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चुनावी बॉन्ड पर ‘सुप्रीम’ चाबुक

आगामी आम चुनाव और किसान आंदोलन के शोर के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाकर ऐसा चाबुक चलाया है जिसका असर आगामी आम चुनाव में देखने को मिल सकता है

देश में इन दिनों एक ओर जहां किसान आंदोलन का शोर है वहीं दूसरी तरफ इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। गत सप्ताह 15 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड को तत्काल प्रभाव से असंवैधानिक करार केंद्र की मोदी सरकार और अन्य राजनीतिक दलों को बड़ा झटका दिया है। इतना ही नहीं, कोर्ट ने पिछले पांच सालों के चंदे का हिसाब-किताब भी मांग लिया है। अब निर्वाचन आयोग को बताना होगा कि पिछले पांच साल में किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया है। कोर्ट ने कहा है कि वह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से पूरी जानकारी जुटाकर इसे अपनी वेबसाइट पर साझा करे। यहां तक कि यह चंदा पार्टियों को वापस करना होगा। शीर्ष अदालत के इस फैसले को उद्योग जगत के लिए भी बड़ा झटका माना जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम में गोपनीय का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19(1ए) के तहत सूचना का अधिकार कानून का उल्लंघन करता है। अदालत के फैसले के बाद आम जनता को भी पता होगा कि किसने, किस पार्टी को चंदा दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने आशंका जताई कि राजनीतिक दलों की फंर्डिंग करने वालों की पहचान गुप्त रहेगी तो इसमें रिश्वतखोरी का मामला बन सकता है। पीठ में शामिल जज जस्टिस गवई ने कहा कि पिछले दरवाजे से रिश्वत को कानूनी जामा पहनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि इस स्कीम को सत्ताधारी दल को फंर्डिंग के बदले में अनुचित लाभ लेने का जरिया बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। उन्होंने मतदाताओं के अधिकार की भी बात की।

गौरतलब है कि चार लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर चुनावी बॉन्ड स्कीम की वैधता को चुनौती दी थी। इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला दिया है जिसका दूरगामी असर हो सकता है, खासकर आगामी आम चुनाव में इसका असर पड़ सकता है।

क्या है पूरा मामला

इस योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। 12 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे 30 मई, 2019 तक एक लिफाफे में चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई। बाद में दिसंबर, 2019 में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए एक आवेदन दिया। इसमें मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया गया कि किस तरह चुनावी बॉन्ड योजना पर चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक की चिंताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार किया था। इस पर सुनवाई के दौरान तत्कालीन सीजेआई एस.ए. बोबडे़ ने कहा कि मामले की सुनवाई जनवरी 2020 में होगी। चुनाव आयोग की ओर से जवाब दाखिल करने के लिए सुनवाई को फिर से स्थगित कर दिया गया। इसके बाद से अभी तक इस मामले को कोई सुनवाई नहीं हुई थी।

क्यों विवादास्पद रहा इलेक्टोरल बॉन्ड

असल में राजनीतिक दलों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए एक बड़ी धनराशि चंदे के रूप में प्राप्त तो होती है लेकिन चंदा देने की इस प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के कारण इस पर बार-बार विवाद होते रहे हैं। कहा जा रहा है कि बीते पांच वर्षों में राजनीतिक पार्टियों को करीब 10 हजार करोड़ रुपए का चंदा मिला है। इसमें आधे से ज्यादा राशि इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए बीजेपी को दी गई है। ऐसे में ‘सूचना का अधिकार’ होते हुए भी इसका गुप्त रखा जाना कई सवालों को जन्म देता था, जैसे इतना चंदा किसके द्वारा और क्यों दिया जा रहा है? या जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे ही सबसे ज्यादा चंदा क्यों मिलता है? ऐसे ही कई सवाल थे, जिनके जवाब के लिए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी जिसके बाद इस मुद्दे ने काफी तूल पकड़ा और सर्वोच्च न्यायालय की पांच पीठ वाली बेंच ने 3 महीने इस पर स्टडी करने के बाद इसे प्रतिबंध करने का फैसला सुनाया है।

इलेक्ट्रोल बॉन्ड से पहले पार्टियों को कई तरीकों से चंदा दिया जाता था जिसमें आम जनता, कंपनियां और उद्योगपति द्वारा चेक पार्टी के अकाउंट में जमा करा दिया जाता था। इस प्रकार के चंदे को किसने दिया। इससे संबंधित जानकारी राजनीतिक दल को सार्वजनिक करनी पड़ती थी जिससे किसी प्रकार की गोपनीयता नहीं होती थी लेकिन, वर्ष 2018 में इलेक्ट्रोल बॉन्ड लाया गया तो इसके द्वारा दिए गए चंदे में दानदाता का नाम सार्वजनिक नहीं किए जाने का प्रावधान था। इसलिए यह तभी से विवादास्पद रहा।

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड

वर्ष 2017 में पहली बार भारत सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम की घोषणा की थी। उन्होंने बताया था कि ‘इस स्कीम को लाने का मकसद, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को सही ढंग से रेग्युलेट करना है। इससे पहले जिस प्रकार से चंदा दिया जाता था उसमें काले धन के प्रयोग की आशंका थी। चंदा पारदर्शित तरीके से पॉलिटिकल पार्टियों के पास पहुंचे, इसके लिए मनी बिल के तहत यह योजना लाई गई है।’ इसके बाद केंद्र सरकार ने 29 जनवरी, 2018 को इलेक्ट्रोल बॉन्ड योजना को लागू कर दिया। लेकिन यह मुद्दा तभी से विवादित रहा। इस योजना के तहत सरकार के द्वारा एक तरह का
फाइनेंशियल बॉन्ड जारी किया जाता है। जिसे आप गिफ्ट वाउचर या वचन पत्र के रूप में समझ सकते हैं। इन बॉन्ड्स को व्यक्ति या कंपनी के द्वारा भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदा जाता और बैंक से खरीदे गए इन बॉन्ड्स को दान देने वाले के द्वारा राजनीतिक दल को सौंप दिया जाता। इस को खरीदने के लिए आधार कार्ड और केवाईसी करने की जरूरत होती है लेकिन इस पर दाता को अपना नाम जाहिर करने की जरूरत नहीं होती। यानी कि चंदा देने वाला अपना नाम उस बॉन्ड पर न लिखकर अपनी गोपनीयता को बनाए रख सकता है।

उद्देश्य से हटी योजना
इस योजना को लाने के पीछे सबसे बड़ी वजह थी पॉलिटिकल पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता स्थापित करना, लेकिन इस योजना में जिस तरह के प्रावधान किए गए उनसे हमेशा अपारदर्शिता बनी रही। इतना ही नहीं इस स्कीम में पॉलिटिकल पार्टियां दिए गए चंदे को कहां खर्च करेंगी, इसका ब्योरा देने के लिए बाध्य किया गया। काले धन का प्रयोग बंद होगा, इसके लिए नकद लेनदेन को हतोत्साहित किया गया। साथ ही, दानदाता के नाम को गुमनाम रखकर उसे संरक्षण देने का काम किया गया ताकि उसे किसी तरह के हैरेसमेंट का सामना ना करना पड़े। इन सभी प्रावधानों में जो भी सकारात्मक उपाए दिए गए थे सब समय के साथ धुंधले होते गए और कालाधन खत्म करने की इस योजना ने उसे बढ़ाने का काम किया।

सत्तारूढ़ पार्टी को होता था ज्यादा फायदा
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉन्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपए मिले। इसमें 58 प्रतिशत यानी लगभग 5272 करोड़ रुपए अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी में आए थे। इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्ट्रोल बॉन्ड से करीब 952 करोड़ रुपए मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपए मिले। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए मिलने वाले चंदे में 743 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रीय पार्टियों को मिलने वाला कॉरपारेट चंदा केवल 48 फीसदी बढ़ा। एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज्यादा 3,439 करोड़ रुपए का चंदा इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए आया। इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए करीब 2,664 करोड़ रुपए का चंदा मिला।

कब-कब दायर की गई याचिकाएं
पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है। यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी। इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में पहली याचिका वर्ष 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और गैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी। दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने दायर की थी। इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दान और राजनीतिक दलों के गुमनाम फंर्डिंग पर भी आपत्तियां उठाई हैं जो कंपनियों को अपने वार्षिक लाभ और हानि खातों में राजनीतिक योगदान का विवरण देने से छूट देते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ी है और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने को बढ़ावा भी मिला है।

चुनाव आयोग और आरबीआई
वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को खत्म कर देंगे और इनका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा। कई प्रमुख कानूनों में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मकसद से बनाया जाएगा। एडीआर की याचिका के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लॉर्न्डिं्रग, और सीमा-पार जालसाजी को बढ़ाने के लिए हो सकता है। इलेक्टोरल बॉन्ड को एक ‘अपारदर्शी वित्तीय उपकरण’ कहते हुए आरबीआई ने कहा था कि चूंकि ये बॉन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फायदा मनी-लॉन्ड्रिग के लिए किया जा सकता है।

 

फैसले के मुख्य बिंदु
1. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया राजनीतिक दलों का ब्योरा दे, जिन्होंने 2019 से अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा हासिल किया है।
2. राजनीतिक दलों की ओर से कैश किए गए हर इलेक्टोरल बॉन्ड की डिटेल दे, कैश करने की तारीख का भी ब्योरा दे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया।
3. अगले महीने 6 मार्च 2024 तक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पूरी जानकारी दे और इलेक्शन कमीशन 13 मार्च तक अपनी ऑफिशियल
वेबसाइट पर इसे पब्लिश करे।
4. राजनीतिक चंदे की गोपनीयता के पीछे ब्लैक मनी पर नकेल कसने का तर्क सही नहीं। यह सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
5. कंपनी एक्ट में संशोधन मनमाना और असंवैधानिक कदम है। इसके जरिए कंपनियों की ओर से राजनीतिक दलों को असीमित फंर्डिंग का रास्ता खुला।

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