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Country The Sunday Post Special

खतरा ‘लिव इन रिलेशनशिप’ से नहीं बल्कि सामाजिक सोच से है  

भारत में कुछ विषयों को लेकर रूढ़िवादिता आज भी उनपर हावी है।पल-पल बदलती सामाजिक परिस्थितियों में ये रूढ़िवादी विचार यहां एक दस्तावेज़ धारण करती जा रहीं हैं। समाज दरअसल अब मानवीय क्रियाकलापों तक सीमित नहीं रहा है बल्कि कुछ कट्टर सोच उन्हें हाँकने का काम लगातार कर रहे हैं और पूरा समाज उन्हें अपने शैली से सम्मानजनक लोगों में रेखांकित भी कर रहा है यही कारण हैं कि भारत में कई विषय ऐसे हैं जिनमें किसी बौद्धिक व्यक्ति की दूरदर्शिता भी नाकाम साबित हो रही है।
जिस प्रकरण को आज इस आलेख  का मुद्दा बनाया है उसका विषय ‘लिव इन रिलेशनशिप’  है। हालांकि न जाने कितने प्रसंग है जो इस विषय को 21वीं सदी से भी परे लेकर जाते हैं। दोनों लोग यदि बालिग हैं तो उन्हें साथ में किस प्रकार से रहना है यह उनके निजता के अधिकार की श्रेणी में आता है, जिसमें किसी को दखल देने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।

सहमति संबंध एक ऐसा संबंध है जिसे समाज में न तो नैतिक और न ही सामाजिक तौर पर स्वीकार्यता दी जाती है : जज अनिल क्षेत्रपाल

हाल ही में सहमति संबंध (लिव इन रिलेशनशिप) में रह रहे प्रेमी जोड़े की सुरक्षा याचिका को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह रिश्ता सामाजिक और नैतिक तौर पर स्वीकार्य नहीं है। तरनतारन निवासी युवक और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की निवासी युवती  बालिग हैं। उनके अनुसार उनके अभिभावक नहीं चाहते कि वे दोनों विवाह करें।
इसलिए युवती के उम्र से जुड़े प्रमाण पत्रों को उसके अभिभावकों ने अपने पास रख लिया है। प्रेमी जोड़े ने अपनी याचिका में यह भी कहा है कि वह विवाह करना चाहते हैं लेकिन इन दस्तावेजों के अभाव में विवाह नहीं कर पा रहे हैं। जैसे ही सभी दस्तावेज उपलब्ध हो जाएंगे या फिर विवाह को वैध साबित करने की स्थिति आती है तो वे तुरंत विवाह कर लेंगे। जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता तब तक उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाई जाए।

याचिकाकर्ता अपने रिश्ते पर हाईकोर्ट की मोहर लगवाना चाहते हैं

हाईकोर्ट ने याची पक्ष की दलीलों को सुनने के बाद कहा कि सहमति संबंध एक ऐसा संबंध है जिसे समाज में न तो नैतिक और न ही सामाजिक तौर पर स्वीकार्यता दी जाती है। इस याचिका के माध्यम से याचिकाकर्ता अपने रिश्ते पर हाईकोर्ट की मोहर लगवाना चाहते हैं।
इस प्रकार के रिश्ते पर मोहर लगाकर हाईकोर्ट दोनों को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता। इस टिप्पणी के साथ ही हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
यह बात हैरान करने वाली है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में सहमति संबंधों में प्रेमी जोड़ों को सुरक्षा मुहैया करवाने को सही ठहरा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह कहा है कि जब भारत सरकार सहमति संबंध को मंजूरी दे चुकी है और घरेलू हिंसा अधिनियम भी सहमति संबंध में लागू होता है तो इस तरह के मामलों में सुरक्षा देने में कोई बुराई नहीं है।
आधुनिकता की ओर बढ़ते वक़्त ,आधुनिक विचारों को समय और परिस्थिति के अनुसार देखा जा सकता है और सामाजिक प्राणियों के हित मे उसका अनुसरण भी किया जा सकता है। लेकिन समय-समय पर विस्तृत उस वर्ग से जहां देश के लोगों के संवैधानिक अधिकारों को सबसे सुरक्षित और लोकतांत्रिक रूप से समान माना जाता है वहां से ऐसे विचार सामने आते हैं जो समाज के उन्नयन में रुकावट पैदा करते हैं। पत्रकारिता, साहित्य और न्याय व्यवस्था का क्षेत्र किसी भी विषय पर गहन शोध के बाद पूरी निष्पक्षता के साथ व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। एक बार को हम साहित्य को इससे अलग कर सकते हैं हालांकि यह भी उसका आंशिक रूप ही होगा।

विवाह का ठप्पा बस एक मानसिकता का मामला है

 

साहित्य की बात होनी ही थी, कानून के इतर इस पर एक मानवीय दृष्टि भी डालते हैं तो इस मामले पर चर्चित युवा कवि देवेश पथ सारिया का मानना है कि , “पिछले दस सालों में भारत की विचारधारा में परिवर्तन आया है। यहां तक कि भारत का मध्यम वर्ग भी बहुत हद तक बदला है। सोशल मीडिया के अभ्युदय और सहज उपलब्ध इंटरनेट ने इसमें एक महती भूमिका अदा की है।
शहरों में अंतर्जातीय प्रेम विवाह अब स्वीकार्य हो चुके हैं। फ़िर भी दांपत्य में पटरी न बैठने पर  अथवा अन्य कारणों से हुए तलाक़ के प्रति भारतीय समाज की मानसिकता रूढ़िवादी ही है।”
विवाह कर तलाक़ के पचड़े में पड़ने से बेहतर यह होगा कि दो व्यक्ति सहमति से एक साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहें और तय करें कि क्या वे पूरा जीवन साथ बिता सकते हैं। भविष्य में वे विवाह करने या न करने का निर्णय ले सकते हैं। बिना विवाह किए भी उम्र भर साथ रह सकते हैं। : देवेश पथ सारिया,चर्चित युवा कवि
“साहचर्य अंततः प्रेम और संयोजन का मामला भर है ‌। विवाह का ठप्पा बस एक मानसिकता का मामला है। यही मानसिकता कई बार एक प्रेम विहीन वैवाहिक संबंध को उम्र भर ढोने के लिए विवश करती है। “
देवेश, नई पीढ़ी के एक ख़ास वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं ये पीढ़ी का वह हिस्सा है जो शादी को मात्र एक मानसिकता भर मानता है, विवाह का ठप्पा लगाने वाली मानसिकता। इसलिए शुरुआत में मैंने रूढ़िवादिता की बात कही। लिव इन रिलेशनशिप को लेकर बात इतनी भी बिगड़ी नहीं है ,सैंकडों लोग लिव इन में रह रहे हैं। खुशहाल जोड़ों के आंकड़ें ज्यादा ही होंगे।

यदि प्रेम नहीं भी है तो भी दोस्ती होने पर भी मांगी जा सकती है सुरक्षा : पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट , जुलाई ,वर्ष 2020

निश्चित तौर पर यह निर्णय जज अनिल क्षेत्रपाल का व्यक्तिगत राय हो सकती है लेकिन सवाल यह है कि जिस विषय पर उच्चतम न्यायालय पहले ही स्पष्ट निर्णय दिए हैं उसे नजर अंदाज कर ऐसा निर्णय देना एक तरह से विचार थोपना ही है। क्योंकि जुलाई ,वर्ष 2020 में इसी हाईकोर्ट ने मोहाली के  एक मामले में याचिकाकर्ताओं की दलील सुनने के बाद कहा था कि देश में सहमति संबंध पर कोई पाबंदी नहीं है। कानून इसकी इजाजत देता है। याचिकाकर्ताओं को खतरा सामाजिक सोच से है जो इस तरह के रिश्तों को स्वीकार नहीं कर पाता है।

याचिकाकर्ताओं के परिजनों को सुनने की आवश्यकता नहीं

हाईकोर्ट ने कहा था कि संविधान ने सभी को जीवन और सुरक्षा का अधिकार दिया है यह अधिकार सहमति संबंध में रहने की स्थिति में भी लागू होता है चाहे लिव-इन में रहने वाली दो लड़कियां ही क्यों न हों।  यदि प्रेम नहीं भी है तो भी दोस्ती होने पर भी सुरक्षा मांगी जा सकती है।
 हाईकोर्ट ने दोनों के रिश्तों को लेकर बिना कोई टिप्पणी किए मोहाली के एसएसपी को उनकी सुरक्षा की समीक्षा कर उचित कदम उठाने के आदेश जारी किए थे। साथ ही यह भी कहा था कि इस मामले में याचिकाकर्ताओं के परिजनों को सुनने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह मामला जीवन और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।

यह एक ग़लत जजमेंट है और मेरे हिसाब से सुप्रीम कोर्ट को इसे संज्ञान लेना चाहिए

 

देश के जाने-माने सीनियर एडवोकेट एहतेशाम हाशमी, पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के इस निर्णय को लेकर खरी-खरी कहते हैं, वे कहते हैं कि, “सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि लिव इन रिलेशनशिप इज नॉट एन ऑफन्स। जो मैट्रिमोनियल कानून हैं उसमें भारतीय कानून के तहत मेन्टेनेन्स के लिए लिव इन रिलेशनशिप को भी सम्मिलित किया गया है। और इन सबके बावजूद यदि कोई हाइकोर्ट इस तरह का जजमेंट देता है तो यह पूरी तरह एक ग़लत जजमेंट है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह एक ग़लत राय भी है और मेरे हिसाब से सुप्रीम कोर्ट को इसे संज्ञान लेना चाहिए। सम्मानित हाइकोर्ट ने यह  जो निर्णय दिया है इसे सेट-असाइड कराने की भी आवश्यकता है।
अब हम 2021 में रह रहे हैं और हम अब भी अगर लिव इन रिलेशनशिप को कोई आधार नहीं दे रहे हैं तो यह अजीब ही बात होगी। देखिए, यह एक पर्सनल ओपिनियन हो सकता है कि यह चीज़ किसी को व्यक्तिगत तौर पर पसन्द या नापसन्द हो सकती है, आपको कोई जबर्दस्ती नहीं कर रहा लिव इन में रहने के लिए। लेकिन जो अपनी मर्ज़ी से रह रहे हैं उनकी डिग्निटी और उनकी प्राइवेसी मेनटेन करना हमारा राइट हैं।”
मैं पूछना चाहता हूं कि आज जब हम एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों  की बात कर रहे हैं तो किसी को अब लिव इन से क्या समस्या है ? : एहतेशाम हाशमी,  सीनियर एडवोकेट  ,सुप्रीम कोर्ट
“देखिये,हाइकोर्ट का न्यायाधीश होना एक जिम्मेदार संवैधानिक पद है, यहां आप भारत के संविधान और सुप्रीम कोर्ट में निर्णयों से बंधे हैं। आप यहां किसी मामले पर व्यक्तिगत राय नहीं दे सकते हैं। आपको उदाहरण देता हूँ, मान लीजिए मेरी पर्सनल ओपिनियन है कि मुझे नमाज पढ़नी चाहिए, पर जब मैं जज बन जाऊंगा तो मैं सबको यह आर्डर थोड़ी न पास करूंगा कि सब नमाज पढ़ें। यह मेरी व्यक्तिगत आस्था है लेकिन एक जज होने के नाते आपको संविधान के हिसाब से चलना होगा।”

जहां हमारा समाज चला आया है , जितना हम प्रगति कर चुके हैं हम वहां से अब पीछे नहीं जा सकते हैं

पत्रकारिता एवं साहित्य क्षेत्र से जुड़े वरिष्ठ लेखक राम जन्म पाठक इस निर्णय को लेकर कई गम्भीर सवाल उठाते हैं, वे कहते हैं कि,
“ये जो हाइकोर्ट का फैसला है इस पर पहले ही यानि कि सहजीवन को लेकर पहले ही सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है ,कई बार। तो कुल मिलाकर यह अपने ही उच्चतम न्यायालय के ख़िलाफ़ किया गया यह फैसला है। दूसरी बार यह है कि जहां हम चले आये हैं, जहां हमारा समाज चला आया है , जितना हम प्रगति कर चुके हैं हम वहां से अब पीछे नहीं जा सकते हैं। सहजीवन आज के जीवन की वास्तविकता है। आज एक-दो नहीं बल्कि कई जोड़ियां  हैं जो लिव इन में रह रहे हैं। यहां शादी की बात है ही नहीं, यह तो मौलिक अधिकारों की बात है।”
“मान लीजिए कोई मित्र के तौर पर भी साथ रह रहा हो, वह भी तो किसी से जान का खतरा होने पर कोर्ट से अपनी सुरक्षा की मांग कर सकता है। इस फ़ैसले में वे शादी किये हों या न किये हों यह तो कोई मतलब ही नहीं था।” : राम जन्म पाठक, वरिष्ठ लेखक
“हाइकोर्ट ने दो बड़ी ग़लती की एक तो सुरक्षा का अधिकार जो मांगना था उस जोड़े का उसे अतार्किक रूप से ख़ारिज किया गया और  दूसरा सहजीवन को तो आप किसी जोड़े के बालिग होने पर कैसे प्रश्नों के घेरे में खड़े कर सकते हैं। यह बहुत ही दकियानूसी और चीथड़ा आदेश है।”
फिलहाल ऐसे कई निर्णयों से देश की प्रगतिशीलता रूपी विशाल बरगद की घनेरी जटाओं के कटने का डर बना रहता है, हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। मूक और चरमराई हुई व्यवस्था को सिद्ध करने का यह घटिया तरीका है।

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