कोरोना ने टीबी की लड़ाई को बेहद कमजोर किया है। लेकिन बहुत कुछ सबक के तौर पर सीखा भी दिया है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इन सबकों के सही समय पर इस्तेमाल करने को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति जागृत होगी ?
वर्ष 2020-21 जब कोरोना ने भारत में कहर बरपाया और कई लाख लोगों की जान ले ली। तब इस महामारी के लहर के दौरान भी एक बड़ी महामारी भी जारी थी। जिसकी ओर ध्यान लगभग सभी का छूट गया था। वह घातक महामारी थी टीबी। कोविड के खिलाफ चल रही लड़ाई की वजह से टीवी जैसे बड़े महामारी से निपटने के लिए होने वाले प्रयासों को भी पूरी तरह से प्रभावित कर दिया। हालांकि अब कोरोना वायरस के कुछ कम हो जाने से टीबी के खिलाफ अभियान तेजी पकड़ रहा है।
भारत विश्व के टीबी मरीजों में से एक चौथाई मरीजों का घर है। स्वास्थ्य विभाग के एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2020 में ट्यूबरक्लोसिस से भारत में करीब 5 लाख लोगों की मौत हुई है। जो कि पूरी दुनिया में हुई मौतों का एक तिहाई आंकड़ा बनता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में दशकों बाद टीबी के मरीजों के आंकड़ों में वृद्धि देखी गई है।
हालांकि भारत में वर्ष 2020 में मिले आंकड़ों के मुताबिक मरीजों की संख्या लगभग एक चौथाई घटकर 18 लाख रह गई। लेकिन इसका बड़ा कारण कोरोना वायरस से लगा प्रतिबंध था और यह भी था कि सभी संसाधनों को हटाकर कोरोना वायरस रोकने का प्रयास किया जा रहा था। जिसमें जांच से लेकर इलाज तक सभी कार्य प्रभावित हुए।
बीते गुरुवार को विश्व टीवी दिवस पर भारत ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की जिसमें वर्ष 2019-21 में दो तिहाई लोग ऐसे थे जिनके अंदर ट्यूबरकुलोसिस के लक्षण पाए गए। लेकिन उन्हें उचित इलाज ना मिलने से उनकी मौत हो गई।
आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2025 तक भारत से टीबी को खत्म करने का निर्णय लिया था लेकिन वर्ष 2020 से चल रही लगातार कोरोना महामारी ने उनके लक्ष्य और प्रयासों को मुश्किल कर दिया है। यही वजह है कि चिकित्सा विशेषज्ञों की मांग है कि ऐसे मामलों को खोजने के लिए जमीनी स्तर पर अभियान चलाया जाए। जो कोरोना के दौरान इलाज के लिए छूट गए थे।
इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी ऐंड लंग डिजीज के कुलदीप सिंह सचदेवा “देश के प्रत्येक राज्य सरकारों को घर-घर जाकर सर्वे करना चाहिए और सामूहिक जांच जैसे अभियान में भी तेजी लाना चाहिए। सचदेवा कहते हैं, “अब तो टीबी के समूल नाश का यही एक रास्ता है।”
—इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी ऐंड लंग डिजीज , कुलदीप सिंह सचदेवा
आधिकारिक तौर पर आंकड़ों की बात करें तो भारत में 520000 लोगों की मौत कोरोना काल में हुई है। लेकिन चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है यह संख्या इससे ज्यादा है आंकड़ों को कहीं ना कहीं छुपाया गया है। इस बीमारी ने दुनिया की सबसे घातक संक्रामक बीमारी होने का तमगा टीबी से छीन लिया था। लेकिन भारत के नजरिए से सबसे अच्छी बात यह रही कि मास्क लगाना एक सामान्य सी बात हो गई है।
चिकित्सा विशेषज्ञ सचदेवा यह भी अनुमान लगाते हैं कि मास्क का प्रयोग करने से भारत में 20% से भी ज्यादा टीबी के मरीजों में कमी आई होगी। वह कहते हैं एक और बड़ा फायदा हुआ है कि कोविड की जांच के लिए खरीदी गई मशीनें अब टीबी के लिए प्रयोग की जाएंगी।
भारत में टीबी का गढ़ कहा जाने वाला मुंबई में भी अब घर-घर जाकर सर्वे करने का अभियान प्रारंभ किया जाने वाला है। जिसका फायदा सीमा कुंचीकोरवे जैसे युवाओं को होगा जो 20 साल की उम्र में ही टीबी की संक्रामक बीमारी का शिकार हो गई थी। हालांकि कुंचीकोरवे अब जगह-जगह जाकर टीबी के लक्षणों के बारे में लोगों को जागरूक करती हैं वह लोगों को बताती हैं कि इलाज के बहुत से दुष्प्रभाव भी होते हैं जिन्हें मरीज झेल नहीं पाते।
टीबी की दवा उतारेगा सीरम इंस्टीट्यूट, मांगी अनुमति
सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने टीबी (तपेदिक) से बचाव में उपयोगी अपने रिकॉम्बिनेंट बीसीजी (आरबीसीजी) टीके को इमरजेंसी उपयोग की मंजूरी (ईयूए) देने के लिए भारतीय औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआई) के पास आवेदन कर दिया है। हालांकि सूत्रों ने रविवार को यह जानकारी दी। वहीं सूत्रों ने बताया कि एसआईआई के सरकारी एवं नियामक मामलों के डायरेक्टर प्रकाश कुमार सिंह ने 22 मार्च को ईयूए के लिए आवेदन दिया। मौजूदा समय में भारत के टीबी टीकाकरण कार्यक्रम के तहत बच्चों को जन्म के समय या एक साल की उम्र के भीतर बीसीजी टीका लगाया जाता है।