भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए भारत के पास कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं हैं| जो भ्रष्टाचार जैसे मामलो की स्वतंत्र जांच कर सके | अभी तक जो भी एजेंसी हैं वो सब सरकार के अधीन आती हैं जैसे की सीबीआई गृह मंत्रालय
के अंतर्गत आता है, आयकर विभाग वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आता है और आईबी पीएमओ के तहत आता है. इस तरह से भारत में जितनी भी जांच एजेंसी हैं | वे किसी ना किसी मंत्रालय के अधीन आती ही है ऐसे में कैसे भ्रष्टाचार के मामले की जांच हो क्योकि कोई भी एजेंसी अपने ऊपर के विभाग की जांच नहीं कर सकती है| . इसलिए बहुत अर्से से एक ऐसी स्वतंत्र एजेंसी की मांग की जा रही थी| जो सभी सरकारी विभागों से भी ऊपर हो.| समाज सुधारक अन्ना हजारे ने 2011 में एक ऐसी ही संस्था बनाने के लिए आंदोलन की शुरुआत की। इसे उन्होंने नाम दिया लोकपाल।
हजारे ने लोकपाल संस्था के कांसेप्ट को बेहतर तरीके से समझाया.| इस आन्दोलन को शुरू करने का अन्ना हजारे का भी एक मात्र उद्देश्य था, भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बेहतर तरीके अपनाना और उसे लागू करना. उनका कहना था, कि देश में राजनेताओं और सरकारी सेवकों द्वारा यदि भ्रष्टाचार किया जाता है, तो सरकार की अनुमति के बिना उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की शक्ति किसी एक व्यक्ति के ऊपर होनी चाहिए, जोकि सरकार से भी ऊपर हो.| जिसको लेकर अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन शुरू किया था। भारी जद्दोजहद के बाद जब लोकपाल विधेयक को संसद में 4 अगस्त, 2011 को सरकार ने लोकसभा में प्रस्तुत किया तो अन्ना का माॅडल का उसमें नामोनिशान नहीं था। इससे नाराज हो अन्ना हजारे ने एक बार फिर से 16 अगस्त 2011 को आमरण-अनशन में जाने का ऐलान कर डाला। | उससे भ्रष्टाचार में लगाम नहीं लगेगी| उन्होंने उसके विरोध में 16 अगस्त, 2011 से अनशन करने की घोषणा की थी । लेकिन यह अनशन शुरू होने से चार घंटे पूर्व ही सरकार ने अन्ना हजारे को 16 अगस्त को हिरासत में लेकर तिहाड़ जेल भेज दिया, जिसके विरोध में देश भर में जनता सड़कों पर आ गई थी। भारी जन दबाव देखते हुए सरकार को अन्ना की रिहाई के आदेश उसी दिन जारी करने पड़े | अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में अनशन जारी रखने की अनुमति नहीं मिलने तक जेल मैं ही अनशन शुरू कर दिया था | 19 अगस्त को रामलीला मैदान में अनुमति मिलने के बाद अन्ना जेल से बाहर निकले ।
भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना द्वारा शुरू की गई इस मुहिम को जो देशव्यापी समर्थन मिला | उसने स्वाधीनता के लिए महात्मा गांधी के आन्दोलन की यादें ताजा करा दीं थी । एक ओर दिल्ली में रामलीला मैदान में अन्ना के आदोलन के समर्थन में जनसैलाब जहाँ दिनों-दिन बढ़ता गया, वहीं दूसरी ओर देश भर में गली-गली में व्यापक स्तर पर नुक्कड़ सभाएं व प्रदर्शन इस आदोलन के समर्थन में होने लगे । इस आन्दोलन में अन्ना हजारे जी के साथ रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश, श्री श्री रविशंकर, मल्लिका साराभई, सुप्रीमकोर्ट के वकील प्रशांत भूषण, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश जस्टिस संतोष हेगड़े और आरटीआई कार्यकर्त्ता अरविन्द केजरीवाल,कुमार विश्वास,मनीष सिसोदिया आदि लोग भी शामिल थे. यह न सिर्फ एक जन लोकपाल बिल आन्दोलन था, बल्कि इसे ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ भी कहा जाता है. इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत के लोगों के सामूहिक क्रोध की अभिव्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया |
इस आंदोलन में भरी जनसमर्थन को देखते हुए सरकार को आखिर झुकना ही पड़ा | अन्ना टीम द्वारा पेश की गई तीन प्रमुख माँगों के प्रति सैद्धान्तिक सहमति का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में 27 अगस्त, 2011 को सर्वसम्मति से पारित किया गया ।संसद में उपयुक्त प्रस्ताव पारित हो जाने के पश्चात् ही अन्ना हजारे ने अपना अनशन 13वें दिन 28 अगस्त, 2011 को तोड़ा, जिसके साथ ही अत्यधिक शांतिपूर्ण व अहिंसात्मक तरीके से चलाए गए इस आदोलन का समापन 28 अगस्त, 2011 को हुआ । उस समय यह बिल लोकसभा में तो पास हो गया, लेकिन राज्यसभा में फिर से अटक गया और वर्ष 2013 तक इस पर कोई फैसला न लिया जा सका । तब अन्ना हज़ारे को दिसम्बर, 2013 में फिर से अनशन का सहारा लेना पड़ा । इस बार उन्हें युवाओं का सहयोग भी विशेष रूप से मिला । इन सबका परिणाम यह हुआ कि 17 दिसम्बर, 2013 को 15 संशोधनों के साथ जनलोकपाल बिल राज्यसभा में पारित हो गया । फिर इसे 18 दिसम्बर, 2013 को लोकसभा में पुन: पेश किया गया, जहाँ इस बिल को ध्वनिमत से पास किया गया। राष्ट्रपति ने 1 जनवरी, 2014 को इस विधेयक को स्वीकृति दे दी ।
अन्ना की तीन प्रमुख माँगों में सबसे पहली थी कि राज्यों में भी लोकपाल की ही तर्ज पर लोकायुक्त नियुक्त हो । दूसरे, सभी केंद्रीय कर्मचारी लोकपाल के और राज्य सरकार के सभी कर्मचारी संबंधित राज्य के लोकायुक्त के दायरे में आएं । अन्ना की तीसरी माँग थी कि नागरिक घोषणा-पत्र के जरिए जनता के सारे काम तय समय सीमा में हों ।
सरकार पर जनलोकपाल विधेयक को पारित करने का दबाव बनाने हेतु वर्ष 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर अनशन किया । उनके इस आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला ।
कब आया लोकपाल बिल कैसे हुई इसकी उत्पत्ति
“लोकपाल” शब्द संस्कृत के “लोक” शब्द से बना है जिसका अर्थ है लोग और “पाला” जिसका मतलब होता है ‘लोगों की देखभाल करने वाला’.| भारत में लोकपाल शब्द की उत्पत्ति स्वर्गीय कांग्रेस राजनेता श्री लक्ष्मण सिंघवी जी द्वारा सन 1963 में की गई थी | प्रशासनिक सुधार आयोग के प्रमुख मोरारजी देसाई जी ने सन 1966 में एक रिपोर्ट पेश की जिसमें लिखा था, कि अगर अपने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानी है और जनता को इससे राहत देनी है, तो भारत में एक लोकपाल विधेयक को लाना आवश्यक है. इस रिपोर्ट में उन्होंने यह भी कहा कि ‘लोकपाल’ केन्द्रीय स्तर के लिए होना चाहिए और राज्य स्तर पर कार्य करने के लिए ‘लोकायुक्त’ होना चाहिए.| लेकिन उस समय भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया.| 9 मई 1968 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सरकार में लोकपाल विधेयक पहली बार संसद में पेश हुआ था।लेकिन यह बिल संसद में पास नहीं हो पाया | उस वक्त लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री को भी रखा गया था। लेकिन 1971 में पीएम पद को लोकपाल के दायरे से हटा लिया गया। 1977 और 1985 में प्रधानमंत्री पद को फिर से लोकपाल के दायरे में लाया गया। तब से लेकर सन 2011 तक 8 बार इस बिल को पास किये जाने के बारे में बात होती रही| लेकिन बिल को संसद में पास नहीं किया गया | 2011 में जनलोकपाल के पक्ष में जनआंदोलन शुरू हुआ और उस वक्त इसको लेकर लोगों में काफी संजिदगी देखी गई। 2011 में भी प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व वाले मंत्रियों के समूह ने लोकपाल की जरूरत पर बल दिया। इस तरह 8 नाकाम प्रयासों के बाद भारत का लोकपाल बिल 17 दिसंबर 2013 को राज्यसभा और अगले दिन 18 दिसंबर 2013 को लोकसभा में पास हो गया। दोनों सदनों में पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी तत्काल बिल को मंजूरी प्रदान कर दी थी। इसके बाद भी भारत को पहला लोकपाल मिलने में सवा पांच साल का वक्त लग गया। मार्च 2019 में पहले लोकपाल अध्यक्ष की घोषणा की गई है. भारत के पहले लोकपाल सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पिनाकी चंद्र घोष जी है.
लोकपाल का चयन कैसे किया जाता है क्या हैं इसके पात्रता एवं मापदंड
लोकपाल के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए यह आवश्यक है लोकपाल या तो भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए या सुप्रीम कोर्ट का पूर्व न्यायाधीश होना चाहिए.
इसके अलावा उन लोगों को भी लोकपाल का अध्यक्ष बनाया जा सकता है, जो एक निर्दोष, ईमानदार और बेहतरीन योग्यता वाले एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हो. साथ ही उन्हें कुछ विशेष श्रेणियों में न्यूनतम 25 वर्षों का विशेष ज्ञान और उसमें विशेषज्ञता होनी भी आवश्यक है. वे व्यक्ति लोकपाल के अध्यक्ष बनने के लिए पात्र होंगे. वे कुछ विशेष श्रेणी भ्रष्टाचार – विरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, बीमा और बैंकिंग सहित वित्त एवं कानून और प्रबंधन से सम्बंधित हो सकती है.
लोकपाल के सदस्यों को 2 श्रेणी में बांटा गया है, जिनमें से 50 % न्यायिक सदस्य और 50 % सदस्य एससी / एसटी / ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिलायें होती है. लोकपाल के जो न्यायिक सदस्य हैं, वह या तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश या एक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही हो सकते हैं. इसके अलावा जो अन्य सदस्य हैं, उनके लिए वहीँ पात्रता मापदंड हैं, जोकि लोकपाल अध्यक्ष के लिए हैं.
एक लोकपाल की अधिकतम उम्र 70 साल होनी चाहिए, इससे ऊपर के किसी भी उम्मीदवार को लोकपाल के रूप में नियुक्ति नहीं की जा सकती है.
लोकपाल का चयन लोकपाल चयन समिति द्वारा किया गया था. इस समिति में 5 लोग होते हैं, और देश के प्रधानमंत्री इसके प्रमुख होते हैं. लोकपाल चयन समिति में शामिल होने वाले 5 लोगों में पहले देश के प्रधानमंत्री होते हैं, दूसरे लोकसभा अध्यक्ष होते हैं, तीसरे भारत के मुख्य न्यायधीश, चौथे विपक्ष के अध्यक्ष और पांचवें एवं अंतिम राष्ट्रपति द्वारा चयनित एक प्रसिद्ध न्यायविद आदि होते हैं. इस समिति द्वारा ही लोकपाल का चयन होता है.
लोकपाल के आलावा इसमें 8 अन्य सदस्य भी होते हैं. जिसमें लोकपाल अध्यक्ष होता हैं | इसके अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए यह आवश्यक है लोकपाल या तो भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए या सुप्रीम कोर्ट का पूर्व न्यायाधीश होना चाहिए.| इसके अलावा उन लोगों को भी लोकपाल का अध्यक्ष बनाया जा सकता है, जो एक निर्दोष, ईमानदार और बेहतरीन योग्यता वाले एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हो. साथ ही उन्हें कुछ विशेष श्रेणियों में न्यूनतम 25 वर्षों का विशेष ज्ञान और उसमें विशेषज्ञता होनी भी आवश्यक है. वे व्यक्ति लोकपाल के अध्यक्ष बनने के लिए पात्र होंगे. वे कुछ विशेष श्रेणी भ्रष्टाचार – विरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, बीमा और बैंकिंग सहित वित्त एवं कानून और प्रबंधन से सम्बंधित हो सकती है.
लोकपाल के सदस्यों को 2 श्रेणी में बांटा गया है, जिनमें से 50 % न्यायिक सदस्य और 50 % सदस्य एससी / एसटी / ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिलायें होती है. लोकपाल के जो न्यायिक सदस्य हैं, वह या तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश या हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही हो सकते हैं. इसके अलावा जो अन्य सदस्य हैं, उनके लिए वहीँ पात्रता मापदंड हैं, जोकि लोकपाल अध्यक्ष के लिए हैं.
एक लोकपाल की अधिकतम उम्र 70 साल होनी चाहिए, इससे ऊपर के किसी भी उम्मीदवार को लोकपाल के रूप में नियुक्ति नहीं की जा सकती है.
लोकायुक्त
लोकायुक्त का एक अध्यक्ष होगा जो राज्य के हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या फिर हाईकोर्ट के रिटायर जज या फिर कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकता हैं. लोकायुक्त में अधिकतम आठ सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से आधे न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए. इसके अलावा कम से कम आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होने चाहिए.
लोकायुक्त का चयन लोकायुक्त चयन समिति द्वारा किया गया जाता हैं इसमें 5 सदस्य होते हैं राज्य के मुख्यमंत्री- इसके अध्यक्ष होते हैं ,दूसरे विधानसभा अध्यक्ष- ,तीसरे विधानसभा में विपक्ष के नेता- चौथे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या उनकी अनुशंसा पर नामित हाईकोर्ट के एक जज ,पांचवा राज्यपाल द्वारा नामित कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति
संसद द्वारा लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 पारित होने के बाद राज्यों को भी लोकपाल अधिनियम के एक साल के भीतर लोकायुक्त नियुक्त करने के लिये कहा गया है हालांकि कई राज्यों में पहले से ही लोकायुक्त कानून था,लेकिन लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 पारित होने के बाद , 23 राज्यों में लोकायुक्त कानून बना है जिसमें दिल्ली समेत सिर्फ़ 18 राज्यों में लोकायुक्त हैं. इतना ही नहीं, तीन राज्यों ने तो अब तक अपने यहां लोकायुक्त कानून लागू ही नहीं किया है. उसमें से पांच राज्य हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, उत्तराखंड और असम में लोकायुक्त के पद ख़ाली हैं.
जिन 23 राज्यों में लोकायुक्त कानून बना हैं उसमें से नौ राज्यों में लोकायुक्त की वेबसाइट ही नहीं है.सिर्फ महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां के लोकायुक्त को ऑनलाइन शिकायत भेजी जा सकती है. बाकी सभी राज्यों में लोकायुक्त के पास भ्रष्टाचार की शिकायत भेजने के लिए ऑफलाइन माध्यम अपनाना होता हैं .
क्या स्थिति हैं लोकायुक्त कि
अब राज्यों के लोकायुक्तों का हाल देखते हैं तो इनकी हालत बेहद ख़राब है. सिर्फ़ हरियाणा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान ने ही वेबसाइट पर वार्षिक रिपोर्ट अपलोड किया है.वो भी हरियाणा ने 2018 -2019 आंध्र प्रदेश ने 2014 -2015, महाराष्ट्र 2014 -2015 और राजस्थान 2014 -2015 ने वार्षिक को अपलोड किया हैं इसके बाद कोई वार्षिकी अपलोड नहीं की हैं
उत्तराखंड में बी.सी खंडूरी की सरकार ने लोकायुक्त अधिनियम वर्ष 2011 में पारित किया गया। इसे राष्ट्रपति से भी मंजूरी मिल गई थी। सत्ता बदली तो नई सरकार ने इसमें संशोधन किया, जिसमें 180 दिन में लोकायुक्त के गठन के प्रविधान को खत्म कर दिया गया। इससे सरकार लोकायुक्त की नियत अवधि में नियुक्ति की बाध्यता से मुक्त हो गई। भाजपा सरकार ने फिर इसमें संशोधन किया। विपक्ष की सहमति के बावजूद इसे प्रवर समिति को सौंप दिया गया। समिति रिपोर्ट दे चुकी है लेकिन इसके बावजूद अभी तक इस पर कोई निर्णय नहीं हो पाया है। फ़िलहाल उत्तरखंड में कोई लोकायुक्त ही नहीं हैं |
उत्तर प्रदेश में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पर क्या कार्रवाई हो रही है, इसका पता ही नहीं चल सकता. क्योकि साल 2014 की सपा सरकार और वर्तमान की योगी सरकार ने लोकायुक्त की तरफ से सौंपी गई रिपोर्ट ही विधानसभा में प्रस्तुत नहीं की है.तो भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगेंगी | 2018 में लोकायुक्त रिटायर्ड जस्टिस संजय मिश्रा ने कई नौकरशाहों, पूर्व मंत्रियों के खिलाफ शिकायत की थी. राज्यपाल को सौंपी गई इस रिपोर्ट में कई सिफारिशें भी शामिल थीं.लेकिन आगे कोई कार्यवाही नहीं हुई |
गोवा के लोकायुक्त रहे रिटायर्ड जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा 16 सितंबर 2020 तक करीब साढ़े चार साल तक लोकायुक्त पद पर रहने के बाद रिटायर हुए. उनके कार्यकाल के दौरान लोकायुक्त दफ्तर को 191 भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलीं. इनमें 133 केस का निपटारा किया गया. बाकी 58 शिकायतों में 21 ऐसी शिकायतें थीं, जिसकी रिपोर्ट उन्होंने राज्य सरकार को भेजी. जस्टिस मिश्रा का कहना है कि सरकार ने कभी इन पर कोई कार्रवाई नहीं की | जस्टिस मिश्रा ने विधायक पांडुरंग मदलइकर के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में एंटी करप्शन ब्यूरो (ACB) जांच की मांग की थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. यहां तक कि उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर पर भी इस मामले में जिम्मेदारी से दूर भागने के आरोप लगाए.| जस्टिस मिश्रा ने तीखी टिप्पणी करते हुए ये भी कहा कि लोकायुक्त की संस्था को खत्म कर देना चाहिए. जनता के पैसे को बिना कुछ किए क्यों खर्च किया जाना चाहिए? अगर लोकायुक्त एक्ट को इस तरह कूड़ेदान में डाला जा रहा है तो इसे खत्म करना ही बेहतर है.
कुल मिलाकर अन्ना आंदोलन के दबाव में आकर केंद्र सरकार ने लोकपाल का गठन तो किया लेकिन उसे कोई भी शक्ति न देकर एक दंतहीन हाथी बना डाला है। केंद्र की तर्ज पर राज्यों में भी लोकायुक्त की नियुक्तियां अवश्य हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर रोक लगा पाने में यह संस्था पूरी तरह विफल रही है।