[gtranslate]
Country

वजूद बचाने की चुनौती 

कुछ ही दिनों में पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान होने हैं। चुनावों के लिए सभी पार्टियां अपने-अपने उम्मीदवारों की सूची और घोषणा पत्र जारी कर चुकी हैं। इन विधानसभा चुनावों के साथ-साथ ही अब चुनाव आयोग ने देशभर के 12 राज्यों में 14 विधासनभा सीटों पर उपचुनाव का ऐलान भी कर दिया है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में लोकसभा की एक- एक सीट पर भी चुनाव होंगे। सभी जगह 17 अप्रैल को वोटिंग होगी और 15 दिन बाद 2 मई को नतीजे आएंगे। चुनाव आयोग के इस ऐलान के बाद अब देश में राजनीतिक सियासत और ज्यादा गरमा गई है।

मौजूदा समय में चुनावों को लेकर सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल की राजनीति में उबाल दिख रहा है। बंगाल में जिनका दो- तीन दशकों से भी अधिक समय तक एकछत्र राज रहा, आज वे एक-एक सीट के लिए मोहताज हो रहे हैं। यह कांग्रेस और वामदलों की दास्तां है।
आजादी के बाद से लेकर वर्ष 1977 तक बीच के कुछ वर्षों को छोड़कर कांग्रेस ने बंगाल पर दो दशकों से अधिक समय तक शासन किया लेकिन हालात यह है कि उसे चुनाव लड़ने के लिए कभी धुर विरोधी रहे वामदलों और मौलाना के दल से हाथ मिलाना पड़ रहा है।
ऐसा ही हाल माकपा के नेतृत्व वाले वाममोर्चा का भी है। 34 वर्षों तक सत्ता में रहने वाले और खुद को जाति, धर्म और मजहब को दूर रखकर धर्मनिरपेक्षता का दंभ भरने वाले काॅमरेडों की आज हालत यह है कि अपना वजूद बचाने के लिए उन्हें अब्बास सिद्दीकी से हाथ मिलाकर चुनावी रण में उतरने से गुरेज नहीं है। आखिर कांग्रेस और वामदलों का ऐसा पतन क्यों हुआ? यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब बंगाल के सभी कांग्रेस नेताओं और काॅमरेडों को पता है लेकिन वे बनते नहीं। बंगाल के सियासी इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो पता चलता है कि सत्ता में रहते ही कांग्रेस और वाममोर्चा का परचम बुलंद था। जैसे ही सत्ता गई, उनकी सियासी जमीन भी खिसक गई।
वर्ष 1952 में बंगाल में पहला विधानसभा का चुनाव हुआ तो कांग्रेस का परचम लहराया। यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाॅक जैसे वामपंथी दलों की जड़ें भी मजबूत होती गईं। कांग्रेस के कद्दावर नेता एवं सूबे के दूसरे मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय के समय ही कांग्रेस बंगाल में पहली बार दो भागों में बंटी। कांग्रेस से टूटकर नई पार्टी बंगाल कांग्रेस बनी, जिसके अगुआ अजय मुखर्जी थे। उस समय कांग्रेस के सामने दूसरा कोई ताकतवर दल नहीं था जिसकी वजह से वह लगातार जीतती रही।

उधर, भाकपा और अन्य दल भी मजबूत होते गए लेकिन भाकपा भी बंट गई और माकपा बनी, जिसका झंडा ज्योति बसु, अनिल बसु, विमान बोस, बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे नेताओं ने थामा और इधर कांग्रेस में सिद्धार्थ शंकर राॅय, अब्दुल गनी खान चैधरी, प्रणब मुखर्जी, प्रियरंजन दासमुंशी सरीखे नेता थे।

केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद 1977 में हिंसा, दमन और गलत नीतियों की वजह से कांग्रेस बंगाल की सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद धीरे-धीरे कांग्रेस का पतन शुरू हो गया। कांग्रेस में गुटबाजी भी बढ़ गई थी। एक जनवरी, 1998 को ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली। इधर, वाममोर्चा लगातार ताकतवर हुआ और उधर तृणमूल प्रमुख के रूप में ममता बनर्जी का कद बढने लगा। कांग्रेस दूसरे से तीसरे नंबर पर पहुंच गई। हालात ऐसे बने कि कई बार तृणमूल के साथ कांग्रेस को हाथ मिलना पड़ा।

साल 2009 के लोकसभा चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने तृणमूल के साथ मिलकर लड़ा, फिर भी तीसरे स्थान पर रही। असली पतन कांग्रेस के लिए 2012 के बाद शुरू हुआ, जब तृणमूल ने कांग्रेस के विधायकों से लेकर नेताओं को तोडना शुरू किया। 2016 में वाममोर्चा के साथ गठबंधन कर लडने के बाद 44 सीटें जीतकर नंबर दो पार्टी बनने वाली कांग्रेस के एक दर्जन से अधिक विधायक तृणमूल में चले गए। आज हालत यह है कि कई जिलों में संगठन के नाम पर दो-चार ही लोग बचे हैं।

कांग्रेस के शासन जैसी हिंसा और अहंकार में डूबे माकपा नेता-कार्यकर्ताओं से तंग आकर बंगाल की जनता ने 2011 में वामपंथियों को सत्ता से बाहर कर दिया। इसके बाद वाम के लाल दुर्ग कीे ईंटें एक-एक कर ढहने लगी। पहले पिटाई और फिर पुलिस कार्रवाई के डर से वामपंथी कार्यकर्ता व नेता धीरे-धीरे तृणमूल में शामिल हो गए। बाकी जो बचे, वे भाजपा में चले गए। इसी का नतीजा रहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा का खाता खुलना तो दूर, एक प्रत्याशी को छोड़कर सभी की जमानत तक जब्त हो गई।

भाजपा के उत्थान के साथ ही कांग्रेस और वाममोर्चा क्रमशरू तीसरे और चैथे स्थान पर पहुंच गई। इस चुनाव में भी एक बार फिर वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच मजबूरी का गठबंधन हुआ है। इसके बावजूद भी जब लगा कि अस्तित्व बचाना मुश्किल होगा तो अब फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट से दोनों ने हाथ मिला लिया। ऐसे में मुस्लिम वोट मिलने की उम्मीद गठबंधन की बढ़ी है, जो मुख्यमंत्री व तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी की परेशानी बढ़ा सकती है। वहीं भाजपा की भी परेशानी इससे है कि वाममोर्चा-कांग्रेस गठबंधन के मजबूत होने से तृणमूल विरोधी वोट कहीं बंट न जाए। गठबंधन कर भाजपा और तृणमूल के बीच होने वाली सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है।

                                                                           चुनावी गतिविधियां 

 

वोट बैंक पर नजर

इस बार बंगाल में 8 चरणों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में सारी पार्टिया मुस्लिम वोटों पर नजर गड़ाए हैं। दरअसल, यहां 30 फीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है और चुनाव में खास महत्व रखती है। लेकिन, दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी चुपचाप अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है।
बता दें कि 2011 की जनगणना के दौरान राज्य में जनजातीय आबादी 52 लाख 90 हजार थी, जो कुल आबादी का लगभग
5.8 फीसदी है। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अनुसार अनुसूचित जाति की आबादी यहां की कुल 9 करोड़ 13 लाख आबादी का 23.51 फीसदी यानी 2 करोड़ 14 लाख थी। राज्य की कुल जनसंख्या अब 10 करोड़ 19 लाख होने का अनुमान है। सबसे अधिक आदिवासी आबादी दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार, दक्षिण दिनाजपुर, पश्चिम मिदनापुर,बांकुरा और पुरुलिया जिलों में पाई जाती है। एसटी के लिए 16 आरक्षित सीटें हैं। वहीं राज्य की 294 में से 68 विधानसभा सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं। लेकिन उनका प्रभाव आरक्षित सीटों से अधिक है।

एससी – एसटी के सहारे मिली थी जीत

जानने वाली बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में ये साफ हो गया था कि भारतीय जनता पार्टी यहां एससी और एसटी वोट के बिना 42 में से 18 सीटें हासिल करने में भी असफल ही रहती। ऐसे में एससी-एसटी वोट विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी के लिए बड़ा महत्व रखते हैं।

मटुआ समुदाय पर सीएए का दांव

लगभग 60 हिंदू उपजातियां एससी कैटेगरी में आती हैं। इनमें से तीन प्रमुख हैं। राजबंशी, जो कि कुल एससी आबादी का
18.4 फीसदी, नामसुद्र 17.4 फीसदी और बागड़ी 14.9 फीसदी हैं। मटुआ समुदाय, जो 2019 से चर्चा में है, बड़े नामसुद्र समुदाय का ही हिस्सा है। मूल रूप से अधिकांश नामसुद्र पार्टिशन के समय पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए थे। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की 11 फरवरी को घोषणा कि केंद्र देश में कोरोना वायरस बीमारी के खिलाफ टीकाकरण के अभियान के बाद नागरिकता संशोधन अधिनियम, या सीएए को लागू किया जाएगा। ये एक चुनावी फैक्टर बन गया है। बता दें कि शाह ने बंगाल में मटुआ समुदाय तक पहुंचने के लिए ये बयान दिया था। इसी समुदाय को 2019 में भाजपा की मदद करने का श्रेय दिया जाता है। भाजपा ने मतुआ समुदाय के लोगों को सीएए के तहत नागरिकता देने का ऐलान कर बड़ा दांव चला है। शाह ने उत्तर 24-परगना जिले के ठाकुरनगर में ये बयान दिया था। ठाकुरनगर बोंगांओं लोकसभा सीट का हिस्सा है यहां भाजपा ने 2019 में मटुआ नेता शांतनु ठाकुर को तृणमूल कांग्रेस की ममता बाला ठाकुर के खिलाफ मैदान में उतार कर जीत हासिल की थी।

 एनआरसी का डर दिखा रही तृणमूल 

ममता बनर्जी एनआरसी का मुद्दा उठाकर कह रही है कि अगर वह लागू हुआ तो उन लोगों को बांग्लादेश वापस जाना
होगा। हालांकि भाजपा कह रही है कि सीएए बनाकर वह उनको यहां की नागरिकता देगी। चूंकि इस समुदाय में 99 फीसदी से ज्यादा लोग हिंदू समुदाय से आते हैं इसलिए भाजपा को समर्थन मिलने की काफी उम्मीद है। ममता बनर्जी भी भाजपा के
नागरिकता के मुद्दे की काट के लिए मतुआ लोगों को जमीन पर अधिकार देने का अभियान चला रही है।

 

You may also like

MERA DDDD DDD DD