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पत्रकारिता एक हथियार है। इसका उपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। लेकिन सवाल यह है कि इस हथियार का संचालक कौन है? उसके हित क्या हैं? मीडिया अक्सर अपने पक्ष में यह तर्क गढ़ता है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, अपने पाठकों और दर्शकों की रुचि के अनुरूप कर रहे हैं। दर्शकों में यह इच्छा पैदा किसने की? उसमें समय-समय पर खाद-पानी किसने डाला? आज हालात ऐसे हो गए हैं कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है, उसकी साख पर संकट खड़ा हो गया है। इसका ताजा उदाहरण गत सप्ताह विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने एक सूची जारी कर ऐसे पत्रकारों का बहिष्कार करने की घोषणा की, जिन पर वह सत्ता पक्ष का हिमायती होने का आरोप लगाता आया है

आज के दौर में मीडिया एक ऐसा थानेदार बन चुका है जो चोर भी पकड़ने लगा है और अदालत की तरह सजा भी देने लगा है। यानी इस वक्त मीडिया ऐसा थानेदार है जो सबकी खबर रखता है लेकिन उस मीडिया की खबर लेने वाला कोई नहीं है। नतीजा यह है कि निष्पक्ष रहने का पाठ पढ़ाने वाला मीडिया ही पक्षपाती फैसले सुनाने लगा है। एक दौर था जब सभी तरफ से हार जाने के बाद हर इंसान को आस होती थी मीडिया से और उसके खबरनवीस से कि उसे न्याय दिलाने के लिए वो उनकी आवाज बनेंगे। वर्तमान में मीडिया अपनी विश्वसनीयता को लगातार खो रहा है या यूं कहें उसपर बाजारवाद और पार्टियों के फंड का बोझ इतना बढ़ गया है कि उनकी चापलूसी करना मीडिया की मजबूरी हो गई है।
इस दौर में रहते हुए मीडिया अपनी स्वतंत्रता को राजनीतिक विचारधारा के सामने समर्पित नजर आ रहा है। ऐसे में हर सामान्य व्यक्ति के जेहन में ये सवाल जरूर आता होगा कि ऐसा क्या हुआ जो अचानक से मीडिया की साख और निष्पक्षता पर प्रश्न- चिह लग गया है? इन सवालों के जवाब सैद्धांतिक हैं, उन्हें व्यावहारिक बनाना मौजूदा युग के मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है।

मीडिया की साख पर सबसे बड़ा दाग बीते सप्ताह विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ द्वारा कुछ पत्रकारों को सत्ता पक्ष का मुखपत्र बताकर प्रतिबंधित करने के फैसले से लगा है। इसके बाद मीडिया को लेकर सामान्य जन से लेकर दिग्गज लोग भी खुलकर अपना पक्ष रख रहे हैं। कोई इस फैसले के समर्थन में दिख रहा है तो कोई घोर विरोध में। हालांकि इंडिया गठबंधन ने बाद में इस पर टिपण्णी देते हुए कहा है कि किसी एंकर का बहिष्कार नहीं किया गया है, बल्कि यह प्रतिबंध ‘असहयोग आंदोलन’ है। भाजपा ने इसकी तुलना इमरजेंसी से की हैं और इसे पत्रकारों के ऊपर हमला बताया। कुल मिलाकर इस मुद्दे को लेकर पूरे देश में सियासत गरमा गई है। वहीं इस मुद्दे पर देशभर के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों के संपादकों की सर्वोच्च संस्था ‘ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन’ के साथ 19 सितंबर को बैठक हुई। इस मीटिंग में फैसले की निंदा करते हुए सामूहिक रूप से प्रतिबंधित पत्रकारों की सूची को वापस लेने की मांग की गई है।

‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों के मध्य भी इस फैसले को लेकर असमंजसता बनी हुई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर कहा कि उन्हें इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव अलायंस (इंडिया) की तरफ से टीवी न्यूज एंकरों के बहिष्कार की जानकारी नहीं दी गई। कुमार ने कहा, ‘मैं पत्रकारों के समर्थन में हूं। जब सभी को पूरी आजादी मिलेगी, तो पत्रकार वही लिखेंगे जो वे चाहते हैं। क्या वे नियंत्रित हैं? क्या मैंने कभी ऐसा किया है? उनके पास अधिकार हैं, मैं किसी के खिलाफ नहीं हूं।

दरअसल, इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस (इंडिया) ने देश के कुछ प्रमुख टीवी चौनलों के 14 एंकरों के कार्यक्रमों में अपना प्रवक्ता न भेजने का फैसला किया है। निश्चित रूप से विपक्षी दलों के एलायंस का यह बहुत बड़ा फैसला है। लेकिन यह फैसला क्या कारगर भी होगा? क्या इससे सत्ताधारियों के भोंपू या प्रचार का उपकरण बने इन टीवी चैनलों के स्वरूप, सोच और प्रस्तुति में फर्क आयेगा? जिन कारणों से इन कथित चैनलों को समाज के एक हिस्से में ‘टीवीपुरम’ या ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है, क्या उन कारणों का कोई समाधान होगा? ऐसे प्रश्नों की फिलहाल झड़ी लग गई है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि ये कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में मीडिया के विस्तार से मीडिया की आजादी में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इसके साथ ही तैयार हो गई है, एक पतली-सी रेखा, जो मीडिया के बाजारी और बाजारू होने का फर्क तय करती है, जहां खबरें बाजार के मिजाज से लिखी जाती हैं, जहां स्पॉन्सर के पैसों की खनक, आवाज की धमक तय करती है आज की खबर क्या होगी? कहने में बड़ा अटपटा है लेकिन आज खबरें वहीं है जो स्पॉन्सर करने वाले लोग और सत्ता द्वारा तय की जाती है।

ये एंकर हुए बहिष्कृत
1. अदिति त्यागी, भारत एक्सप्रेस
2. अमन चोपड़ा , न्यूज-18
3. अमीश देवगन , न्यूज-18
4. आनंद नरसिम्हन , न्यूज-18
5. अर्नब गोस्वामी, रिपब्लिक टीवी नेटवर्क
6. अशोक श्रीवास्तव,डीडी न्यूज
7. चित्रा त्रिपाठी,आजतक
8 . गौरव सावंत , इंडिया टुडे
9. नविका कुमार ,टाइम्स नाउ नेटवर्क
10 . प्राची पाराशर , इंडिया टीवी
11. रुबिका लियाकत,भारत-24
12. शिव अरूर, इंडिया टुडे
13. सुधीर चौधरी, आजतक
14. सुशांत सिन्हा, टाइम्स नाउ नवभारत

मीडिया का बदलता स्वरूप
विपक्ष के इस कदम ने भारत में पिछले कुछ वर्षों से चल रही पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता की समस्या को उजागर करने का काम किया है। यह सिलसिला 2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ शुरू हुआ। खासकर मुख्यधारा के लगभग सभी हिंदी और अंग्रेजी टीवी न्यूज चैनल इस मामले में सबसे आगे रहे। मई 2017 में ‘रिपब्लिक टीवी’ के लॉन्च के साथ यह माहौल और मजबूत हो गया। इस चैनल के संस्थापक अर्नब गोस्वामी और राजीव चन्द्रशेखर हैं। उस समय चंद्रशेखर राज्यसभा के स्वतंत्र सदस्य थे, लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सदस्य भी थे। वह केरल में एनडीए के उपाध्यक्ष थे। बाद में वह बीजेपी में शामिल हो गए और चैनल में अपनी हिस्सेदारी बेच दी। जल्द ही उन्हें केंद्रीय मंत्री भी बना दिया गया।

‘रिपब्लिक टीवी’ पर आरोप हैं कि उसने खुलेआम बीजेपी और केंद्र सरकार के मुखपत्र की भूमिका अपना ली है। इस चैनल में केंद्र सरकार और बीजेपी की तारीफ की जाती है और सिर्फ विपक्षी नेताओं पर आरोप लगाए जाते हैं। रिपब्लिक की सफलता के बाद कई चैनल भी इसी राह पर चल पड़े। खासकर शाम के ‘प्राइम टाइम’ स्लॉट में यह एकतरफा पत्रकारिता लोगों के सामने खुलकर सामने आ गई।

‘गोदी मीडिया’ का जन्म और ‘निष्पक्षता’ का अंत
इसके साथ ही कई अन्य बड़े बदलाव भी हुए। बीजेपी नेताओं ने उन चैनलों से बात करना बंद कर दिया जो सरकार से तीखे सवाल पूछा करते थे। चैनलों को अपनी चर्चा में बीजेपी का पक्ष रखने के लिए बीजेपी ‘समर्थक’ जैसे लोगों को शामिल करना पड़ा। दूसरा बड़ा बदलाव यह हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ चुनिंदा चैनलों और एंकरों को इंटरव्यू देना शुरू कर दिया। ऐसा इस आलोचना का जवाब देने के लिए किया गया था कि उन्हें मीडिया के सवालों का सामना नहीं करना पड़े। लेकिन इन चुनिंदा साक्षात्कारों में भी सिर्फ सरकार और सत्तारूढ़ दल की ही तारीफ की गई और मोदी और शाह से कोई आलोचनात्मक सवाल नहीं पूछा गया। सरकारी टीवी चैनल दूरदर्शन ने बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार से पीएम मोदी का एक इंटरव्यू भी करवाया था, जिसमें ‘आप आम कैसे खाना पसंद करते हैं’ जैसे सवाल पूछे गए थे।

तीसरा, केंद्र सरकार से सवाल करने वाले कई पत्रकारों का उत्पीड़न शुरू हो गया। कइयों की नौकरियां चली गईं, कइयों के खिलाफ भाजपा शासित राज्यों की पुलिस ने मामले दर्ज किए और कइयों के खिलाफ फोन कॉल के जरिए दुर्व्यवहार और धमकी देने का अभियान शुरू किया गया। इनमें से कई एंकर इंटरनेट पर अपने कार्यक्रम करने लगे, लेकिन धीरे-धीरे इंटरनेट पर भी ऐसे लोगों की भीड़ हो गई जो सिर्फ सरकार की तारीफ करते हैं। अब तो कई केंद्रीय मंत्री भी उनमें से कुछ को इंटरव्यू देने लगे हैं। कुल मिलाकर मीडिया और बीजेपी के बीच एक बेहद जटिल रिश्ता उभर कर सामने आया है। एक ओर मीडिया है जो केवल केंद्र सरकार की प्रशंसा करता है और केंद्र में सत्तारूढ़ दल के एजेंडे को बढ़ावा देता है, वहीं दूसरी ओर पत्रकारों का एक छोटा समूह है जो आज भी सरकार से जन सरोकार के सवाल पूछता है।

ये जो पत्रकार हैं वो सत्ता से लाभ उठाने के लिए हमेशा ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिससे किसी एक राजनीतिक पार्टी को लाभ हो, ये पत्रकार सांप्रदायिक मुद्दे उठाते हैं। जन समस्याओं पर बात नहीं करते हैं और अगर हम बात भी करना चाहे तो घुमाकर हिंदू-मुस्लिम पर ले जाते हैं। इससे देश को कितना ज्यादा नुकसान हो रहा है इसका उन्हें अंदाजा भी नहीं है कि वो अपने छोटे से स्वार्थ के लिए देश का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं। देश के सौहार्द पूर्ण वातावरण को बिगाड़ रहे हैं। आपस में लोगों में दुश्मनी और तनाव बढ़ा रहे हैं। पत्रकारिता में पढ़ाया जाता है कि पत्रकार की भूमिका विपक्ष के नेता जैसी होती है सत्ता की कमजोरियों पर सवाल करे, विषमताओं को उठाएं लेकिन आज विपक्ष के नेता की भूमिका न निभाकर सत्ता की चापलूसी में लगे हैं इसलिए हमने ये एंकर चिन्हित किए जो ज्यादा इस काम को करते हैं। इनके अलावा और भी पत्रकार हैं जो ज्यादा हिंदू- मुस्लिम करते हैं, नफरत फैलाते हैं, फर्जी खबर चलाते हैं विपक्ष को बदनाम करने के लिए झूठे आरोप लगाते हैं और सरकार की जी हुजूरी करते हैं। इसलिए इनकी नफरत की राजनीति में हम शामिल नहीं होंगे। अगर ये लोग हमें गारंटी दें कि ये केवल जनहित के मुद्दे ही उठाएंगे तो ही ये संभव है कि हम इनके कार्यक्रमो में अपना प्रवक्ता भेजेंगे। आगे अगर वो सुधार करते हैं तो देखा जाएगा। इंडिया अलायन्स का यह फैसला बिलकुल सही है और ये फैसला बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन देर आए दुरुस्त आए ये फैसला लिया गया। ऐसी घटिया डिबेट में किसी जिम्मेदार इंसान को शामिल होना ही नहीं चाहिए जहां केवल घटिया बातें की जा रही हो।
राजकुमार भाटी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, समाजवादी पार्टी

 

पहली बार ऐसा हुआ है कि आधिकारिक रूप से टीवी एंकरों को बहिष्कृत किया गया है। अगर देखा जाए तो बहिष्कार पहले भी होता रहा है जिनको हम सही मायनों में पत्रकार कह सकते हैं। जैसे रवीश कुमार और करण थापर हैं। उनका बहिष्कार तो पिछले आठ-दस साल से होता आया है। उसके बाद जो इंडिया अलायन्स द्वारा एंकरों को बहिष्कृत करना, बिलकुल सही फैसला है। इससे मीडिया की छवि खराब नहीं हुई, बल्कि मीडिया में आकर कुछ पत्रकारों ने उसकी छवि को खराब की है। खबरों में हम सुनते हैं मीडिया की हालत खराब है कोई मीडिया पर विश्वास नहीं करता। ये सब इसी कारण कि कुछ एंकरों ने मीडिया की छवि को धूमिल किया है। पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए ऐसे फैसले होने ही चाहिए।
संजय ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार

 

 

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