इसे सपा-प्रसपा की मजबूरी कहें या फिर अवसरवादिता। समय की मांग यही है कि सपा के टूटे हिस्सों को समय रहते एक बार फिर से जुड़ जाना चाहिए। यह बात सपा प्रमुख अखिलेश यादव और प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव के साथ ही सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी जानते हैं। जिन दिनों सपा प्रमुख अस्पताल में अपना इलाज करवा रहे थे उन्हीं दिनों मुलायम ने अखिलेश और शिवपाल यादव के बीच की दूरियों को कम करने की सलाह दी। कहते हैं, जब मुसीबत से बाहर निकलने का कोई रास्ता नजर न आए तो ऐसे में दिव्य ज्ञान स्वतः स्फुटित हो जाता है। मौजूदा समय में कुछ ऐसा ही हाल सपा और प्रसपा का है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ धोबी पछाड़ दांव खेला तो अखिलेश यादव के चक्षु नैन खुले, साथ ही सपा प्रमुख से मात्र भीष्म पितामह सरीखे बनकर रह गए मुलायम सिंह यादव को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। हालांकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव पश्चात ही मुलायम के कहने पर अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल यादव से समझौता करने के लिए पूरी तरह से तैयार बैठे थे लेकिन अपने बडे़ भाई मुलायम से राजनीति का ककहरा सीखने वाले शिवपाल इतनी जल्दी मानने को तैयार नहीं थे।
ऐसा इसलिए ताकि राजनीति के खेल में नौसिखिए अखिलेश को ठोकर खाकर सीखने की कला प्राप्त हो जाए। हुआ भी कुछ ऐसा ही। सपा और प्रसपा के मौजूदा हालात न तो राजनीति के धुरंधरों से छिपे हैं और न ही प्रदेश की राजनीति में रूचि रखने वालों से। सपा-प्रसपा कार्यकर्ता भी अब ये मान बैठे हैं कि यदि चाचा-भतीजे ने समय रहते दूरियां कम नहीं की तो निश्चित तौर पर यूपी की राजनीति में टिके रहने के लिए न तो सपा के पास जनाधार रहेगा और पर ही प्रसपा को सांस लेने के लिए वोट बैंक।
हाल ही में जब सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव अस्वस्थ होकर अस्पताल में भर्ती हुए तो पार्टी नेताओं के बीच उनके अस्वस्थता को लेकर कई तरह की अफवाहें उड़ीं। ऐसे में मोर्चा संभाला अखिलेश के साथ-साथ उनके चाचा शिवपाल ने। दोनों एक साथ अस्पताल में मुलायम के स्वास्थ्य की देखरेख करते रहे। यही वह मौका था जब मुलायम ने अपने राजनीतिक अनुभव का रसास्वादन चाचा-भतीजे को कराया। मौका भी था और दस्तूर भी। सपा के एक नेता की मानें तो मुलायम ने जैसे ही दोनों के बीच की दीवार को गिराकर सपा को एक बार फिर से मजबूत करने का मंत्र दिया, दोनों एक स्वर में राजी हो गए। अब कहा जा रहा है कि जल्द ही चाचा-भतीजा एक साथ मिलकर सपा के किले को एक बार फिर से खड़ा करने में कामयाब होंगे।
कहा तो ये भी जा रहा है कि मुलायम के निर्देश पर अखिलेश यादव ने भी अपनी हठ छोड़कर अपने चाचा शिवपाल को पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने की बात कही है। सच तो ये यह है कि यदि शिवपाल ने सपा में वापसी की तो निश्चित तौर पर उनका कद अखिलेश यादव से कमतर नहीं होगा। हाल ही में अनेक अवसरों पर चाचा-भतीजे की मुलाकात के दौरान अखिलेश यादव का अपने चाचा का चरण स्पर्श राजनीति के गलियारे में नए संकेत दे रहा है। इस खबर के बाद से सपा-प्रसपा नेताओं को भी अपना भविष्य एक बार फिर से चमकता हुआ नजर आने लगा है। कोरोना महामारी के दौरान दोनों ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ता मिलकर आम जनता के बीच जा रहे हैं और कोरोना से प्रभावित लोगों को हर सम्भव मदद करने का भरोसा दिला रहे हैं।
अन्दरखाने से मिली जानकारी के मुताबिक वर्ष 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व ही प्रसपा का सपा में विलय हो सकता है, वह भी तमाम शर्तों के साथ। कहा जा रहा है कि अखिलेश इसके लिए पूरी तरह से तैयार बैठे हैं।
मरता क्या न करता वाली स्थिति है। यदि अभी भी समय रहते सपा के टुकडे़ एक बार फिर से नहीं मिले तो निश्चित तौर पर सपा को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा रहने के लिए किसी चमत्कार का सहारा लेना पडे़गा। रही बात दूसरे दलों के साथ समझौता करके भाजपा को चुनौती देने की तो सपा के अनुभव काफी कसैले रहे हैं लिहाजा इस बार वह किसी दल से समझौता नहीं बल्कि अपनी शर्तों पर छोटे दलों को अपने साथ चलने पर विवश कर सकती है।
बाॅक्स पूरा देश कोरोना महामारी के कहर से कराह रहा है लेकिन राजनीति के धुरंधर अभी भी दांव-पेंच में हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति भी इससे अछूती नहीं। हालांकि यूपी विधानसभा चुनाव दो वर्ष बाद वर्ष 2022 में होने हैं लेकिन यूपी की राजनीति में दोबारा अपने पांव जमाने की जुगत में जुटे कुछ राजनीतिक दल मीडिया से दूरी बनाकर पर्दे के पीछे रणनीति तैयार कर रहे हैं। पर्दे के पीछे इसलिए ताकि सत्ताधारी दल विपक्ष की इन तैयारियों को आम जनता के बीच भुनाने में कामयाब न हो जाए। विपक्ष को भय इस बात का है कि यदि कोरोना काल में राजनीति के दांव-पेंच की जानकारी आम जनता तक फैल गयी तो निश्चित तौर पर आम जनता का विपक्ष पर से भरोसा उठा जायेगा।