अफगानिस्तान में तालिबान का काबिज होना भारत के लिए सामरिक और आर्थिक दृष्टि से कई चिंताएं खड़ी कर गया है। सवाल है कि हजारों करोड़ का जो निवेश भारत ने वहां किया है, क्या वह डूब जाएगा? इसकी क्या गारांटी है कि अतीत की तरह तालिबान भारत विरोधी रुख नहीं अपनाएगा? सबसे बड़ी आशंका यह है कि तालिबान, चीन और पाक का गठबंधन भविष्य में भारत के लिए परेशानियां पैदा कर सकता है
पिछले हफ्ते 15 अगस्त को जब देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, तब हमारा एक पड़ोसी मुल्क फिर से कट्टरपंथियों का गुलाम हो रहा था। अफगानिस्तान अब पूरी तरह से तालिबान के कब्जे में है। अफगान लोगों के लिए ये भारी संकट की घड़ी है। उनके दुख का अंदाजा नहीं है। पड़ोस में आई इस विपदा की आंच से भारत भी अछूता नहीं कहा जा सकता है। पिछले 20 साल के दौरान भारत ने अरबों रुपए के संसाधन और ऊर्जा अफगानिस्तान को बेहतर बनाने में लगाए हैं। हमारी चिंता का विषय यह है कि अब इनका क्या होगा? पाकिस्तानी प्रभाव वाले तालिबान के रहते अफगानिस्तान में हमारी भूमिका क्या होगी? मुल्ला बरादर के अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने का साफ मतलब है कि पाकिस्तान का आदमी अफगानिस्तान की कमान संभाल रहा है। क्या होगा हमारे अरबों रुपये के निवेश का? इस डर से हमें दूसरी बार गुजरना पड़ रहा है, क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान दूसरी बार हुकूमत में आया है। हालांकि तालिबान आज बेशक यह कह रहा है कि वह भारत से अच्छे रिश्ते रखेगा। भारत-पाक के झमेले से दूर रहेगा, लेकिन अतीत की उसकी हरकतें सोचने को विवश कर रही हैं।
90 के दशक में तालिबान और भारत के रिश्ते की बात करें, तो कंधार प्लेन हाईजैक मामला याद आता है। 24 दिसंबर, 1999 की बात है जब नेपाल के काठमांडू से इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी- 814 ने दिल्ली के लिए उड़ान भरी थी, लेकिन कुछ देर बाद ही जानकारी मिली कि आतंकियों ने प्लेन हाईजैक कर लिया। जिसके बाद प्लेन पहले अमृतसर में लैंड हुआ। वहां रिफ्यूलिंग हुई फिर लाहौर ले जाया गया, उसके बाद दुबई और आखिर में कंधार लाया गया। हाईजैकर्स के लिए कंधार सुरक्षित जगह थी क्योंकि उनको स्थानीय सरकार से सहयोग मिल रहा था।
प्लेन हाइजैक पर भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कहा था कि विमान तालिबान के कंट्रोल में आ गया है। उनके साथ न तो हमारा कोई आधिकारिक संवाद है और न ही हमने उन्हें मान्यता दी है। उस वक्त अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार थी। भारत की सरकार ने तालिबान को मान्यता नहीं दी थी। इसलिए तालिबान ने कंधार हाईजैक के वक्त भारत का सहयोग करने के बजाय हाईजैकर्स का साथ दिया। भारत को अपने नागरिकों के बदले तीन आतंकियों को छोड़ना पड़ा था। ये आतंकी थे मसूद अजहर, मुश्ताक जरगार और उमर शेख।
तब तालिबान की भारत से इतनी गहरी दुश्मनी थी कि वर्ष 1994 में भारत ने एक रेलवे प्रोजेक्ट बनाया था जो तुर्कमेनिस्तान के साराख से लेकर ईरान के ताजान तक अफगानिस्तान से होकर जाता था। इसके अलावा भारत अफगानिस्तान से होकर एक पाइपलाइन बनाने की भी तैयारी कर रहा था जो सेंट्रल एशिया को पर्शियन गल्फ से जोड़ती थी।
रूस और ईरान के साथ मिलकर भारत अफगानिस्तान में इंवेस्टमेंट बढ़ा रहा था। भारत के अफगानिस्तान में इस बढ़ते दखल से पाकिस्तान और अमेरिका में असहजता थी। कहा जाता है कि भारत के अफगानिस्तान में दखल को काउंटर करने के लिए ही आईएसआई ने तालिबान को खड़ा करना शुरू किया था। हालांकि वजह और भी गिनाई जा सकती हैं, लेकिन पाकिस्तान का तालिबान पर पूरा कंट्रोल था।
एक तरह से अफगानिस्तान में पाकिस्तान के प्राॅक्सी के तौर पर तालिबान खड़ा हो रहा था। पाकिस्तान और तालिबान के खिलाफ भारत का विकल्प था नाॅर्दन अलायंस। उत्तर अफगानिस्तान में ताजिक समुदाय का लड़ाका गुट। तालिबान को रोकने के लिए भारत ने नार्दन एलांयस ग्रुप को मदद करना शुरू किया।
अफगानिस्तान के उत्तरी हिस्से में नार्दन एलायंस तालिबान के लिए बड़ी मुसीबत बन गया था, लेकिन इससे भारत और तालिबान में दुश्मनी और बढ़ गई गई। 1996 में अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद तालिबान 5 साल हुकूमत में रहा। इस दौरान भारत ने तालिबान के साथ कोई रिश्ते नहीं रखे। स्थिति यहां तक आ गई कि उस वक्त भारत ने अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर दिया था। इसके बाद जब 11 सितंबर 2001 को अलकायदा ने अमेरिका में आतंकी हमले किए और इसके जवाब में अमेरिका ने अफगानिस्तान में हमला किया और तालिबान की सरकार हटा दी तो भारत ने फिर अफगानिस्तान का रुख किया।
अमेरिकी दखल के 6 हफ्ते बाद भारत ने नवंबर 2001 में अपने राजनयिकों को फिर से अफगानिस्तान भेजा। वहां से भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते का नया अध्याय शुरू हुआ। 2001 से 2021 तक यानी 20 सालों में भारत ने अफगानिस्तान में अरबों रुपये खर्च किए। 2002 के बाद से अब भारत ने अफगानिस्तान को 3 अरब डाॅलर की मदद दी है। जो भारतीय रुपयों के हिसाब से करीब 22 हजार 248 करोड़ रुपया होती है। इतना पैसा भारत ने दुनिया के किसी और मुल्क पर खर्च नहीं किया।
सामरिक महत्व के लिहाज से देखा जाए तो अफगानिस्तान भारत के लिए बहुत अहम रहा है। पाकिस्तान से बाॅर्डर लगता है, इसके अलावा अफगानिस्तान से भारत को सेंट्रल एशिया का एक्सेस मिलता है, तो अफगानिस्तान में मजबूत कदम होना हमारे लिए जरूरी है। अब तालिबान सत्ता में लौट आया है तो भारत का क्या होगा? क्या हमारा सालों का इंवेस्टमेंट डूब जाएगा? पिछली बार जब तालिबान की सरकार बनी थी तो पाकिस्तान यूएई और सऊदी अरब, इन तीन देशों ने ही तालिबान सरकार को मान्यता दी थी। इस बार चीन, रूस, पकिस्तान, जैसे देशों का तालिबान को समर्थन है। ये देश तालिबान के साथ बातचीत में बड़ी भूमिका में रहे हैं। यानी तालिबान सरकार को इस बार वैधता मिलने में दिक्कत नहीं होगी। लेजिटिमेसी वाला संकट नहीं है। इसलिए भारत के पास तालिबान से रिश्ते बनाने के अलावा विकल्प नहीं है। लेकिन दिक्कत यह है कि अफगानिस्तान को लेकर भारत की पूरी निर्भरता अमेरिका पर रही है। पिछले 6-7 साल में भारत ने अमेरिका से रिश्तों को ज्यादा तवज्जो दी है। रूस और अमेरिका के साथ बैलेंस बनाकर चलने के बजाय, भारत की विदेश नीति का झुकाव अमेरिका की तरफ हुआ है। इसका खामियाजा अफगानिस्तान में उठाना पड़ रहा है। भारत के पास विकल्प कम हो गए हैं। तालिबान से रिश्ते सुधारने में अब रूस से भी अपेक्षित मदद मिलने की संभावनाएं कम ही हैं।
अफगानिस्तान में भारत के लिए चुनौतियां कई तरह की हैं। काबुल में दूतावास के अलावा भारत के अफगानिस्तान में चार वाणिज्यिक दूतावास हुआ करते थे। भारत को ये बंद करने पड़े हैं। इंडियन स्टाफ को वहां से पहले ही निकाल लिया गया है। इसके अलावा अफगानिस्तान में नौकरी करने वाले भारतीयों को भी निकाला जा रहा है। रणनीतिक लिहाज से भी भारत के लिए अफगानिस्तान में अब मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
जानकारों के मुताबिक लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों की अफगानिस्तान में मौजूदगी रहती है। अब इन तंजीमों को अफगानिस्तान में और संसाधन मिल सकते हैं, जिनका इस्तेमाल कर वो कश्मीर में दिक्कतें बढ़ा सकते हैं। एक बड़ी अशंका यह जन्म ले रही है कि भारत के धुर- विरोधी पाकिस्तान, चीन और तालिबान का गठबंधन भविष्य में भारत के लिए दिक्कतें खड़ी कर सकता है। लिहाजा सामरिक दृष्टि से भी हमें नए सिरे से सोचने की जरूरत होगी।
हालांकि, विदेश नीति के कई जानकार तालिबान के साथ संवाद की वकालत कर चुके हैं। उनका मानना है कि कूटनीति में कोई स्थायी शत्रु नहीं होता। कुछ दिन पहले विदेश मंत्री एस. जयशंकर की तालिबान के प्रतिनिधि से मुलाकात की खबरें आई भी थीं। हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने इन खबरों का जोरदार तरीके से खंडन भी किया था। जो भी हो अफगानिस्तान के आज के हालात भारत के लिए काफी चुनौतीपूर्ण और चिंताजनक हो चुके हैं।
अफगानिस्तान में भारत के बड़े प्रोजेक्ट
भारत ने करीब 400 प्रोजेक्ट्स में अफगानिस्तान की मदद की है। अफगानिस्तान का संसद भवन बनवाया है। इसमें करीब 675 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने संसद भवन का उद्घाटन किया था। संसद भवन के अलावा एक और बड़ा प्रोजेक्ट है सलमा डैम। हेरात प्रांत में 42 मेगावाट का हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट भारत की सरकार बनवा रही है। इस प्रोजेक्ट पर अब तालिबान का कब्जा हो चुका है। एक और अहम प्रोजेक्ट है जारांज-डेलारम हाइवे। ये 218 किलोमीटर लंबा
हाईवे है। यह भारत के बाॅर्डर रोड आॅर्गेनाइजेशन ने बनाया है। इसे बनाने में 11 सौ 10 करोड़ रुपये की लागत आई है। इनके अलावा स्कूल, अस्पताल जैसे और भी कई प्रोजेक्ट्स में भारत ने अफगानिस्तान को मदद दी है।