित करती है। इस जिले में ‘द्वितीय अवसर शिक्षा कार्यक्रम’ से वित्त पोषण प्राप्त यह परियोजना, पीआरएन (ग्रामीण संसाधनों और प्रकृति का संरक्षण और प्रसार) संस्था ने शुरू की है, जिसे ‘प्रदान’ संस्था कार्यान्वित कर रही है। साल 2019 में नामांकित 246 महिलाओं में से 213 महिलाएं, परीक्षा में शामिल हुईं। वहीं बिहार के एक अन्य जिले मुजफ्फरपुर में, 324 महिलाओं ने दसवीं कक्षा के लिए नामांकन कराया था। जिनमें से 200 महिलाएं, शिक्षा हासिल कर रही हैं। कम से कम 130 महिलाओं ने एक बार में ही अपनी परीक्षा पास की, जबकि अन्य महिलाएं फिर से परीक्षा पास करने के प्रयास में जुटी हैं। इन 130 महिलाओं में से 30 से ज्यादा लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है। इसी तरह, बिहार मुक्त स्कूल बोर्ड के माध्यम से, बारहवीं कक्षा में दाखिला लेने वाली, 42 में से 28 महिलाएं पास हुईं, जिनमें से कुछ महिलाओं ने आगे शिक्षा हासिल करने की इच्छा जाहिर की।