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सुप्रीम कोर्ट ने लगाया ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ पर ‘बैन’

 

देश में इन दिनों एक ओर जहां किसान आंदोलन का शोर है वहीं दूसरी तरफ इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने इलेक्टोरल बॉन्ड की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई पूरी होने के 3 महीने बाद फैसला सुना दिया है।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से अधिक समय से लंबित था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर देशभर की निगाहें इसलिए भी टिकी थीं, क्योंकि देश में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। जिसपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बड़ा असर देखने को मिल सकता है।

 

चीफ जस्टिस ने क्या कहा

15 फरवरी 2024, को सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि ‘इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। वोटर को पार्टियों की फंडिंग के बारे में जानने का हक प्राप्त है। पार्टियों की फंडिंग को गुप्त रखना ‘असंवैधानिक’ है, इसलिए इसपर ‘बैन’ लगाया जाता है। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों की लिस्ट को भी सार्वजनिक करने को कहा है।’

सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर पर रोक लगाते हुए कहा कि ‘चुनावी बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक को निर्देश दिए हैं कि वर्ष 2019 से लेकर अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सारी जानकारी तीन हफ़्ते के अंदर चुनाव आयोग को सौंपी जाये। जिसके बाद चुनाव आयोग को यह सारी जानकारी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर पब्लिश करनी होगी। इलेक्टोरल बॉन्ड को जारी करने वाला बैंक तुरंत बॉन्ड जारी करना बंद कर दें।’ चीफ जस्टिस ‘डीवाई चंद्रचूड़’ ने कहा कि नागरिकों को सरकार को जिम्मेदार ठहराने का अधिकार है। सूचना के अधिकार का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह केवल राज्य के मामलों तक ही सीमित नहीं है। गुमनाम चुनावी बांड ‘सूचना के अधिकार’ और अनुच्छेद 19(1)(A) का उल्लंघन करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(A) सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यह स्वतंत्रता मौखिक, लिखित, इलेक्ट्रॉनिक, प्रसारण, प्रेस या अन्य किसी भी रूप में हो सकती है।’

क्यों विवादास्पद रहा इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा

असल में राजनीतिक दलों को इलेक्ट्रोल बॉन्ड के द्वारा एक बड़ी धनराशि चंदे के रूप में प्राप्त तो होती है लेकिन चंदा देने की इस प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के कारण इस पर बार-बार विवाद होते रहे हैं। देश के नागरिक को ‘सूचना का अधिकार’ होते हुए भी इसका गुप्त रखा जाना बहुत से सवालों को जन्म देता था जैसे; इतना चंदा किसके द्वारा और क्यों दिया जा रहा है? या जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे ही सबसे ज़्यादा चंदा क्यों मिलता है? ऐसे ही कई सवाल थे, जिनके जवाब के लिए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं।

इलेक्ट्रोल बॉन्ड से पहले पार्टियों को कई तरीकों से चंदा दिया जाता था। जिसमें आम जनता, कंपनियां और उद्योगपति द्वारा चेक पार्टी के अकाउंट में जमा करा दिया जाता था। इस प्रकार के चंदे को किसने दिया यह संबंधित जानकारी राजनीतिक दल को सार्वजनिक पड़ती थी जिससे किसी प्रकार की गोपनीयता नहीं होती थी लेकिन, वर्ष 2018 में इलेक्ट्रोल बॉन्ड लाया गया तो इसके द्वारा दिए गए चंदे में दानदाता का नाम सार्वजनिक नहीं किए जाने का प्रावधान था। इसलिए यह तभी से विवादास्पद रहा।

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड

वर्ष 2017 में पहली बार भारत सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्ट्रोल बॉन्ड स्कीम की घोषणा की थी। उन्होंने बताया था कि ‘इस स्कीम को लाने का मकसद, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को सही ढंग से रेग्युलेट करना है। इससे पहले जिस प्रकार से चंदा दिया जाता था उसमें काले धन के प्रयोग की आशंका थी। चंदा पारदर्शी तरीके से पॉलिटिकल पार्टियों के पास पहुंचे, इसके लिए मनी बिल के तहत यह योजना लाई गई है।’ इसके बाद केंद्र सरकार ने 29 जनवरी, 2018 को इलेक्ट्रोल बॉन्ड योजना को लागू कर दिया। लेकिन यह मुद्दा तभी से विवादित रहा। इस योजना के तहत सरकार के द्वारा एक तरह का फाइनेंशियल बॉन्ड जारी किया जाता है। जिसे आप गिफ्ट वाउचर या वचन पत्र के रूप में समझ सकते हैं। इन बॉन्ड्स को व्यक्ति या कंपनी के द्वारा भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदा जाता और बैंक से खरीदे गए इन बॉन्ड्स को दान देने वाले के द्वारा राजनीतिक दल को सौंप दिया जाता। इस को खरीदने के लिए आधार कार्ड और केवाईसी करने की जरूरत होती है लेकिन इस पर दाता को अपना नाम जाहिर करने की जरूरत नहीं होती। यानी कि चंदा देने वाला अपना नाम उस बांड पर न लिखकर अपनी गोपनीयता को बनाए रख सकता है।

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