टोक्यो ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों के उत्साहजनक प्रदर्शन के बाद राजनेताओं में उन्हें बधाइयां देने की जो प्रतियोगिता दिखाई दी, उसने न सिर्फ खेलों के पीछे की सियासत को बेनकाब किया, बल्कि हकीकत बयां कर दी है कि खेलों के विकास को लेकर देश और प्रदेशों की अब तक की सरकारें कितनी उदासीन रही हैं।
कितना हास्यास्पद है कि पदक विजेता ओलंपिक खिलाड़ियों की उपलब्धि को भुनाने के लिए केंद्र से लेकर राज्यों तक हर राजनेता आगे रहे। अब उन्हें अपनी-अपनी ओर से इनाम राशि देने की घोषणाएं हो रही हैं। कॉरपोरेट और औद्योगिक घराने भी उन्हें भुनाने आगे आ रहे हैं, लेकिन जनता के बीच से सवाल उठ रहे हैं कि आखिर ये तमाम लोग तब कहां थे जब खिलाड़ियों को विषम परिस्थितियों से जूझते हुए ओलंपिक की तैयारियां करनी पड़ रही थी। आज हकीकत सामने आ रही है कि इस देश के खिलाड़ियों ने किस तंगहाली या विषम परिस्थितियों में ओलंपिक में जाने और वहां देश के लिए जीतने का जज्बा दिखाया।

ओलंपिक में पदक जीतने वाले या ओलंपिक तक पहुंचने वाले भारतीय खिलाड़ियों ने वास्तव में उन तमाम प्रतिभाओं को भी रोशनी दिखाई है जो आज भी अभावों में रहते हुए खेल के क्षेत्र में विशेष योगदान देना चाहते हैं। देश के तमाम राज्यों में खेल प्रतिभाओं के लिए न पर्याप्त स्टेडियम हैं, न खेल सामग्री है और न ही कोच। पर्वतीय अंचलों में मैदान न होने पर बच्चे खेतों में खेलते हैं। आजादी के दशकों बाद भी यह स्थिति है, ऐसे में देश के लोग तरस जाते हैं कि अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत कब बेहतर प्रदर्शन करेगा। खेलों के विकास की सही नीति कब देश में बन सकेगी? हाालंकि कोई भी क्षेत्र हो बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता। पर वो दखल एक सार्थक दिशा और प्रबंधन के स्तरीय मूल्यों को ध्यान में रखकर किए जाएं।
विडंबना ही है कि भारत में तमाम खेलों को उपेक्षित करते हुए खेल जगत को सिर्फ एक ही कूंची से रंगा गया ‘क्रिकेट’। क्रिकेट का भगवान, क्रिकेट की पवित्र भूमि, क्रिकेट का मसीहा, क्रिकेट का बादशाह। ये वो अलंकृत शब्द हैं जिन्होंने बुद्धिजीवियों को यह बहस चलाने पर मजबूर कर दिया कि हमारे देश का राष्ट्रीय खेल ‘हॉकी’ है, उसकी ओर भी ध्यान दिया जाए।
दरअसल यहां एक परम्परा है कि किसी एक को ही व्यक्ति पूजन तर्ज पर केंद्रित कर महिमामंडित किया जाता है। लेकिन मूल में यह है कि सभी खेल महत्वपूर्ण हैं, क्रिकेट का खिलाड़ी जितनी मेहनत करता है उतना अन्य खेल का खिलाड़ी भी।
कहते हैं कोई भी खिलाड़ी खेल से बड़ा नहीं होता। लेकिन खिलाड़ी तो हर जगह हैं। ताजा उदाहरण यह है कि उत्तर प्रदेश में हजारों खेल शिक्षकों की बहाली कई वर्षों से लंबित है। इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के समय बजट के अभाव का रोना लगभग हर राज्य रो रहा है।
अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले रहे किसी एथलीट के लिए सवा सौ करोड़ देशवासियों का समर्थन होने से बड़ा सम्मान भला क्या हो सकता है। लेकिन उनके मेडल जीतने के बाद जो करोड़ों की बोली लगती है वैसा ही उत्साह यदि खिलाड़ियों के प्रशिक्षण पर खर्चें को लेकर दिखाया जाए तो संभवतः एक दिन देश ओलंपिक की तालिका में शीर्ष पर होगा।
किसी भी एथलीट के लिए तिरंगे के नीचे भाग लेना ही बड़े गौरव की बात होती है। अगर वह बेहतर प्रदर्शन से पदक जीतता है तो इससे बड़ा सुकून क्या होगा कि पूरी दुनिया के सामने उसके देश का राष्ट्रगान गाया जा रहा है और पूरा देश उसे सर आंखों पर बिठाकर देख रहा है। लेकिन राजनीतिक खिलाड़ियों का क्या कहना। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के जन्मदिवस पर दिए जाने वाले पुरस्कार में सियासत करने से बाज नहीं आाए। मेजर ध्यानचंद के नाम से पहले ही खेल का सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जाता है। एक वरिष्ठ खिलाड़ी के अनुसार, राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलना दुर्भाग्यपूर्ण है। ये अजीबो-गरीब तरह की राजनीति देश में हो रही है। राजीव गांधी ने देश में खेल के लिए बजट बढ़ाया था, मोदी सरकार ने खेल का बजट घटाया है।
खेलों के लिए आवंटित बजट
आम बजट में केंद्र सरकार ने अगले वित्त वर्ष 2021-22 के लिए खेलों के लिए 2,596.14 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया जो कि पिछले वित्त वर्ष में आवंटित बजट से 8.16 प्रतिशत या 230.78 करोड़ रुपए कम है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) को 660.41 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया गया है। पिछले साल पेश बजट में साई को 500 करोड़ रुपए मिले थे।
दूसरी ओर, खेल मंत्रालय का प्रमुख आयोजन-खेलो इंडिया के लिए 2020-21 में आवंटित 890.42 करोड़ रुपए की तुलना में इस साल 657.71 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ है। राष्ट्रीय खेल महासंघों (एनएसएफ) को सरकार से मिलने वाली सहायता राशि में हालांकि इजाफा हुआ है। इस साल एनएसएफ का बजट 280 करोड़ रुपए है जबकि पिछले वित्त वर्ष यह 245 करोड़ रुपए था।
स्टेडियम के रख-रखाव का घटा बजट
2010 में भारत में हुए राष्ट्रमंडल खेलों के लिए उपयोग में लाए गए स्टेडियमों के नवीनीकरण और रख-रखाव के लिए आवंटित बजट को भी घटा दिया गया है। बीते वित्त वर्ष में इस मद के लिए 66 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे, जबकि इसे इस साल घटाकर 30 करोड़ रुपए कर दिया गया है।
2010 में भारत में हुए राष्ट्रमंडल खेलों के लिए उपयोग में लाए गए स्टेडियमों के नवीनीकरण और रख-रखाव के लिए आवंटित बजट को भी घटा दिया गया है। बीते वित्त वर्ष में इस मदद के लिए 66 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जबकि इसे इस साल घटाकर 30 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण के दौरान आस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेट टीम की ऐतिहासिक टेस्ट जीत सीरीज की तारीफ करते हुए इसे ‘बहुत शानदार’ करार दिया।
सीतारमण ने कहा, ‘मैं मदद तो नहीं कर सकती, लेकिन आस्ट्रेलिया में टीम इंडिया की हालिया शानदार सफलता के बाद एक क्रिकेट प्रेमी राष्ट्र के रूप में महसूस की गई खुशी को याद कर सकती हूं। टीम इंडिया की ऑस्ट्रेलिया में शानदार सफलता हमें भारत के लोगों की अंतर्निहित ताकत की याद दिलाती है।’
पर अंतर्निहित ताकत उस वक्त कहां थी जब राष्ट्रीय हॉकी टीम को केंद्र सरकार ने स्पॉन्सर नहीं किया। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने यदि हॉकी को स्पॉन्सर न किया होता, तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महिला हॉकी टीम के शानदार प्रदर्शन पर उन्हें सार्वजनिक बधाई दे पाते!
मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, ‘शुरुआत में पिछले साल के बजट में खेलों को 2826.92 करोड़ रुपये दिए गए थे। जो बाद में घटाकर 1800.15 करोड़ कर दिए गए क्योंकि कोरोना महामारी के कारण खेल हो ही नहीं रहे थे। बुनियादी ढांचा बेहतर करने की दिशा में भी कोई काम नहीं हो सका।’
इस साल टोक्यो ओलंपिक का आयोजन हुआ। खेलों के लिहाज से यह साल अहम रहा, भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा, पूरे 6 मेडल के साथ। ओलंपिक का आयोजन बीते साल ही होना था, लेकिन कोरोना महामारी के कारण इसे इस साल तक के लिए टाल दिया गया था। पर सवाल यही है कि खिलाड़ी तो खेल, लेगा लेकिन राजनीतिक लोग खिलाड़ियों से खेलना कब बन्द करेंगे?