‘‘इटावा संसदीय सीट’’, एक समय था जब इस सीट पर सपा का एकाधिकार माना जाता था। मुलायम की मात्र एक रैली ही अपने प्रत्याशी के पक्ष में लहर बनाने के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। विगत लोकसभा चुनाव में सपा का तिलिस्म टूटा और मोदी लहर में बसपा से बगावत कर भाजपा में शामिल हुए अशोक दोहरे ने बाजी मारी। इस बार स्थिति बदली हुई है। अशोक दोहरे ने भाजपा से टिकट न मिलने पर कांग्रेस का दामन थामा है और इस बार वे भाजपा के खिलाफ ही कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। यहां से सपा के टिकट पर कमलेश कठेरिया मैदान में है। सपा के इस प्रत्याशी को बसपा का समर्थन है क्योंकि यूपी में इन दलों के बीच गठबन्धन हो चुका है। दूसरी ओर भाजपा ने इस बार राम शंकर कठेरिया को मैदान में उतारा है। राम शंकर कठेरिया इससे पूर्व आगरा से भाजपा सांसद रहे हैं।
कुमार राकेश
वैसे तो यूपी की सभी सीटों पर होने वाली जंग दिलचस्प होगी लेकिन कुछ सीटें ऐसी भी हैं जिस पर खासतौर से नजरें जमी हुई हांेगी। ये सीटें पार्टी विशेष की प्रतिष्ठा तो तय करेंगी ही साथ ही प्रत्याशी की राजनीतिक हैसियत से भी परिचय करवायेंगी। ऐसी सीटों में एक सीट है इटावा की। मालूम हो यह क्षेत्र समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता है लेकिन विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा इस गढ़ में सेंध लगाने में सफल हुई थी। समय के साथ पार्टियों के प्रति आस्था रखने वाले अशोक दोहरे को भाजपा के टिकट पर विजय प्राप्त हुई थी लेकिन भाजपाई हैं कि दोहरे की सफलता को उनके राजनीतिक कद से नहीं नापते। भाजपाई कहते हैं कि अशोक दोहरे को यदि मोदी लहर का लाभ न मिला होता तो उनकी जमानत जब्त हो जाती। ज्ञात हो अशोक दोहरे कट्टर दलित हितैषी हैं और दलितों की ही राजनीति करते आए हैं। यदि आंकड़ों की बात करें तो भाजपाइयों का दावा काफी हद तक सही भी है क्योंकि इटावा संसदीय क्षेत्र यादवों और पिछड़ी जातियों से भरपूर है। ये जातियां अब तक सपा को ही समर्थन करती आयी हैं। लेकिन इस बार का नजारा बदला हुआ है। अशोक दोहरे भाजपा से बगावत करके कांग्रेस की शरण में जा चुके हैं और कांग्रेस ने उन्हें इटावा संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी भी घोषित कर दिया है। कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरे अशोक दोहरे एक बार फिर से अपनी जीत दोहरा पाते हैं अथवा नहीं, ये तो इटावा की जनता तय करेगी लेकिन अशोक दोहरे के मैदान में उतरने से सपा-बसपा गठबन्धन प्रत्याशी कमलेश कठेरिया की मुश्किलें काफी बढ़ गयी हैं, ऐसा इसलिए कि भाजपा ने इस बार प्रोफेसर रामशंकर कठेरिया को मैदान में उतारा है। प्रो. रामशंकर कठेरिया पहली बार समाजवादियों के गढ़ से अपना भाग्य आजमायेंगे। इससे पूर्व वे आगरा सुरक्षित सीट से भाजपा के टिकट पर सांसद चुने जा चुके हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इस बार इटावा सीट पर त्रिकोंणीय संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। यदि कांग्रेस अशोक दोहरे को मैदान में न उतारती तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता था कि गठबन्धन प्रत्याशी कमलेश कठेरिया को चुनौती देना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा लेकिन अब परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं। जाहिर है कि अशोक दोहरे बड़ी संख्या में वोट कांटेंगे, हो सकता है कि जीत और प्रतिष्ठा बचाने के लिए जी-जान से जुटे अशोक दोहरे को सफलता मिल भी जाए। रही बात सपा के टिकट पर मैदान में उतरे कमलेश कठेरिया की तो इस बार इटावा संसदीय क्षेत्र में कमलेश की स्थिति सर्वाधिक मजबूत नजर आ रही है। ऐसा इसलिए कि कमलेश गठबन्धन के प्रत्याशी हैं और सपा के साथ ही बसपा नेताओं की समर्थन भी उन्हें प्राप्त होगा। यदि प्रचार के दौरान किसी प्रकार की चूक न हुई और बसपा नेताओं ने दोहरी चाल न चली तो निश्चित तौर पर कमलेश कठेरिया की सीट को कोई नहीं छीन सकता। वैसे भी इटावा संसदीय सीट सपा के गढ़ के रूप में जानी जाती रही है। सपा ने विगत लोकसभा चुनाव में भले ही कोई कमाल न दिखाया हो और इस सीट पर कमल खिल गया हो लेकिन अभी भी यह सीट मुलायम परिवार के गढ़ के रूप में जानी जाती है। लहर भी कुछ ऐसी ही बनी हुई है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस सीट पर कांग्रेस के टिकट पर मैदान में नजर आ रहे पूर्व सांसद अशोक दोहरे का व्यक्तिगत जनाधार भी होगा और कांग्रेस पार्टी के नाम पर भी वोट पडे़गा, बात यदि नुकसान की करें तो अशोक दोहरे से जो नुकसान होने वाला है वह नुकसान भाजपा प्रत्याशी राम शंकर कठेरिया को होगा। ऐसा इसलिए कि इस बार इटावा में मोदी का मैजिक नहीं बल्कि गठबन्धन का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। ऐसा इसलिए कि सपा-बसपा गठबन्धन प्रमुखों ने एक शब्द अपने कार्यकर्ताओं के कानों में फूंका है। वह शब्द है गठबन्धन की प्रतिष्ठा का। जाहिर है यदि सपा-बसपा गठबन्धन के कार्यकर्ताओं ने इस शब्द के अर्थ समझ लिए होंगे तो निश्चित तौर पर गठबन्धन की आंधी के आगे बड़े से बड़ा वृक्ष टिकने वाला नहीं।
भाजपा प्रत्याशी प्रो. राम शंकर कठेरिया ने आरएसएस संघ प्रचारक के रूप में अपना राजनीतिक कैरियर शुरु किया था। वे प्रथम बार भाजपा के जिलाध्यक्ष बनाए गए थे। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में वे पहली बार आगरा सुरक्षित सीट से सांसद चुने गए और विगत लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने बाजी मारी और अपने करीबी प्रतिद्वंदी को भारी मतों के अंतर से हराया। इस बार परिस्थितियां बदली हुई हैं। रामशंकर कठेरिया की सीट बदल दी गयी है वे अब आगरा से नहीं बल्कि इटावा से मैदान में हैं। हालांकि राम शंकर कठेरिया इटावा जनपद के भरथना क्षेत्र से आते हैं। इस क्षेत्र में उनके दोस्त कम दुश्मन ज्यादा हैं। बताया जाता है कि भरथना के नगरिया सरावा गांव के रहने वाले प्रो. राम शंकर कठेरिया की गांव में दुश्मनी के चलते उनके माता-पिता की हत्या कर दी गयी थी। राम शंकर कठेरिया को शायद इस बात का भान हो चुका था कि इस बार भाजपा उन्हें इटावा से टिकट देगी, यही वजह है कि वे पिछले लगभग तीन वर्षों से लगातार इटावा में ही सक्रिय थे। उन्होंने अपने गांव में अपनी मां की स्मृति में शांति देवी पब्लिक स्कूल की स्थापना की। स्कूल के सहारे ही वे सामाजिक कार्य करते आ रहे हैं। हालांकि यह कहा जा रहा है कि सामाजिक कार्यों से जुडे़ रहने के कारण क्षेत्र में उनकी पहचान एक बार फिर से स्थापित हो चुकी है लेकिन उतनी नहीं जितनी कि उन्हें जीत का स्वाद चखने को मिल सके। ऐसा इसलिए कि इस बार पूर्व भाजपा सांसद अशोक दोहरे कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। ये वही अशोक दोहरे हैं जो वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर अजीतमल विधानसभा सीट से चुनाव जीत चुके हैं। अशोक दोहरे को मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया था। अशोक दोहरे के अवसरवादी चरित्र का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने वर्ष 2013 में उस वक्त बसपा का साथ छोड़ दिया था जिस वक्त बसपा को अपने साथियों की ज्यादा जरूरत थी। अशोक दोहरे ने वर्ष 2013 में भाजपा का दामन थाम लिया था और विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर इटावा से सांसद भी चुने गए। अशोक दोहरे भाजपा में आ तो गए और सांसद भी बन गए लेकिन अपना विश्वास वे पार्टी में नहीं बना पाए। भाजपाई उनके दलबदलू चरित्र से परिचित था लिहाजा उन्हें भाजपा में लिफ्ट नहीं मिली और सांसद बनने के बावजूद एक कोने में पडे़ रहे। भाजपाइयों की नजरअंदाजी से वे इतना दुखी थे के अनेक अवसरों पर उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक के खिलाफ आवाज बुलन्द करनी शुरु कर दी थी। तभी से उन्हें इस बात का अहसास हो चला था कि इस बार भाजपा उन्हें टिकट देने वाली नहीं। अशोक दोहरे ने वक्त की नजाकत को पहले ही भांप लिया था, शायद यही वजह है कि भाजपा से टिकट को लेकर चर्चा होती उससे पहले ही उन्होंने भाजपा से किनारा कर लिया और सूबे में प्रियंका गांधी के आने से कांग्रेस की लहर को देखकर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। कांग्रेस ने उपहारस्वरूप उन्हें इटावा से ही टिकट भी दे दिया।
औरैया जनपद के रमपुरा गांव के रहने वाले अशोक दोहरे अजीतमल से ग्राम पंचायत सेक्रेटरी भी रह चुके हैं। इटावा संसदीय क्षेत्र के कुछ इलाकों में इनकी छवि बरकरार है लेकिन शेष इटावा इनके पक्ष में नजर नहीं आती। स्पष्ट है कि अशोक दोहरे को अपनी जीत का क्रम बनाए रखने के लिए मेहनत करनी होगी। अशोक दोहरे की बगावत से सर्वाधिक नुकसान यदि किसी को होने वाला है तो वह भाजपा है क्योंकि अशोक दोहरे अपनी जनसभा में भाजपा के दोहरे चरित्र का खूब बखान कर रहे हैं। अशोक दोहरे के इस कृत्य से जहां एक ओर भाजपाइयों की पेशानी पर बल हैं तो दूसरी और सपा-बसपा गठबन्धन प्रत्याशी की बांछे खिली हुई हैं। सपा-बसपा गठबन्धन प्रत्याशी कमलेश कठारिया अभी से अपनी जीत सुनिश्चित कर चुके हैं।
कमलेश कठेरिया के पिता प्रेमदास कठेरिया जिला पंचायत अध्यक्ष और वर्ष 2009 से 2014 तक इटावा लोकसभा से सांसद रहे हैं। कमलेश कठेरिया ने 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के टिकट पर भरथना से चुनाव लड़ा था। उन्हें 81 हजार के करीब वोट मिले थे। वे महज 1700 वोटों से चुनाव हारे थे। देखा जाए तो कमलेश कठेरिया को गठबन्धन का लाभ तो मिलेगा ही साथ ही उनके पिता प्रेमदास की सियासी जमीन का लाभ भी मिलेगा। कमलेश कठेरिया की पत्नी पूजा कठेरिया मौजूदा समय में जिला पंचायत सदस्य भी हैं। देखा जाए तो इस बार इटावा संसदीय क्षेत्र में गठबन्धन की तरफ से सपा प्रत्याशी कमलेश कठेरिया की स्थिति भाजपा प्रत्याशी राम शंकर कठेरिया से कहीं अधिक मजबूत स्थिति में है।
इसके बावजूद कहा जा रहा है कि कमलेश कठेरिया की जीत काफी हद तक बसपा के वोट बैंक पर निर्भर करती है। यदि बसपा का वोट बैंक अपने लक्ष्य से थोड़ा भी भटकता है तो निश्चित तौर पर कमलेश कठेरिया को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।
वैसे तो सपा से बाहर किए गए शिवपाल की पार्टी प्रसपा से शंभुनाथ दोहरे को मैदान में उतारा गया है लेकिन उनकी मौजूदगी सिर्फ वोटकटवा तक ही सीमित है। ये वही शंभुनाथ हैं जो कभी बसपा में हुआ करते थे। लगभग 55 वर्षीय शंभूनाथ पेशे से ठेकेदार हैं। रही बात इटावा संसदीय क्षेत्र में इनके जनाधार की तो उन्हें वही चंद वोट नसीब होंगे जो शिवपाल यादव ने अपनी इमेज से तैयार किए हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो इटावा संसदीय सीट रोचक होने के साथ ही पार्टियों और प्रत्याशियों के दिलों की धड़कनों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त है।