पहले से स्थापित अवधरणाओं की तोड़-पफोड़ के लिए विख्यात सुधीश पचौरी हिंदी साहित्य के एक दबंग आलोचक हैं। उनके सोचने-समझने का दायरा बड़ा है। आलोचना उनके लिए समय और समाज को देखने का जरिया हैं। मठों को तोड़ने से भी उनको गुरेज नहीं है। हिंदी साहित्य में उत्तर आधुनिकता को लाने और लोकप्रिय साहित्य के समर्थन में नई थ्योरी गढ़ने का श्रेय उनको जाता हैं। इनसे बातचीत करना दुनिया के तमाम विचारों और ढेर सारी पुस्तकों के सिद्दांतो किस्सों से बावस्ता होना है। उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ हैं। हमारे टॉक-ऑन टेबल कार्यक्रम में उन्होंने खुलकर बोला। उनके बोलने में विचारधरा, समय समाज, वामपंथ-दक्षिणपंथ से लेकर आलोचना तकनीक तक शामिल रही। इस बातचीत में, अपूर्व जोशी, प्रेम भारद्वाज और गुंजन कुमार साथ थे…
अपूर्व जोशी : हिंदी के आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रो. वी.सी. सुध्ीश पचौरी जी आपका स्वागत हैं। इस टॉक-ऑन टेबल आयोजन में पिछले बार हमने हिंदी साहित्य के शीर्ष अलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी को आमंत्रित किया था। उस बातचीत के प्रकाशित होने के बाद कापफी बवन्डर मच गया। मेरा प्रश्न यह हैं कि मतां की भिन्नता से ज्ञानी जन इतने छिछले स्तर पर क्यों उतर आते हैं। क्या इसलिए कि एक विचारधरा विशेष का विरोध् हो गया था, हिंदी के एक शिखर पुरुष उसमें घिरते नजर आये थे।
सुधीश पचौरी : बहुत सारी चीजों को छोड़ भी दें तो इन दिनों एक खास किस्म का टें्ड है हमारे बीच कि अगर इनमें किसी चीज को अभी हमने नहीं टोका या रोका तो प्रलय हो जाएगी। इसके पीछे एक डर है… पिछले 4 साल या 40 साल से नहीं कई सालों में डर एक ऑडियोलॉजी की तरह, एक सिस्मेटिक वैल्यू की तरह बैठ गया है हमारे बीच में। बु(जीवी तो वैसे भी डरपोक होते हैं कि मेरी बात पीट जाएगी तो क्या होगा… एक जमाना था कि जब कोई किसी की बात काटता था तो अध्ययन कर के काटता था, तर्क सम्मत ढंग से काटता था। बहुत मेहनत से काटता था। लेकिन पिछले दिनों एक जो वातावरण बना है उसमें इंस्टेंट मान लिया गया है और इसकी वजह सिपर्फ राजनीतिक नहीं, तकनीकी है- सोशल मीडिया का टोटल करैक्टर, कुल मिलाकर के दूसरे को मार कर के शेर बनने का है-मतलब दूसरे को नीचा दिखाकर ही मैं ऊंचा हो सकता हूं… पहले एक जमाना था जब किसी लकीर को मिटाने के बजाय उसके बरक्स एक बड़ी लकीर खींच दी जाती थी, उसे काटने या मिटाने का मामला नहीं
था…
अपूर्व जोशी : अब लकीर मिटाने का समय आ गया है।
सुधीश पचौरी: मामला लकीर मिटाने तक ही सीमित नहीं है। उसके आगे तक की सोच यह है कि लकीर खींचने वाले को ही मिटा दो।
अपूर्व जोशी : यह तो बड़ा भयावह है।
सुधीश पचौरी: एक प्रकार की हिंसा आ गई है बौ(क विमर्श में।
प्रेम भारद्वाज : जल्दी-से-जल्दी निपटाने का मामला है।
सुधीश पचौरी : यह जो मोबाइल, वाट्सअप, पफेसबुक, ट्वीटर आदि जो सोशल साइट या तकनीक है इनका समग्र चरित्रा दूसरे को इंसल्ट करने का है, मेरे एक मित्रा बताते हैं कि उनकी किसी सज्जनता या ज्ञान वाली पोस्ट पर कोई लाइक कमेंट नहीं होते मगर किसी को पीट देने वाले पोस्ट पर इनकी बौछार शुरू हो जाती है- यहां बौ(क विमर्श की जगह कुश्ती है- डब्ल्यू डब्ल्यू एपफ है। इन सब से ज्ञान का क्षरण हो रहा है। एक हडबड़ी है। अभी तुरंत इसी वक्त मैं जीत लूं, बाद में पता नहीं क्या होगा… डर का अहसास हर वक्त, चौबीस घंटे हमारे दिमाग में है कि मैं हार रहा हूं… इसके और भी कारण हैं। दरअसल अब तक हमारी चेतना का जगत सामाजिक था, आस-पास का माहौल या, उसे पता होता था कि जो वह बात कर रहा है वह लोकलाइज है, हम एक वार्तालाप में, संवाद में थे, इस नई तकनीक ने क्या किया है कि हमें अचानक एक ऐसा जगत दे दिया है जो अनजान है। पूरा साठ-सत्तर करोड़ लोगों का जगत है। हम सोचते हैं कि उसमें सिपर्फ हमीं हैं। इससे एक टेडेंसी आई- आई, वी
माईसेल्पफ। पिफर आदमी सिकुड़कर सिपर्फ माई सेल्पफ में रह जाता है। खुद को शेर समझ दूसरे को मार रहा है। यह जो असहनीयता है वह सिपर्फ सिस्टम में नहीं है- स्टेट जब भी होगा वह दमनकारी होगा, वह तभी तक आपको बच्चों की तरह खेलने की अनुमति देगा जब तक कि आप उसको परेशान न करें।
अपूर्व जोशी : चाहे वह किसी की भी सत्ता हो किसी भी विचारधरा की हो।
सुधीश पचौरी : कुछ स्टेट ऐसी होती है जो खुद ही डरी होती है जैसा कि वर्तमान में। लेकिन बौ(कों में डर नहीं होना चाहिए। समस्याओं को समझ कर रास्ता निकालना चाहिए। जो तानाशाही सिस्टम में है वहीं हमारे भीतर भी उतर गई है। हम उसके लगभग हिस्सेदार बन गए है। अब मेरे भीतर इतना ध्र्य नहीं है कि रियेक्ट करने से पहले कुछ चिंतन-मंथन कर लूं। यह प्रवृति बढ़ रही है कि आज कोई मेरी बात करें तो आज ही उसे निपटा दूं। अगर मैं छह महीने बाद उसे
निपटाऊं तो क्या बुरा है। पुराने समय में एक बिंदु पर शास्त्रार्थ करने पर महीनों लगते थे। आज भी पश्चिम में कोई एक थिसीस आती है तो उसे काटने के लिए पचास किताबें आती हैं, लेकिन उसके पीछे मेहनत होती है। यहां अब हम ओपीनियन वाली ऐज में आ गए हैं, विचार वाले ऐज में नहीं हैं, रचना वाले ऐज में भी नहीं हैं। ओंपनियन बनने की एक जटिल प्रक्रिया होती है। सब कुछ जानने-समझने के बाद ओपनियन बनती है। लेकिन अब मैं रिएक्ट करता हूं। किसी ने कुछ कहा तो मैं उस पर रिएक्ट करता हूं… और एक दूसरी चीज हो रही कि एक ही सेकेंड में दुनिया को खाना और छा जाना चाहता हूं। यह जो मेरी जेब में मोबाइल है, यह मुझे ऐसा करने-सोचने का वहम देता है कि मैं दुनिया का बादशाह हूं जबकि यह पूरी दुनिया के पास है। यह मोबाइल हमें आक्रामक भी बनाता है कि कैसे मैं खुद को सबसे अलग और अनूठा दिखाऊं-आक्रामकता बहुत आसान चीज है- दरअसल जब आपके भीतर आत्मविश्वास नहीं होता तो यह आपको हिंसक बनाता है- यही स्टेट में है, यही वामपंथ में है, यही दक्षिण पंथ में है, यही बु(जीवियों में है- गांध्ी अकेला आदमी था जो डरता नहीं था, इसलिए हिंसा नहीं थी उसमें। वह खुद ही कहता है जो हिंसक होता है, वह डरा हुआ होता है। मुक्तिबोध् की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह आत्म समीक्षा की बातें करते हैं। इस समय हम खुद आत्म समीक्षा करना भूल गए हैं। इससे न दोष खत्म हो रहा है, न दोषी। हम में हर आदमी भीतर एक डिक्टेटर है। हम किसी को मापफ नहीं करना चाहते। विश्वनाथ त्रिपाठी जी भोले आदमी हैं, वो उस वक्त के बने हुए हैं जब इतनी मारा-मारी नहीं थी, पफुर्सत के लोग थे-नामवर सिंह भी पफुरसतिया आदमी हैं- यह दौर पफुर्सत का नहीं, हडबड़ी का है। पफुरसत वाला आदमी हड़बड़ी में पफंस गया। हमारे यहां पफेमनिज्म उपर से उधार लिया गया है- हिंदी में जो पफेमनिज्म हैं उसमें दो-चार शब्द भर है, चिंतन नहीं है, इसके भीतर कामगार महिलाओं की मुक्ति की चिंता नहीं हैं, उसके भीतर मुसलमान महिलाओं के तीन तलाक का जो अन्याय हो रहा है, वह कहीं नहीं है। इस पफेमनिज्म का लाभ इतना भर है कि स्त्रियों ने बोलना शुरू कर दिया है। कुछ अच्छी कृतियां, आत्मकथाएं सामने आई हैं। संवाद जरूरी है। स्पेस जरूरी है। न तुम सौ प्रतिशत सही हो सकते हो, न हम। सच कुछ और है जो ध्ीरे-ध्ीरे बनेगा डिस्कोर्स हमेशा पॉवर का होता है। पॉवर हमेशा अनुशासित करती है। इस पफेर में त्रिपाठी जी पड़ गए। उनको मालूम भी नहीं कि यह क्या चक्कर है। वे बुर्जुग-वरिष्ठ हैं। उन्होंने जो बोला उससे मैं सहमत नहीं हूं। कोई सहमत नहीं होगा। लेकिन उन्होंने जो बोला उससे कहीं ज्यादा भयानक बातें समाज में हो रही हैं। लेकिन इस आधर पर जो उनके भीतर के अच्छे तत्व हैं उनको खारिज नहीं करना चाहिए। यह गलत भी नहीं, उससे असहमति होगी, मगर उसे सह लेना चाहिए। हमें त्रिपाठी जी की बातों की आलोचना भी करनी चाहिए तो इस रूप में कि यह आलोचना कोई अंतिम आलोचना नहीं है। त्रिपाठी जी जैसे कथन कहने वाले हजारों होंगे, क्या हमने त्रिपाठी जी को कंट्रोल कर लिया तो सबको कंट्रोल कर लिया। इस पर थोड़ा विचार करने की जगह होनी चाहिए।
हमारे भीतर भाषा की भी कमी हो गई है, हम हर चीज को हथौड़ा से मारते हैं। जेएनयू में चार लोगों ने कुछ कह दिया तो तुमने हथोड़े घूमा दिया। विरोध् के तरीके बदलने चाहिए। यह बौ(क विमर्श के लिए ठीक नहीं। पफासिज्म इसी अंध्ता से आता है। कहने का मतलब यह कि साहित्य के भीतर पहले जनतंत्रा बहाल करना होगा।
अपूर्व जोशी : आपने मेरे प्रश्न को वर्तमान संदर्भ में
सोशल मीडिया और तकनीक से जोड़कर व्याख्या की, उत्तर दिया। मलार्म आंद्रे कामू को लिखे पत्रा में चर्चा करते हैं- ‘आदमी होना बहुत कठिन है, लेकिन उससे भी कठिन है एक दूसरे से संवाद रखना, विभाजन और वैमन्यस्ता को बढ़ाना आसान है जिसे उस दौर में कामू झेल रहे थे।’ मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या जो बु(जीवी हैं चाहे वे किसी भी क्षेत्रा के हों, वह आदमी होने की कसौटी पर खरे उतरते नजर नहीं आते।
प्रेम भारद्वाज : यह एक किस्म के हिप्रोक्रेसी का मामला है, बौद्विकों में ज्यादा है।
सुधीश पचौरी : जब मैं अपने विचार को अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाऊंगा, वह मेरे जीवन से निकले न होंगे या मैं ऐसे विचारों को नहीं चुनूंगा जो मेरे जीवन के आस-पास के हों तब ऐसे विचारों को ग्रहण कर लूंगा जो तलवार की तरह उपलब्ध् हैं, बंदूक की तरह एवलेबल हैं तो यह सब
होगा। मुक्तिबोध ने एक उपन्यास ;कहानीद्ध ‘विपात्रा’ लिखा है कि मिडिल क्लास बहुत पढ़ा-लिखा है मगर वह अपने ज्ञान को बांटता नहीं है, इसलिए ब्रह्मराक्षस हो जाता है। यह एक मंटोपफर है। हम सब ब्रह्मराक्षस की तरह हैं। मुक्तिबोध् बताते हैं कि आलोचना का अवसान तब होता है जब वह आलोच्य का हिस्सा हो जाती हो, जब तुम उसके पेट में बैठ जाते हो। देखिए आप तो कामू, मलार्म की बात कर रहे हैं, उनके यहां डेमोक्रेसी है, जनतंत्रा हमारे यहां भी है मगर हमारा दिमाग जनतंत्रा में तानाशाही की जगह ढूंढ़ता है। मार्क्स का कहना था आप अपने आस-पास के माहौल को जाने बिना स्वयं को नहीं जान सकते। आज इसके उलट है, उससे नुकसान हुआ है। तकनीक कहती है, वह संवाद से भरी है। संवाद के मौके दे रही है। मगर वह संवाद नहीं। न्यू कैपिटल कहती है, मैं
डेमोक्रेसी की रक्षा कर रही हूं। मगर वहां भी ऐसा नहीं है। संवाद की एक जगह जिज्ञासा भी होती है। अब हमारे पास गूगल गुरु हैं। अब हमको किसी के साथ संवाद की दरकार नहीं। दिमाग में कुछ रखने की भी जरूरत नहीं है। वर्चुअल स्पेस से लौटकर जब तक हम अपने ऐंद्रिक जगत में नहीं आएंगे संवाद की संभावना नहीं है। पहले के जो हमारे लेखक थे वे अनुभव के धनी थे। आज के जो रचनाकार हैं वे अनुभवहीन हैं। वे सि(ांत पढ़कर, सुनकर कहानियां गढ़ते हैं। कविता रच लेते हैं। रचना आपको भी मारती और घायल करती है। ज्ञान की मार को तलवार की मार बताया गया है। वह कष्ट देता है।
प्रेम भारद्वाज : पूरी दुनिया में इन दिनों जो एक घोषित-अघोषित मुहिम चल पड़ी है स्मृति को मिटाने की, कहीं-न-कहीं यह लगता नहीं कि इसमें तकनीक एक अहम भूमिका निभा रही है।
सुधीश पचौरी : आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। स्मृति अगर मिट गई तो इतिहास आपका दूर चला जाएगा, अभिव्यक्ति और ठहराव दूर चला जाएगा। जिनको कुछ भी याद नहीं रहता, उनको इलाज की जरूरत होती है। मैं तकनीक विरोध्ी नहीं हूं, उसका ट्टणी हूं, मगर उसका गुलाम हो जाना ठीक नहीं।
प्रेम भारद्वाज : लेकिन तकनीक को विकास से जोड़ा जा रहा है। यह तकनीक हमें अकेला कर रही है, हमारे समय के अंध्ेरे को बढ़ा रही है।
सुधीश पचौरी : इंटरनेट द्वितीय विश्वयु( के दौर में आया कि अगर यु( के दौरान हमारे संपर्क बने रहे, उस समय यह जरूरत थी। बाद में इसे बाजार के हवाले कर दिया गया। आपके ही श्रम से वंचित करने का जो काम तकनीक कर रही है, वह ठीक नहीं। मुफ्रतखोरी की आस में रहे तो मर जाएंगे। श्रम के साथ तकनीक का अनुपात क्या बने, इस पर विचार करना चाहिए। श्रम के अभाव में हमारे खेत, मिल उजड़ गए हैं। हमें बताया जा रहा है कि आप घर बैठे संसार के सारे सुख पा सकते हैं। लेकिन घर में बैठे-बैठे हम बीमार पड़े जा रहे हैं। ईश्वर ने संसार बनाया होगा, मगर जो संसार है, वह उसके कंट्रोल से बाहर है। आदमी को ईश्वर बना दिया गया है, हर तरपफ अहंकार ही अहंकार है, आप बच्चों के लुक्स देखिये, उनका आत्मविश्वास उनकी उम्र से ज्यादा है, उसमें दर्प ज्यादा है… यह चीज कहां से आई है। वह खुद को ऐसे जगत का बाशिंदा समझता है जो असल में है ही नहीं… वह वहां कुछ भी, किसी तरह की हिंसा करने के लिए स्वतंत्रा है।
अपूर्व जोशी : ईश्वर क्या है? कुलदीप नैÕयर ने अपनी आत्मकथा में किसी सुप्रीम पॉवर की बात की है जो सब कुछ नियंत्रित करता है।
सुधीश पचौरी : वह बड़ा है, महान है। वह इतना बड़ा है कि हम उस तक पहुंच नहीं सकते, हमें उससे कुछ नहीं मिलता। अगर हम ईमानदारी का जीवन जिए तो जरा-सी गलती पर दंड बड़ा देता है, पफायदा कुछ नहीं देता?
प्रेम भारद्वाज : परीक्षा बहुत लेता है।
सुधीश पचौरी : हां, परीक्षा भी बहुत लेता है। अगर वह है तो है। वह कभी हमारे रास्ते में भी नहीं टकराता है,
टकराता तो शिकायत करते। भगवान भी ताकतवरों का ही है। गरीब बेबस को लगता है कि वह उसका है, क्योंकि भगवान के अलावा उसके पास कोई सहारा नहीं है और अगर यह नहीं हो तो समाज बहुत भयानक हो जाए। कारण कि हमारे पास बदहाल-मायूस आदमी को भरोसा दिलाने का कोई अन्य तरीका नहीं है, वह भगवान ही अंतिम आर्थिरिटी है जो उनको भरोसा देता है। मेरे आस्तिक-नास्तिक होने से कोई पफर्क नहीं पड़ेगा। कोई सत्ता अगर है तो मुझे क्या? मुझे तो जूझना पड़ रहा है अपनी सत्ता-व्यवस्था से। मार्क्स ने कहा है कि र्ध्म आर्त ;दुखीद्ध मनुष्य की चीत्कार है।
वह एक परम विचार है। एक आइडिया है। हम तो मामूली लोग हैं। मेरे लिए भगवान तब होता है जब मुझे कष्ट होता है। जब मुझे कोई कष्ट नहीं होता तो भगवान कहीं नहीं होता। मेरे घर में कभी पूजा नहीं होती। मेरे पिताजी भी पूजा नहीं करते थे। वे खुद को ही भगवान मानते थे। मथुरा में रहते थे। शास्त्रार्थ करते थे। मेरी समस्या भगवान के होने, नहीं होने से नहीं है। चिंता यह है कि हमारे लिए वह कुछ करता नहीं। वह भी उन्हीं के पक्ष में चला जाता है जिनके पक्ष में दुनिया है। जिदंगी भर हमने कलम घिसाई की, उसने कभी हमारा कोई काम नहीं किया। असल में भगवान एक आस्था का नाम है और वह बल भी देता है, और तो कोई बल नहीं देता।
अपूर्व जोशी : कुलदीप नैयर उस सुप्रीम पॉवर को महसूस करने की बात करते हैं, क्या आपने भी कभी उस ईश्वरीय शक्ति को महसूसा है?
सुधीश पचौरी : नहीं, मैंने कभी इस तरह नहीं महसूस किया जब कोई दर्द होता है, उस दर्द को महसूस करता हूं, उस दर्द को जो ठीक कर दे वह मेरे लिए भगवान है।
प्रेम भारद्वाज : अब लौटते हैं आपके संघर्ष के दिनों की तरपफ उन दिनों को याद करते हैं जब आप सीपीएम से जुड़े हुए थे, आपने ही जनवादी लेखक संघ का पूरा संविधन बनाया था। कहा जाता है कि उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ से अलग होने के बाद आप और चंचल चौहान आदि लेखकों ने प्रलेस के मंच पर धवा बोलकर कापफी हंगामा किया था। मंच पर नागार्जुन भी थे, क्या सच है?
सुधीश पचौरी : चंचल चौहान उसमें नहीं थे। चंचल
इमरजेंसी के बाद जलेस में आए हैं। कापफी बाद, इमरजेंसी के भी कापफी बाद। 1983 में तो जलेस ही बना, उससे कापफी बाद वह एक लेखक-सदस्य के तौर पर थे। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह भी बाद में आए हैं। और जब से आए हैं महासचिव बने हुए हैं। पूरा किस्सा यूं है। हम सीपीएम में थे। हम यूनीवर्सिटी यूनिट को देखते थे, वही एएसआई बनी, जननाट्य मंच बनाया। सपफदर हाशमी तब विद्यार्थी था, कविताएं लिखता था, उसका बड़ा भाई सोहैल हाशमी, वह मेरा दोस्त था। उसके घर पर जाकर ही मैंने जलेस का संविधन बनाया था। उसके बाद मुझसे कहा गया कि तुम लेखकों का एक मंच बनाकर सेंटर में आ जाओ।
उसके बाद वो कहानी आगे निकल गई। पार्टी के सेंटर में आने के लिए सुरजीत ने भी जोर दिया। इमरजेंसी जब लगी तो हमने सत्यवती कॉलेज में एक जनवादी विचार मंच बनाया।
प्रेम भारद्वाज : इमरजेंसी के दौरान आप भूमिगत भी हुए थे?
सुधीश पचौरी : हुआ यह था कि इमरजेंसी के दौरान हमारी पार्टी की तरपफ से एक पर्चा छपा था जो इमरजेंसी विरोध् का था। उन दिनों हिंदी का जितना भी काम था, खासकर अनुवाद करने का वह मेरा काम था। एक पर्चा हमने प्रेस को दिया, तब ट्रेडिल प्रेस का जमाना था, वह छप गया। उसके बाद सिद्दिकी साहब ने बताया कि तुम हट लो, क्योंकि पर्चा पुलिस के हाथ लग गया है और वह लिखने वाले को पकड़ने की पिफराक में है, तब हम कुछ दिन के लिए भूमिगत हो गए थे। उस ट्रैडिल प्रेस को सेन गुप्ता साहब चलाते थे, कॉमरेड थे। साठ सत्तर की उम्र बीड़ी का बहुत शौक था उन्हें वही खाना बनाते थे, वहीं सो जाते थे। एक शालिग्राम थे
कॉमरेड हमारे। यह जहां लारेंस स्कूल है, वहीं छोटी सी ट्रेडिल प्रेस थी। जनवादी लेखक मंच बनाया तो इसमें एक कमेटी बनाई, स्वागत कमेटी, जिसमें एक मैं था, एक जवरीमलख पारिख थे। तब हमने 28 हजार रुपए जुटाए। हममें एक सम्मेलन किया। सम्मेलन के लिए जगह मिली बिड़ला मंदिर के ठीक बाजू में हिंदू महासभा का एक हॉल है उसमें।
प्रेम भारद्वाज : यह कब की बात है।
सुधीश पचौरी : 1983 की। तब भैरव प्रसाद गुप्त अध्यक्ष बनाए गए, चंद्रबली सिंह महासचिव। गुप्त जी ने इलाहाबाद लौटने के लिए पैसे मांगे। सभी लोग अपने पैसे से आए थे। हमारे पास पांच हजार रुपए बचे थे। हममें सार्थियों से डिस्कस किया तो लोगों ने कहा गुप्त जी को पैसे नहीं देने हैं। गुप्त जी इस पर बहुत नाराज हो गए। कुछ दिन बाद इलाहाबाद के अखबार में उनके हवाले से कापफी कुछ मेरे खिलापफ छापा जिसका मैंने विरोध् किया।
प्रेम भारद्वाज : आपने प्रलेस के मंच पर धावा बोला था?
सुधीश पचौरी : आज जो पालिका बाजार है, वहां से एक सेक्यूलर डेमोक्रेसी नाम की पत्रिका सुभद्रा जोशी जी निकालती थीं, सीपीआई की थीं। छोटा-सा कमरा था, जहां सैयद जहीर की पत्नी रजिया जहीर अध्यक्षता कर रही थीं।
रजिया जहीर ने इंदिरा गांधी के पक्ष में एक पर्चा पढ़ना चाहा लेकिन हम वहां मौजूद थे और तब हम इंदिरा गांध्ी को खलनायिका मानते थे। आज हम सोचते हैं कि वह ऐसी खलायिका भी नहीं थीं, तब इमने अपनी पार्टी लाईन ली तो वहां पर कापफी झांय-झांय हुई। लेकिन रजिया जहीर ने बुरा नहीं माना। उन्होंने कहा कि मैं दिल से तुम्हारे साथ हूं। मगर हमारी पार्टी की लाईन है जिसके आगे हम बेबस हैं।
धर्मवीर भारती भी मुंबई से दिल्ली आए थे और उन्होंने यहां एक अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन किया था- उनके स्कूल के लोग आए थे। तब मैं था, पंकज सिंह थे। कुछ और लोग थे। हमने उनका विरोध् किया कि तुम कैरियरिस्ट हो औद्योगिक घरानों की पत्रिकाओं के संपादक हो। बुर्जुआ हो, हम तुम्हारी नहीं चलने देंगे।
आज मैं सोचता हूं कि र्ध्मवीर भारती ने सब सहा। कमलेश्वर भी थे वहां, उस सम्मेलन में, हमने उनका मंच उखाड़ दिया। लेकिन भारती ने जरा भी बुरा नहीं माना। अबे-तबे नहीं कहा। कमलेश्वर तो उस घटना के बाद मेरे और करीबी हो गए। यह वह दौर था जब हमारे हंगामे का उन्होंने बुरा नहीं माना तब तक चंचल चौहान हमसे नहीं जुड़े थे।
तीसरी घटना आगरा की है। इसमें मैं था-कर्ण सिंह
चौहान था और भी कुछ लोग थे, हम आगरा गए थे। हुआ यह था कि वहां कमलेश्वर अध्यक्षता कर रहे थे, राम विलास शर्मा भी थे। तब हम बड़ी पत्रिकाओं के खिलापफ आंदोलन में शामिल थे। उसी वक्त कमलेश्वर ने अपनी पत्रिका में लघु पत्रिकाओं के खिलापफ अग्निघई का तीन खंड़ों में एक लेख छापा था। हमें इस बात का विरोध् था? वहां हमने कमलेश्वर के खिलापफ इतना कर दिया कि अल्टीमेटली उनको जाना पड़ा। हमने कहा कि कमलेश्वर की अध्यक्षता नहीं स्वीकारी जाएगी। तीन लोगों का अध्यक्ष मंडल होना चाहिए। तब हमने एक नागार्जुन को बिठाया जो वहां मौजूद थे, राम विलास शर्मा को बिठा दिया जो थोड़ी देर बाद चले गए थे। वह आयोजन सीपीआई का था जिसे कमलेश्वर के लोगों ने अपनी अध्ीन कर लिया था।
प्रेम भारद्वाजः आपके बारे में कहा जाता है कि आपने जनवादी लेखक संघ का संविधन बनाया। पिफर आपको कहा गया कि लॉ में एडमिशन ले लो ताकि होलटाइमर आप बन सकें।
सुधीश पचौरी : ऐसा नहीं है, मेरे बारे बहुत-सी उल्टी सीध्ी जानकारियों लोगों के पास हैं।
प्रेम भारद्वाज : यह भी कि जब कर्ण सिंह चौहान को पार्टी में आहोदा मिला तो आप नाराज हो गए- पार्टी भी बाद में छोड़ दी।
सुधीश पचौरी : यह सब विचित्रा बाते हैं, इन बातों को कर्ण भी नहीं मानेगा। अगर मैं इसके भीतर जाऊंगा तो कई मित्रों की निजी बातें आ जाएंगी। जिसकी उनकी अनुपस्थिति में चर्चा करना उचित नहीं है। वह सब अच्छा और उज्ज्वल प्रसंग नहीं है- कुल मिलाकर यह था कि हम ‘उत्तरा(र्’
निकालते थे। सव्यसांची सारी साम्रगी भेजते थे, मैं बहुत से अनुवाद करता था, सामग्री तैयार करता था। इमरजेंसी में हमने एक विशेष अंक निकाला जिसके कवर पर पाब्लो पिकासो की पेटिंग छापी अब कहीं मिलती नहीं, उस अंक में बहुत कुछ ऐसा था जो एंटी पफासिस्ट था। ‘पहल’ का अंक उसके पहले आया था, तब ‘पहल’ इमरजेंसी का समर्थन कर रहा था।
प्रेम भारद्वाज : लेकिन ज्ञानरंजन जी मना करते हैं- एक बातचीत में जब मैंने उनसे यह बात कही तो उन्होंने इस आरोप को खारिज कर दिया।
सुधीश पचौरी : आप 1978 के ‘पहल’ का जो पहला अंक है, उसका संपादकीय देखिए ‘ही वाज अंगेस्ट जेपी
मूवमेंट’। मुझे किसी से लेना-देना नहीं है। मगर मुझे याद है वह पूरा-का-पूरा संपादकीय प्रो कांग्रेस था-तब हमने उन पर अपने एडिटोरियल में अटैक भी किया। तब आर-पार का मामला था।
प्रेम भारद्वाज : तब लेखकों की क्या भूमिका थी?
सुधीश पचौरी : पहले मैं वह प्रसंग बता दूं जब मैं महासचिव रहा। 1985-86। तब हमने चंचल चौहान, रमेश उपाध्याय को भी जोड़ा था। मेरे बच्चे छोटे थे। मेरे सामने बड़ी समस्याएं थीं कि हम पार्टी के लिए जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने जाएं, पार्टी का सेक्रेट्री होने के नाते मुझे लीड करना है मगर मेरे बच्चे कहां रहेंगे, इसकी मुझे चिंता थी। मेरी पत्नी ;क्षमा शर्माद्ध तब नंदन में काम करती थी। वह शाम सात बजे से पहले घर पहुंच नहीं सकती थी। मेरा शाम का कॉलेज था। मैंने ही पार्टी से कहा कि मुझसे निभ नहीं रहा है इसलिए मैं पार्टी छोड़ देना चाहता हूं।
पार्टी का पतन कैसे हुआ, उसकी कहानी अगर मैं यहां कहूंगा तो बड़ी गड़बड़ ही जाएगी। मेरे ‘जनसत्ता’ में लिखने पर मेरे ही एक मित्रा कॉमरेड ने हम पर हमला बोला। मेरा शुरू से ही विचार था कि अखबारों-पत्रिकाओं में लेखकों को लिखते रहना चाहिए, जब उसमें कॉमरेड सुरजीत का लेख छप सकता है तब मैं क्यों नहीं लिख सकता। अपना विचार लिखने के लिए पार्टी में एक पूरा-का-पूरा गु्रप था जो चाहता था कि ऐसा न हो। लेकिन मैंने किसी की बात नहीं मानी। मैं लिखता रहा- तो एक सज्जन ने, नाम मैं जानबूझकर नहीं ले रहा। मुझ पर आक्षेप किया- तुम बिक गए हो। मैं टीचर था कॉलेज में, पत्नी भी नौकरी में थी। मेरी इच्छाएं कभी ज्यादा रही नहीं… पार्टी मैंने इसलिए छोड़ी कि मेरे बच्चों को पालने के लिए कोई नहीं था। मैंने बच्चों को पालने के लिए स्टडी लीव भी ले ली। इसी दौर में उन सज्जन ने मुझ पर लगातार हमला किया। उसी समय मुझे लगा कि जहां आदमी पार्टी के लिए जी-जान से लगा है, वहां कोई आपको अकेला छोड़ दे तो यह ठीक नहीं है। मुझे लगा कि ऐसी स्थिति में पार्टी छोड़ देनी चाहिए और मैंने पार्टी छोड़ दी। लिखने के लिए लज्जित किया जाए। इसे दोष बताया गया तो पार्टी छोड़ने पर महासचिव मुझे मनाने मेरे घर आए मगर मैंने सापफ कह दिया कि मुझे बच्चे पालने हैं।
प्रेम भारद्वाज : इसे आपका बहाना माना गया?
सुधीश पचौरी : मानें लोग, जिनको बच्चे नहीं पालने आते, नौकरां से पलवाते हैं, लोगों ने पत्नियां छोड़ दीं, पार्टी नहीं छोड़ी। लोगों ने दो-दो बीवियां कर लीं। इस रास्ते मैं नहीं गया। मेरे भीतर एक नैतिक कट्टरता है। मैंने और किसी कारण नहीं, बच्चों के कारण पार्टी छोड़ी।
लेकिन जैसे ही मैंने पार्टी छोड़ी। पार्टी में कुछ लोगों को शिकार करने का बहुत शौक था कि अपने लोगों में ही कोई वर्ग शत्रा मिल जाए। मैं आपको बता दूं कि मैं सीपीएम के अखाड़े का ही एक ठीक-ठाक लड़का था। मेरी तैयारी ठीक थी- इनको अपने वर्ग शत्रा से निपटने में मजा आता है भले ही ये जीरो हो जाए। मैंने पार्टी तब छोड़ी, जनाब जब सीपीएम का तीनों लोकों में सिक्का चलता था। पश्चिम बंगाल में सरकार थी। सुरजीत ने मुझसे कहां तुम उल्टा मरोगे। मैं कमाई का बड़ा हिस्सा पार्टी पफंड में देता था। पार्टी छोड़ने पर मुझ पर अटैक किया गया और मैं उनका वर्ग शत्रा बन गया। मुझ पर वो लोग हमले कर रहे थे, जिनको कुछ नहीं आता था। अब अपना वर्ग बचा लो, ये सब कुछ तुम्हारे हाथ से निकल गया। सत्ता निकल गई। आज तुम्हारे पास कांग्रेस और भाजपा के पिछलग्गू बनाने के अलावा कोई चारा नहीं है। पश्चिम बंगाल में बहुत सी यूनिटें भाजपा की सेवा कर रही हैं। कॉमरेड मित्रों ने यहां तक किया कि अगर मैं किसी अखबार में लिख रहा हूं तो संपादक को कहा कि इन्हें मत छापो।
प्रेम भारद्वाजः आपने नगेंद्र से भी लड़ाई लड़ी?
सुधीश पचौरी : वह बहुत पहले की बात है।
प्रेम भारद्वाज : नगेंद्र से लड़ाई की क्या वजह रही? नगेंद्र जी के निधन पर आपने लिखा- ‘पहनकर शेरवानी
रीतिकाल चला गया।’
सुधीश पचौरी : हां, ‘हिंदुस्तान’ अखबार में टिप्पणी लिखी थी- ‘रीतिकाल चला गया शेरवानी पहनकर।’ जब हम
हाथरस से दिल्ली विश्वविद्यालय आए तो यहां भी वहीं जैसा माहौल था। हाथरस में हमने विश्वविद्यालय में धंध्लियों के खिलापफ लड़ाई लड़ी थी। दिल्ली विश्वविद्यालय में आकर पता चला कि नगेंद्र जी अपनी बेटियों को प्रेपफर करते हैं, उनके चेले भरे पड़े हैं। कुछ लोग जो नगेंद्र के खिलापफ थे, मैं भी उन दल में शामिल हो गया। जब शामिल हो गया तो पफायर- पफाइंटिग का काम भी मेरा था। एक बात बताऊं, तब नगेंद्र हट गए, मतलब हटा दिए गए हम लोगों की प्रोटेस्ट पर।
प्रेम भारद्वाज : अच्छा, हटा दिए गए थे?
सुधीश पचौरी : हां, ही वाज आस्कड़ रिजाइन। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा था कि अगर तुम यह विरोध जारी रखोगे तो मैं तुमको कहीं लगने नहीं दूंगा। उनकी चलती थी पूरे देश में। नामवर सिंह कुछ नहीं हैं उनके आगे। जिसको कह दिया पफलाना कॉलेज में चला जाए तो उसकी वहां नौकरी लग जाती थी। उन्होंने कहा- तुमको हिंदू कॉलेज में लगा दूंगा, डिपार्टमेंट में ले लूंगा, मगर यह विरोध बंद कर दो। मैंने कहा साहब, यह नहीं होगा। उन्होंने संध् के किसी आदमी को मुझे बुलाने के लिए भेजा था जो मुझे स्कूटर पर बैठाकर उनके पास ले गया था।
जब वे विश्वविद्यालय में नहीं रहे तो त्रिवेणी में एक कार्यक्रम था। मंच पर हम साथ थे तब उनको बहुत सापफ दिखाई नहीं देता था। मैं जान बूझ कर उनके और अपने बीच एक सीट छोड़ कर बैठा। उनकी महानता देखिए, उन्होंने मुझे वही से आवाज लगाई। कहा तुम सुध्ीर हो… अखबारों में लिखते हो अच्छा लिखते हो। जारी रखो। मतलब कुछ शान थी उनमें। हमारे बहुत से कॉमरेड देखकर सामने से निकल जाते हैं। देखते तक नहीं। मैं भी निकल जाता हूं। एक न्यूनतम स्वाभिमान मेरे भीतर भी है। जब मैं पार्टी के दफ्रतर जाता था तो एक रुपए का सिक्का पहले देता था, पिफर पफोन करता था। मेरे कुछ ऐसे भी कॉमरेड मित्रा थे जो पेट्रोल का जाली बिल देते थे। यह सीपीएम थी, लोग कहते थे। मैं कुछ मामले में बहुत जिद्दी हूं। अगर आता है कुछ तुमको तो जान हाजिर है-अगर नहीं आता है तो कहीं नहीं लगेगा। मैं जब डीन बन गया था…
प्रेम भारद्वाज : विश्वविद्यालय का अनुभव कैसा रहा आपका?
सुधीश पचौरी : हमने यह चाहा कि टीचर क्लास ले। दिल्ली विश्वविद्यालय में 80 प्रतिशत टीचर क्लास कट करते हैं। बच्चा मारा-मारा घूमता है। इस पर मेरा विरोध् हुआ। मैंने कुछ कोर्स चेंज किया। कोर्स चेंज इसलिए किया कि बदले हुए समय में जॉब ओरिएंटेड कोर्स भी चाहिए। लेकिन सीपीएम के लोग तो किसी भी परिवर्तन के खिलापफ हैं। जो परिवर्तन को समय से पहले पकड़ते थे वे परिवर्तन विरोध्ी बन गए। आज विश्वविद्यालय में कुछ नहीं हो रहा है तो उन्हें आराम है।
प्रेम भारद्वाज : राजेंद्र यादव कहा करते थे हमारे विश्वविद्यालय ज्ञान की कब्रगाह हैं, अज्ञेय की धरणा भी इसे लेकर कुछ ठीक नहीं थी। ऐसा क्यों है?
सुधीश पचौरी : अगर विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग न हों तो इन लेखकों के पाठक न हों। इन विभागों में पढ़ने वाले छात्रा ही साहित्य और लेखकों को पढ़ते हैं। शुरू में वह कोर्स के तौर पर पढ़ते हैं, पिफर उहीं में से कुछ का शौक डेवलप हों जाता है कि हम साहित्यकार को पढ़ेंगे। अगर हिंदी विभाग न हो तो इन लेखकों को पूछने वाला कोई न होगा। आज भी सबसे ज्यादा किताबें हिंदी विभाग ही खरीदता है। राजेंद्र जी का कटाक्ष उस तरपफ होता था जो क्रिएटिव माइंड नहीं है। तो हर अध्यापक क्रिएटिव माइंड नहीं हो सकता। अध्यापन में अपनी कट्टरता पैदा हो जाती है। वह हर साल पढ़ा रहा है कि उसका कंपफर्ट जोन डेवलप हो जाता है कि इतने से हमारे काम चल जाएगा, कुछ जड़ताएं जरूर हैं। वह हमारे विश्वविद्यालय के स्ट्रेक्चर का प्राब्लम है। बड़े-बड़े
प्रोपफेसर नियुक्तियां की राजनीति करते हैं, पिफर पढ़ाई से उसका कोई मतलब नहीं रह जाता, वह अपने लोगों, चेलों को लगवाने की पिफराक में रहते हैं।
प्रेम भारद्वाज : आपने अपने समय में पाठ्यक्रम में बदलाव किया। लोकप्रिय साहित्य को लेकर आए, मीडिया लेकर आए, पता नहीं अब है या नहीं।
सुधीश पचौरी : अभी है, लेकिन अब उसे बदलना चाहिए। मोबाइल की तकनीक और कानून के बारे पढ़ाना चाहिए। 25 ऐसे नए कानून हैं जो पत्राकारिता से वास्ता रखते हैं। सिलेबस वह नहीं होना चाहिए जो 30 साल चले, उसमें छह महीने में बदलाव किया जाना चाहिए।
प्रेम भारद्वाज : आपके ही टाइम में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक बड़ा विवाद हुआ था। इन दिनों ‘मी टू’ का मामला जोरों पर है। उस समय जो छनकर खबरें आई थीं उसके मुताबिक आपसे कहा गया था, क्योंकि जो प्रोपफेसर विवाद में पफंसे थे, वह आपके परम मित्रा थे, अगर उस पीड़ित छात्रा को आप नौकरी दे दें तो मामला सुलट जाएगा, लेकिन आपने कहा, मैं आपकी खातिर हिंदी विभाग को रेहन पर नहीं रख सकता। सच क्या है?
सुधीश पचौरी : दुर्भाग्य है- हमारे यहां हिंदी विभागा में नियुक्तियों की राजनीति भयानक है, सारी चीजें उसी से
संचालित होती हैं- शायद हर हिंदी विभाग इसी का शिकार है। यह मामला कमेटी में गया, कमेटी ने उनको दोषी पाया। हम लोगों का नाम घसीटा गया। प्लान क्या था कि वो तो जाएंगे ही अगर ये भी जाता है, एक और चले जाएं, तीन लोगों के जाने से उनका केस डाइल्यूट हो जाता है- तीनों के जाने बाद एक नया आदमी आया ही इसलिए था कि उसे अध्यक्ष बनना था, उसे नियुक्ति करनी थी। लेकिन सत्य, सत्य होता है। कमेटी ने पहले राउंड में कह दिया कि आप लोगों को तो इसमें डाला गया है। मामला एक्जुक्वेटिव कमेटी गया वहां जो भी व्यवस्था थी उसमें उनको दंड दिया। पिफर कोर्ट में मामला गया। हाईकोर्ट ने विस्तार से कहा की इसकी और भी जांच बिठाने की जरूरत है। क्योंकि कुछ लोग गड़बड़ कर रहे हैं- एक रिसर्च स्कॉलर है जो ब्लैकमेलर के तौर पर काम कर रहा है। एक प्रोपफेसर था, किसी और विभाग का, वह इससे जुड़ा था। एक हमारे सीनियर थे। उनके एक रिश्तेदार उसमें शामिल थे। कुछ दुश्मन थे जहां तक मेरी बात है मैंने कमेटी से कहा कि आप मेरे पुराने कॉलेज में सबसे बड़े दुश्मन से जाकर पूछें कि सुध्ीश महिलाओं के प्रति कैसा रवैया रखता है। अगर वे कुछ नकारात्मक कह दें तो हर सजा को तैयार हूं।
गुंजन कुमार : नियुक्ति की राजनीति सिपर्फ हिंदी विभाग में ही है या विभागों में भी हैं।
सुधीश पचौरी : हिंदी विभाग में सबसे ज्यादा है। मुझे खुलेआम कहा गया कि पफलां को लगा दो।
गुंजन कुमार : मेरे समय में एक थे जिनका पांच साल रिटायरमेंट में बच गया था तब उनको स्थाई किया गया।
सुधीश पचौरी : कुछ लोग हिंदी विभाग में आते ही इसलिए है कि नियुक्तियां और ब्लैकमेल की एजेंसी चला सकें।
गुंजन कुमार : अब तो लाखों का वेतन है।
सुधीश पचौरी : लालच पेट नहीं भरता। एक प्रोपफेसर के दस चेले आगे पीछे हैं। सेना बनाई जा रही है। हिंदी के लिए यह नुकसानदेह है, इसलिए हिंदी की जो एकेडमी है, उसका स्तर गिर रहा है।
प्रेम भारद्वाज : आपके बारे में धरणा है कि आप पहले से स्थापित अवधरणाओं को खारिज करते हैं। जैसे आप उत्तर आध्ुनिकता को लेकर आते हैं, इसे हिंदी में लाने का श्रेय आपको ही जाता है। जब सारी दुनिया यह कह रही थी कि उत्तर आधुनिकता मार्क्सवाद के विरोध् में है आपने कहा यह मार्क्सवाद का विस्तार है, उत्तर आधुनिक सरल शब्दों में है क्या?
सुधीश पचौरी : साहित्य को पढ़ने का मतलब है समाज को पढ़ना। मेरा मानना है कि अगर आपने साहित्य के साथ-साथ समाज को नहीं पढ़ा और उसे समझ कर अगर समय को नहीं देखा तो न आपको साहित्य समझ आएगा है, न समाज। हम बार-बार मार्क्स के पास जाते थे। लेनिन के पास जाते थे। 1990 के बाद मैं सोचने लगा कि क्यों पूंजीवाद दुर्दांत होते हुए भी जीत रहा और समाजवाद परजित हो गया। उन दिनों ‘टाईम्स ऑपफ इंडिया’ के संपादक थे शामलाल, वह सप्ताह में एक लेख लिखा करते थे। तब गिरिलाल जैन भी थे। जो इस्लामिक मुद्दों पर लिखते। शामलाल नई थ्योरी पर लिखते थे। उत्तर आधुनिक की थ्योरी पर वह अक्सर कमेंट करते थे। उनकी बातों को पफौलो करते हुए मुझे लगा कि यह कोई नई चीज है। मुझे समझना चाहिए। मैं पार्टी के खूंटे को तोड़ चुका था। मैं लाइब्रेरी में चला जाता था। लोगों से इसके बारे में पूछताछ करता था। लाईब्रेरी में मुझे स्लवजंतक की किताब च्वेज डवकमतदपेउ पर, जो 1967 में छपी थी, वह मुझे मिल गई। मैंने उसकी पफोटो कॉपी कराई। उसके बाद मुझे प्रफेडरिक जैमसन की किताब मिली। इसको पढ़ने के बाद मुझे लगा कि कैपिटल के मूवमेंट से जो कल्चरल चीजें बदल रही हैं इसके पीछे जो विकसित पूंजीवाद है, यह एक ऐसा पूंजीवाद है जो कच्चे माल से पक्का माल नहीं बना रहा है। बल्कि पूंजी को टेकनोलॉजी में लगा रहा है, होस्टेलिटी में लगा रहा है, टूरिज्म में लगा रहा है, यानी सर्विसेज में लगा रहा है इससे जो मानवीय संबंध् है, वह बदल रहे हैं, इससे जो नेशनल स्टेट उनकी बाउंड्री टूट रही है, यह ग्लोबल है-पूंजी इस बात की चिंता कहीं करती कि भारत में घुसना है कि नहीं- अब भारत चिंता करे कि क्या करना है… यह जो मोबाइल है जो सूचना ले और दे रहा है यह पूरा का पूरा पोस्ट मार्डज्जिम है- पाकेट के भीतर बैठा हुआ है, जिससे मैं दुनिया से जुड़ जाता हूं। यह नेशन स्टेट की सीमा को तोड़ रहा है। दूसरा उसने कहा कि इससे जो मार्जिन पर थे यानी जो हाशिये पर इकाइयां थी उसमें जान पड़ रही है। इसमें अस्मिता निकलेगी। केंद्र कमजोर हो रहा है। पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि इसमें कुछ बात तो है। लेकिन लेतार्द ने यह किताब तब लिखी जब यह प्रफांस गया, वहां भेजा गया।
मार्क्स ने भी कम्युनिष्ट मैनिपफेस्टो में लिखा है- पूंजीपति वर्ग अपने स्वार्थ के लिए दुनिया को रौंद डालेगा, जब तुम कहो कि वह यहां है। वह कहीं और होगा। तब जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाएगा तब आदमी को मालूम पड़ेगा कि वह क्या है, वरना आदमी मिथ्या में रहता है।
इन तमाम चीजों को मिलाकर मुझे लगा यह पूंजीवाद की नई लीला के बारे में ही बता रहा है। और इस लीला को तोड़ नहीं पाया। मार्क्सवादी भी तोड़ नहीं पाया। चीन को देखिए वह पूंजीवाद का खराब रूप बन गया है। तो मैंने इस चीज को लिखा उससे मुझे साहित्य को समझने में थोड़ी मदद मिली। ये जितने भी दलित, स्त्रा विमर्श के डिस्कोर्स हैं इनकी थ्योरी में सहायता उत्तर आध्ुनिकता ही देता है- उसी में मानवाध्किर भी है-यह जो उत्तर आध्ुनिकता है वह ऐसी स्थिति पैदा करता है, जिसमें यह जो तानाशाही या केंद्रीयता है, वह टिकाउं नहीं है- तकनीक ने इतना तो किया है कि जो आपको एक खूंटे पर बंध्े रहने की प्रवृत्ति थी उसे, तोड़ा है, बहुत से खूंटे बना दिए हैं। यह भी कि शब्द जो है उसके अर्थ पाठक बनाता है- शब्दों को जितनी बार पढ़ो उसका नया अर्थ निकलता है। यह जो तरलता है, अर्थ की वह किसी की तानाशाही को कबूल नहीं करेगी। यह दोनों थ्योरी मार्क्सवाद और उत्तर आध्ुनिकता किसी भी तरह की तानाशाही के खिलापफ है। पूंजीवाद की सारी ताकत तकनीक में चली गई हैं। अब श्रम की जो लड़ाईयां है। वह कमतर हो गयी है। इसी से मुझे साहित्य को समझने का रास्ता मिला है। साहित्य में जो यह है न कि महावृत्तांत से मुक्ति मिलेगी मैं एक ऐसा उपन्यास लिख रहा हूं। जिसमें बहुत बड़ा विचार छिपा हुआ है। उत्तर आध्ुनिकता कहता है कि हम तो छोटे-छोटे विचारों का आनंद लेते हैं। जो तुच्छ विचार हैं, वही महत्वपूर्ण है है, उनको कोई पूछता तक नहीं है- महावृत्तांत का जो सबसे बड़ा वृत्तांत था सोवियत संघ वह तो गिर गया, अब पूंजी का महावृत्तांत बचा है। जब तक पूंजी के भीतर का विरोधभास नहीं बनेगा वह चलती रहेगी।
प्रेम भारद्वाज : हम आलोचना पर आते हैं। आप खुद आलोचक हैं। एक तो यह कि आलोचना की स्थिति कैसी है हिंदी साहित्य में। इसी से जुड़ा यह भी है कि दो आलोचक नामवर सिंह और मैनेजर पांडे को लेकर आपकी क्या सोच है। आपने नामवर सिंह पर जो पुस्तक संपादित की है उसमें नामवर सिंह को आलोचक मानकर विमर्शकार माना है। वह हिंदी आलोचना को विमर्श के पास लेकर चले गए। आप छायावाद के बारे में कहते हैं कि छायावाद को आलोचक नहीं मिला। जबकि नामवर सिंह की एक पुस्तक ही छायावाद पर है। आपकी जो बेसिक सोच है वह पहले की स्थापित धरणाओं को तोड़ने वाली है, वह यहां भी दिखाता है।
सुधीश पचौरी : मैं आपसे ही पूछता हूं हमारे जितने भी मार्क्सवादी आलोचक हैं, उन्होंने नया क्या दिया। जैसे लुकाच ने मार्क्सवाद को पढ़ते हुए क्रिटिकल रियलिज्म की अवधरणा को स्थापित किया वाल्टर बेंजामिन ने बाजार को लेकर कुछ अवधरणा दी। हमारे आलोचकों ने नया क्या किया। आप आलोचकों की देखिए, क्या रचना समाज का प्रतिबिम्ब है, यथार्थ कह रही है, सच कह रही हैं, यथार्थ इतनी जल्दी पकड़ में आ जाता है क्या लिखते है- लेखक को भी आपने मान लिया कि उसने पकड़ लिया यथार्थ और आपने भी पकड़ लिया। मेरा मानना यह है कि आलोचना रचनाकार का रसोईया नहीं है, वह उसका प्रचारक भी नहीं है, दरबारी भी नहीं है।
मेरा मानना है कि आलोचना समाज की आलोचना है, रचना उसके भीतर आ जाती है। नामवर सिंह की समूची आलोचना में संदर्भ नहीं है। पता नहीं चल पाता कि ‘माल’ ने कहां से मारा है- सूत्रा कहां से मिला। एक अच्छा स्कॉलर पहले सूत्रा और संदर्भ देगा जो पहले से है, पिफर उन पर अपनी बात कहेगा। नामवर सिंह मुक्तिबोध के ‘अंध्ेरे में’ कविता के संदर्भ में लिखते हैं, वह अस्मिता की खोज है। अस्मिता का मतलब, पहचान, ब्राह्मण है, दलित है, अंधेरे में कविता आत्माभिव्यक्ति की खोज है, बेचैनी है कि मैं अपने समय के सच को कैसे कहूं। नई कविता भी अभिव्यक्ति की समस्या से जूझ रही थी- अपने समय को कहने की समस्या तुलसीदास के पास भी थी। नामवर सिंह ने अभिव्यक्ति को अस्मिता बना दिया। मुक्तिबोध चित्तपावन ब्राह्मण हैं, उनकी पूरी कविता में किसी दलित का नाम नहीं। उसमें एक भी ब्राह्मण नायक नहीं आता पिफर अस्मिता किस बात की। अस्मिता गलत शब्द है। नामवर जी बहुत पढ़े लिखे हैं, हमें उन पर गर्व है। राम विलास शर्मा मार्क्सवाद की कुल्हाड़ी चलाते है। उन्होंने सिपर्फ एक कोशिश की हिंदी जाति की अवधरणा की मगर उसमें उर्दू नहीं है। अंततः वह वही चले गए जहां आर्यसमाजी को जाना चाहिए।
प्रेम भारद्वाज : आलोचना की यह स्थिति है क्यों?
सुधीश पचौरी : देखिए, जब तक जीवन की आलोचना नहीं होगी, यही होगा। एडवर्ड सईद ने एक बात लिखी है कोई भी आलोचना र्ध्म की आलोचना से शुरू होती है। मुझे बता दीजिए, इनकी आलोचना र्ध्म की आलोचना से कब शुरू हुई। साम्प्रदायिकता के खिलापफ उन्होंने कितना लिखा।
गुंजन कुमार : इसका मतलब तो यह हुआ है कि हिंदी साहित्य में कोई मौलिक विचार देने वाले नहीं थे। इसलिए यह आलोचक स्थापित हुए, स्तंभ बने।
सुध्ीश पचौरी : एक जमाने में प्रगतिशील होना एक चलन था। सोचने समझने का काम प्रगतिशीलों ने किया, ऐसा कहा जाता था। सोवियत संघ से उनकी बातों को ताकत मिलती थी। हमारी पूरी आलोचना में दो चीजें गायब हैं। एक है देश, हालांकि मुक्तिबोध् के यहां थोड़ा है, दूसरा र्ध्म।
प्रेम भारद्वाजः एजाज अहमद से भी आपकी मुठभेड़ हुई थी।
सुधीश पचौरी : देखिये, एजाज अहमद साहब की समस्या क्या है। उनसे मेरी कोई मुलाकात नहीं है। उन्होंने एक थिसीस दी, उस पर मैंने कमेंट किया था उनकी किताब ‘इन थ्योरी’ पर। मेरी कोई हैसियत नहीं है उनके मुकाबले। वह ग्लोबल हैं। मैं लोकल भी नहीं है। मगर मामला है न, खुदा किसे मानोगे- जब हम ईश्वर से झगड़ सकते हैं तो तुम क्या हो। एजाज साहब, यूरोप और सलमान रुश्दी के उपन्यास की बात करते हैं, वह कहते हैं यह जो नॉवेल है अंग्रेजी का वह साम्राज्यवादी लालच में खो जाता है। वह उत्तर आध्ुनिकतावाद पर हमला करते हैं। मैंने सवाल उठाया जैसे सलमान रुश्दी अंग्रेजी में उपन्यास लिखकर साम्राज्यवादी लालच का हिस्सा बन जाते हैं उसी तरह आप भी तो अंग्रेजी में लिखकर उसी साम्राज्यवादी लालच का हिस्सा बने हुए हैं।
प्रेम भारद्वाज : आप धारा के विपरीत सोचते हैं- कुछ साल पहले आपने ‘बहुवचन’ में लेख लिखा है। ‘रीतिकाल में पफूको विचरण’ पिफर इसी पर किताब भी आई। आपने
रीतिकाल को देखने का नया नजरिया दिया।
सुधीश पचौरी : इसमें मैंने यह कहा है कि स्त्रा की जो देह है, जो रीतिकाल की स्त्रियां है, नायिकाएं हैं। वे मिथ्या स्त्रियां नहीं हैं। वे साक्षात उस काल में रही होंगी। उनका दमन हुआ होगा। तभी वह इतना दबंग हो पाई। वह दबंग हैं। लेकिन वह दबंग आज जैसी नहीं हैं। सौंदर्य आपको ताकत देता है। उस पुस्तक में रीतिकाल की स्त्रियां डिस्कोर्स डेवलव कर रही है, यह मैंने कई उदाहरण से बताया है। और यहां रहीम में भी है। रहीम ने जो मीना बाजार कहते है। उसमें नगर शोभा नाम से वणर्न किया है। उसमें उसके 46 किस्म की पेशेवर
महिलाओं के नाम लिए हैं, कहीं सुनारिने बैठी है, कहीं मालिन बैठी है, यह सब औरतें अपना-अपना समान बेच रही हैं और कोई भी युवक इनको छेड़ नहीं रहा है। रहीम उनकी
सेक्सुअलटी का वर्णन करते है कि वे औरतें कैसी लग रही हैं। एक जगह वह एक ऐसी औरत का वर्णन करते हैं जो रंग में काली है और बैंगन बेच रही है। उस बैगन बेचने वाली औरत का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि इसे कोई छेड़ कर चला जाएगा- यह पीट भी देगी।
प्रेम भारद्वाज : यह सब आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की नजरों से बच कैसे गया?
सुध्ीश पचौरी : देखिए, शुक्ल जी नैतिकतावादी थे, तब राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था। इसका भी ध्यान में रखना चाहिए। नैतिकता दिखनी चाहिए, औरत नरक की खान होती है। ये सब उस दौर के मूल्य थे।
प्रेम भारद्वाज : स्त्रियां स्वतंत्रा थीं उस दौर यानी रीतिकाल में?
सुधीश पचौरी : स्त्रा स्वतंत्राता अपनी स्थितियों के भीतर थी। वह स्त्रियां आज से ज्यादा ताकतवर थीं।
प्रेम भारद्वाज : सिमोन दि बोउआर की पुस्तक ‘सेकेंड सेक्स’ आने के पहले महादेवी वर्मा ने ‘अतीत की कड़ियां’ में स्त्रा स्वतंत्राता पर कापफी मजबूती के साथ उठाया। मगर उनको दरकिनार किया गया। उनको छायावाद के ‘मैं नीर भी दुख बदली’ के प्रफेम में ही पिफक्स कर दिया गया।
सुधीश पचौरी : यहां दो समाजों के सांस्कृतिक भिन्नता का भी प्रश्न है। मुझे लगता है कि पश्चिम के समाज में हर चीज को द्वंद्व में ही परिभाषित करते हैं। स्त्रा पुरुष की अन्य है। भारतीय अवधराओं में वह अनन्य है। पफूको कहता है कि औरत की विजीबिलटी ही। उसे इनपॉवर करती है यानी वह जितना दिखेगी उतनी ही शक्तिशाली होती जाएगी। इसके लिए उसने भारत के साथ जापान और इजिप्ट का खासतौर पर उल्लेख किया है। उसने लिखा है इन देशों के समाज ऐसे हैं जहां औरत दमित नहीं हैं। पश्चिम में कानून जेंडर न्यूट्रल है, हमारे यहां एकतरपफा है- नतीजतन कई बार वह ब्लैकमेल का औजार बन जाता है। न्याय कहीं नहीं मिलता है उसे।
गुंजन कुमारः न्याय यह को न्यूट्रल होने की बात करते हैं तो यह कास्ट जेहर पर भी आएगा?
सुधीश पचौरी : बिल्कुल, पिफर तो यह होगा कि उनको न्याय चाहिए तो एक कास्ट की अदालत बनाने की बात उठेगी। तब तक न्याय जेंडर अंडर प्रफी नहीं। दंड विधान से मन नहीं बदला करते लोगों का मन बदलने की जरूरतें सोच में बदलाव लोगों की जरूरत है, वह नहीं हो रही है।