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सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसले

  •   वृंदा यादव

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया और अडानी हिंडनबर्ग मामले में जो सुप्रीम फैसले सुनाए हैं उसके दूरगामी और देशहित के परिणाम सामने आएंगे। निश्चित तौर से हिंडनबर्ग का मामला सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ा है

मार्च की शुरुआत एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में से दो राज्यों में मिली जीत को बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और अडानी हिंडनबर्ग मामलें में जो सुप्रीम फैसले सुनाए हैं, उन्हें केंद्र की भाजपा सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। जानकारों का मानना है कि इन फैसलों से दूरगामी और देशहित के परिणाम सामने आएंगे। निश्चित तौर से हिंडनबर्ग का मामला सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। भारत की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था चीन जैसे राष्ट्रो के लिए किरकिरी, ईर्ष्या का पर्याय साबित हो रही थी। ऐसे में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर एकाएक विश्वास कर लेना वाजिब नहीं था। एक रिपोर्ट के आधार पर देश -विदेश तक लगभग हर क्षेत्र में भारी-भरकम निवेश कर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने वाली अडानी फर्म के कितने व्यापारिक दुश्मन हैं। इसकी गिनती भी नहीं होगी। ऐसे में प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अगर साजिशन यह रिपोर्ट तैयार कर अडानी और भारतीय अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने की कोशिश की गई हो तो इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस तरह के तमाम पहलुओं और विपक्ष की याचिकाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय लिए हैं। वे वाकई सुप्रीम हैं। कोर्ट ने चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर जिस तरह से समिति गठित कर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का निर्णय लिया है उससे चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में पारदर्शिता रहेगी। भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसके लोकतंत्र की पूरे विश्व में चर्चा होती है। ऐसे देश के चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में अब तक पैदा होने वाले संशय को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अहम निर्णय लिया है।

जानकार मानते हैं कि निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर जो ऐतिहासिक फैसला दिया, वह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने वाला है। इस फैसले ने पिछले सात दशकों से चले आ रहे उस शून्य को भरा है, जो संसद के समय पर उपयुक्त पहल न करने की वजह से बना हुआ था। जैसा कि फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा, संविधान निर्माताओं को उम्मीद थी कि देश की संसद कानून बनाकर मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की एक वाजिब प्रक्रिया निर्धारित कर देगी। मगर सत्तारूढ़ पार्टियां अपने हाथ से यह ताकत निकलने देना नहीं चाहती थीं और उनके प्रभाव में संसद अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने से परहेज करती रही। यही वजह है कि वर्ष 1990 में एक बार जब राज्यसभा में इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया भी गया तो बात नहीं बनी। चार साल तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद यह विधेयक चुपचाप वापस ले लिया गया। इसके बाद 2015 में लॉ कमीशन ने भी मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली एक समिति बनाने की सिफारिश की थी। लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त की सरकार द्वारा नियुक्ति की अब तक प्रचलित प्रक्रिया में साफ तौर पर हितों का टकराव था। चुनाव आयोग देश में मतदाता सूची तैयार कराने से लेकर चुनाव संचालित कराने तक की जिम्मेदारी निभाता है, जिससे सत्तारूढ़ पार्टी का हित-अहित भी जुड़ा होता है। इसलिए कायदे से सरकार यानी कार्यपालिका को मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से दूरी बनाए रखनी चाहिए। यह न केवल निष्पक्ष चुनाव कराने, बल्कि खुद चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में लॉ कमीशन की सिफारिशों के अनुरूप ही मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया निर्धारित की है। कोर्ट ने संदेह की कोई गुंजाइश न रखते हुए यह भी कहा कि अगर नेता प्रतिपक्ष उपलब्ध न हों तो सदन में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को इस समिति में शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी ध्यान रखा कि चुनाव आयोग को पैसों के लिए सरकार का मोहताज न होना पड़े। आयोग के लिए बजट की अलग और स्वतंत्र व्यवस्था करना निश्चित रूप से सरकार पर उसकी निर्भरता कम करेगा। हालांकि व्यवहार में इन सबका कैसा और कितना असर होता है, यह तभी पता चलेगा जब यह प्रक्रिया लागू होगी।

अपने दूसरे फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट से उत्पन्न मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया। सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति एएम सप्रे इस समिति के अध्यक्ष होंगे। सुप्रीम कोर्ट निवेशकों की सुरक्षा के लिए नियामक तंत्र से संबंधित समिति के गठन पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समिति स्थिति का समग्र आकलन करेगी और निवेशकों को जागरूक करने के उपाय सुझाएगी। एक्सपर्ट कमेटी में सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एएम सप्रे के साथ ही ओपी भट्ट केवी कामथ नंदन नीलेकणि जस्टिस देवधर और सोमशेखर सुंदरेसन शामिल हैं। सेबी और जांच एजेंसियां विशेषज्ञ पैनल का समर्थन करेंगी। कमेटी शेयर बाजार में आई गिरावट के कारणों की जांच करेगी और भविष्य के लिए सुझाव देगी। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने 17 फरवरी को अपने आदेश को सुरक्षित रखते हुए अडानी हिंडनबर्ग मामले में केंद्र द्वारा सीलबंद कवर सुझाव को मानने से इनकार कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ ने सुनावई ने दौरान कहा था कि वह सीलबंद कवर के सुझाव को स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि वे पूरी पारदशि्र्ाता चाहते हैं। दरअसल, अडानी समूह की कंपनियों के शेयर की कीमतों में भारी गिरावट आई थी। 24 जनवरी की हिंडनबर्ग रिपोर्ट में समूह द्वारा स्टॉक में हेर-फेर और धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया। हालांकि अडानी समूह ने 29 जनवरी को 413 पन्नों की एक लंबी रिपोर्ट में कहा कि हिंडनबर्ग रिसर्च की हालिया रिपोर्ट किसी विशिष्ट कंपनी पर हमला नहीं, बल्कि भारत की विकास गाथा पर हमला है।
गौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सुधार की मांग उठ रही है कि मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्तों की चुनाव प्रक्रिया में सुधार किया जाए। जिस पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि कार्यपालिका में हस्तक्षेप से चुनाव आयोग के कामकाज को अलग करने की जरूरत है। साथ ही चुनाव आयुक्तों को भी मुख्य चुनाव आयुक्त के समान सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। इस पर कोर्ट ने फैसला लिया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों के लिए एक कमेटी बनाने का गठन किया जाएगा जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे। यह कमेटी चुनाव आयुक्त के नाम की सिफारिश राष्ट्रपति से करेगी। इसके बाद राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाएगा। यह प्रक्रिया तब तक लागू रहेगी, जब तक संसद में आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कोई कानून नहीं बना देती।

संविधान में अनुच्छेद 324(दो) के तहत पहले से ही व्यवस्था है कि संसद जब तक चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया को लेकर कोई कानून नहीं बनाता, तब तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे। अब चूंकि सात दशकों में भी कानून नहीं बना तो सुप्रीम कोर्ट ने यह रास्ता निकाला है कि संसद अगर इस संबंध में कानून नहीं बनाती है तो कम से कम उन पर एक दबाव कायम रहेगा।

क्यों उठी बदलाव की मांग
चुनाव आयोग के कामकाज में पारदशि्र्ाता पर सवाल खड़े होते रहे हैं। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इससे पहले साल 2015 में चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि इनकी नियुक्तियां कार्यपालिका की पसंद के आधार पर की जा रही हैं जो सही नहीं है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सीबीआई निदेशक एवं लोकपाल के चुनावों में विपक्ष के नेताओं और न्यायपालिका के पास अपनी बात रखने का अवसर होता है, लेकिन चुनाव आयुक्त के चुनावों में केंद्र एकतरफा रूप से चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करता है। इसलिए चुनाव भी कॉलेजियम व्यवस्था से किए जाने चाहिए। ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ द्वारा भी याचिका दायर की गई थी। जिसका प्रतिनिधित्व दो अधिवक्ताओं प्रशांत भूषण और चेरिल डिसूजा द्वारा किया गया था।

चुनाव आयुक्तों को लेकर विवाद

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की मुख्य भूमिका होने के कारण अधिकतर चुनावों में निष्पक्षता के सवाल खड़े होते हैं। विपक्षी पार्टियों द्वारा दावा किया जाता है कि चुनाव में कुछ गड़बड़ी हुई है। यही कारण है कि पिछले वर्ष अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किए जाने से विवाद खड़ा हो गया है। जब वर्ष 1985 बैच के आईएएस ऑफिसर अरुण गोयल जिनको 18 नवंबर 2021 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी गई थी। उसके अगले ही दिन 19 नवंबर 2021 को राष्ट्रपति ने उन्हें चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति कर दिया। 21 नवंबर को गोयल ने अपना पदभार संभाला। जिसके बाद विरोध में सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया में सुनवाई शुरू होने के कारण अरुण गोयल की नियुक्ति जल्दबाजी में की गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि बतौर चुनाव आयुक्त गोयल की नियुक्ति की ओरीजिनल फाइल पेश की जाए। क्योंकि उनकी नियुक्ति सुनवाई शुरू होने के बाद ही की गई है तो हम अरुण गोयल की चुनाव प्रक्रिया देखना चाहते हैं। जिस पर केंद्र ने जवाब दिया था कि अगर अदालत को फाइलें दिखाने की जरूरत होगी तो हम दिखाएंगे। अगर कुछ गलत हुआ होगा तो अदालत के सामने इसे पेश करेंगे। लेकिन इस मामले की फाइल को केवल इस बात के आधार पर नहीं देखना चाहिए कि किसी ने सवाल उठाए हैं। चुनाव आयुक्त का यह पद मई 2022 से खाली था, जिसे नवंबर में जा कर भरा गया है। इसके पहले भी कोरोना काल में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुए विधानसभा चुनावों में कोरोना प्रतिबंधों के बावजूद चुनावी रैलियां निकाली गईं जिसे लेकर भी विवाद खड़े हुए थे।

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