नागरिकता संशोधन अधिनियम
बीते चार बरसों से लंबित पड़े नागरिकता संशोधन अधिनियम को केंद्र सरकार ने ठीक उसी दिन लागू करने का ऐलान किया जिस दिन इलेक्टोरल बॉन्ड मुद्दे पर उसे उच्चतम न्यायालय से तगड़ा झटका लगा। बेहद विवादित इस अधिनियम को आम चुनाव से ठीक पहले लागू कर केंद्र सरकार ने विपक्षी दलों के इस आरोप को पुख्ता करने का काम किया है कि भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण का सहारा ले रही है जिससे समाज में अलगाव बढ़ रहा है। हालांकि भाजपा और केंद्र सरकार के मंत्री इस आरोप को सिरे से नकार किसी धर्म विशेष के खिलाफ नहीं होने की बात कह रहे हैं। इस बीच इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि यह कानून भेदभावपूर्ण है और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों का उल्लंघन करता है

देशभर में नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 ने एक बार फिर सियासी गलियारों में हलचलें तेज कर दी हैं। कई राज्य नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं वहीं कुछ संगठनों ने इस कानून और केंद्र सरकार के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। हालांकि केंद्र सरकार ने दावा किया है कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता पर खतरा नहीं है। उसके बावजूद कई राज्यों ने कहा है कि वो नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को अपने राज्यों में लागू नहीं करेंगे। केंद्र सरकार लंबे समय से कह रही थी कि वो लोकसभा चुनाव से पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम को देश भर में लागू करेगी। आम चुनाव से ठीक पहले इस पर अमल करते हुए केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 यानी सीएए के लिए अधिसूचना जारी कर इसे लागू कर दिया है। गौरतलब है कि ‘नागरिकता कानून 1955’ 2019 में संशोधित किया गया था। इस बिल के संसद से पास होने के बाद कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शन हुए थे। 9 दिसंबर, 2019 को यह बिल लोकसभा में और 11 दिसंबर, 2019 को राज्यसभा में पास हुआ। 12 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति द्वारा इसे मंजूरी दे दी गई और अब 11 मार्च 2024 को इसे देशभर में लागू कर दिया गया है। इसके बाद से ही लगातार इसका विरोध किया जा रहा है।
विपक्ष द्वारा इस कानून को एंटी मुस्लिम करार दिया गया है। उसका मानना है कि इस कानून से मुस्लिम प्रवासी अवैध घोषित हो सकते हैं। विपक्ष ने केंद्र सरकार के खिलाफ तर्क देते हुए कहा है कि नागरिकता धर्म के आधार पर क्यों दी जा रही है? इसमें मुस्लिमों को शामिल क्यों नहीं किया जा रहा? दूसरी तरफ केंद्र सरकार का तर्क है कि पाकिस्तान,
बांग्लादेश और अफगानिस्तान इस्लामिक देश हैं और यहां पर गैर-मुस्लिमों को धर्म के आधार पर सताया और प्रताड़ित किया जाता है। इसी कारण गैर-मुस्लिम यहां से भागकर भारत आए हैं, इसलिए गैर-मुस्लिमों को ही इसमें शामिल किया गया है। सीएए का लगातार हो रहे विरोध पर केंद्र सरकार ने अपना तर्क देते हुए कहा है कि देश के अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम समुदाय को डरने की जरूरत नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि भारत में रहने वाले किसी भी अल्पसंख्यक को, विशेषकर मुस्लिम भाइयों और बहनों को डरने की जरूरत नहीं है।
क्या है यह संशोधन
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के तहत 31 दिसंबर 2014 से पहले पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी। सीएए नियमों के अनुसार इन तीनों पड़ोसी मुल्कों से आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को ही भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। नागरिकता पाने के लिए ऑनलाइन प्रक्रिया अपनाई गई है। जिसमें किसी आवेदक को दस्तावेजों की जरूरत नहीं होगी,बस आवेदकों को यह बताना होगा कि वे भारत कब आए। गौरतलब है कि पिछले दो सालों के दौरान नौ राज्यों के 30 से अधिक जिला मजिस्ट्रेट और गृह सचिवों को नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत इन तीनों इस्लामिक मुल्कों से आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने की शक्ति दी गई। गृह मंत्रालय की साल 2021 की रिपोर्ट अनुसार 1 अप्रैल 2021 से 31 दिसंबर 2021 के बीच पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदायों के 1414 व्यक्तियों को नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत पंजीकरण या प्राकृतिक करण के माध्यम से भारतीय नागरिकता प्रदान की गई है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ कई राज्य
साल 2019 से ही इस अधिनियम के खिलाफ कई राज्य रहे हैं। मौजूदा समय में केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन इस अधिनियम को सांप्रदायिक आधार पर विभाजन पैदा करने वाला कानून करार दे रहे हैं। देशभर में सीएए के लागू होने पर उन्होंने कहा कि वे इसे अपने राज्य में लागू नहीं करेंगे, वहीं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस अधिनियम को भाजपा के डूबते जहाज का सहारा बताया है। एमके स्टालिन ने कहा है कि प्रधानमंत्री लोकसभा चुनाव से पहले सीएए नियमों को अधिसूचित करके अपने डूबते जहाज को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा सरकार के विभाजनकारी एजेंडे ने नागरिकता नियम को हथियार बना दिया है, इसे मानवता के प्रतीक से धर्म और नस्ल के आधार पर भेदभाव के उपकरण में बदल दिया है। वहीं कर्नाटक के गृह मंत्री परमेश्वर ने इस कानून को लेकर कहा है कि यह अधिनियम राजनीति से प्रेरित है जो आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर लागू किया गया है -यह चुनाव में अधिक सीटें जीतने और सत्ता में आने को लेकर बीजेपी के आत्मविश्वास की कमी को दर्शाता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शुरुआत से ही इस कानून का लगातार विरोध करती रही हैं। ममता बनर्जी ने इस बार भी कहा है कि यदि ये कानून लोगों के समूहों के साथ भेदभाव करता है तो वह इसका विरोध करेंगी। उनके अनुसार सीएए और एनआरसी पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के लिए संवेदनशील मुद्दा है और वे चुनाव से पहले कोई अशांति नहीं चाहती।

राज्यों द्वारा लगातार इस कानून के विरोध करने के बीच सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या राज्य सरकार इस कानून को लागू न कराने का अधिकार रखती हैं? वरिष्ठ अधिवक्ता एवं संविधान मामलों के विशेषज्ञ संजय पारिख के अनुसार नागरिकता संशोधन कानून एक केंद्रीय कानून है। ऐसे में कोई राज्य इसे लागू करने से इंकार नहीं कर सकता है। लेकिन अगर राज्य को लगता है कि यह कानून संविधान की मूल भावना और संघवाद के खिलाफ है तो राज्य को इसका विरोध करने का पूरा अधिकार है। राज्य विधानसभा में इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा सकता है। जैसे कि केरल सरकार इस कानून के खिलाफ पहले ही विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर चुकी है। साथ ही उसने इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है।
पूर्वोत्तर में भी हो रहा है विरोध
राष्ट्रपति से नागरिकता संशोधन अधिनियम को मंजूरी मिलने के बाद से ही पूर्वोत्तर के सात राज्य इस कानून का विरोध करते रहे हैं। असम, मेघालय समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में इस कानून को लागू न करने की मांग को लेकर लोग सड़कों पर उतर आए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों पूर्वोत्तर राज्य इस कानून को लागू नहीं होने देना चाहते? दरअसल पूर्वोत्तर के पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा और असम की सीमा बांग्लादेश से मिलती है। यहां के लोगों का मानना है कि बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को नागरिकता मिलने से राज्य के संसाधन और अवसर बंट जाएंगे। मेघालय में गारो, जैंतिया और ट्राइब समुदाय के लोग यहां के मूल निवासी हैं लेकिन अल्पसंख्यकों के आने के बाद वे पीछे रहे गए हैं। हर जगह अल्पसंख्यकों का दबदबा हो गया है। इसी तरह बोरोक समुदाय त्रिपुरा के मूल निवासी है, लेकिन वहां भी बंगाली हिंदू शरणार्थी भर चुके हैं। सरकारी नौकरियों में बड़े पद भी उनके पास जा चुके हैं। इसलिए पूर्वोत्तर के लोगों का मानना है कि सीएए लागू होने से मूल निवासियों की बची-खुची ताकत भी चली जाएगी। हालांकि सरकार ने दावा किया है कि पूर्वोत्तर के लोगों को इस कानून से कोई नुकसान नहीं है। पूर्वोत्तर में अनुच्छेद-371 नहीं हटाया जा रहा है। इस अनुच्छेद के तहत पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष संरक्षण प्राप्त है।
केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर में हो रहे विरोध को देखते हुए कानून लागू करने के दौरान घोषणा की कि पूर्वोत्तर भारत के जिन क्षेत्रों में जाने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) की जरूरत होती है वहां ‘सीएए’ लागू नहीं होगा। इस कानून में ‘इनर लाइन प्रणाली’ सहित कुछ अन्य श्रेणियों में छूट प्रदान की गई है। संविधान की 6वीं अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्रों और इनर लाइन परमिट (आईएलपी) प्रणाली के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर और सिक्किम आईएलपी के अंतर्गत आते हैं।
सीएए अधिनियम से असम समझौते का उल्लंघन
असम सरकार चाहती है कि यह कानून राज्य में लागू हो, वहीं असम के लोग इसके खिलाफ हैं। अखिल असम छात्र संघ (एएसयू) इस कानून और केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। अखिल असम छात्र संघ के अध्यक्ष उत्पाल सरमा ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय में उन्होंने इस कानून पर रोक लगाने की मांग करते हुए याचिका दायर की है। 12 मार्च को याचिका दायर करने के बाद ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने गुवाहाटी में मशाल मार्च निकाला। असम छात्र संघ का कहना है कि असम समझौते के अनुसार निर्वासन वर्ष 1971 निर्धारित किया गया था और अब सीएए के अनुसार 2014 है। संघ के मुताबिक असम अब और प्रवासियों का बोझ नहीं ढो सकता है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एएसयू के सलाहकार समुज्जल भट्टाचार्य का कहना है कि सीएए असंवैधानिक, उत्तर-पूर्व विरोधी, असम विरोधी अधिनियम है। उन्होंने कहा है कि असम में पांच साल तक चले हिंसक विरोध के बाद 1985 के दौरान कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच हुए इस असम समझौते के मुताबिक 25 मार्च 1971 के बाद आए शरणार्थियों और प्रवासियों की पहचान करने और उन्हें निर्वासित करने पर सहमति बनी हुई है। इसीलिए सीएए का विरोध कर रहे संगठनों के मुताबिक यह असम समझौते का उल्लंघन है। हालांकि केंद्र सरकार ने कहा है कि असम समझौते का भी पूरी तरह पालन किया जाएगा। असम छात्रसंघ के अतिरिक्त इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) द्वारा भी इस कानून को प्रतिबंधित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से मांग की गई है। आईयूएमएल ने कहा कि नागरिकता संशोधन नियम मनमाने हैं और केवल धार्मिक पहचान के आधार पर व्यक्तियों के एक वर्ग के पक्ष में अनुचित लाभ पैदा करते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है। गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती देने वाली लगभग 250 याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित हैं और यदि सीएए को असंवैधानिक माना जाता है तो एक असामान्य स्थिति उत्पन्न होगी।

