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प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति को समझने वाले भलीभांति जानते हैं कि वे कभी भी दबाव में आकर कोई फैसला नहीं लेते। इसलिए तीन कृषि कानूनों की वापसी का फैसला लेने को मजबूर हुए प्रधानमंत्री दरअसल इस एक्शन के जरिए 2024 की राजनीति को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें समझ में आ चुका है कि अब न तो उनका मैजिक पहले समान बना हुआ है, न ही धार्मिक धुव्रीकरण के जरिए इस बार मतदाता का मन जीता जा सकता है। 2024 के चुनाव असल मुद्दों पर लड़े जायेंगे। मोदी शासन के दस सालों का लेखा- जोखा जनता परखेगी और फिर वोट डालेगी। लोकसभा की 543 सीटों में से गैर भाजपा शासित राज्यों की हिस्सेदारी 225 सीटों की है। इनमें महाराष्ट्र (48), पश्चिम बंगाल (42), तमिलनाडु (39), आंध्र प्रदेश (25), तेलंगाना (17), केरल (20), ओडिशा (21) और पंजाब (13) शामिल हैं। 318 सीटों में भाजपा पिछले चुनावों की तरह परफॉर्म करने की स्थिति में बची नहीं है। 2022 में इन 318 सीटों में से 128 सीटों वाले राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, गोवा, मणिपुर, हिमाचल और पंजाब में विधानसभा चुनाव होने है। इन राज्यों में भाजपा की स्थिति किसान आंदोलन के चलते खासी कमजोर हो चली है। खासकर उत्तर प्रदेश में हालात बेहद विकट हैं।

लोकसभा में 80 सांसद भेजने वाली उत्तर प्रदेश में भाजपा को 62 सीटें मिली थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 17 सीटों में से पार्टी को 14 सीटें गत् लोकसभा चुनाव में मिली थी। इस बार यहां पार्टी का सूपड़ा साफ होने की पूरी संभावना है। जाट बाहुल्य इस इलाके में राष्ट्रीय लोकदल और सपा का समझौता भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत ला सकता है। यहां का किसान भाजपा से दूर हो चला है। तीन कृषि कानूनों पर सरकार बहादुर का यूटर्न इसी नाराजगी को कम करने के लिए उठाया गया एक ऐसा कदम है जिसका खास लाभ भाजपा को मिलता हाल-फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। किसान अब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानून बनाए जाने, आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के परिजनों को उचित मुआवजा दिए जाने, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा की मोदी कैबिनेट से बर्खास्तगी और लखीमपुर खीरी कांड में उनकी भूमिका के चलते निष्पक्ष जांच की मांग कर रहे हैं।

यह स्पष्ट हो चुका है कि किसान अभी राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने वाले हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस समस्या की काट तलशने में जुटे हैं। यदि वे किसानों को समझा पाने में सफल नहीं होते हैं तो उत्तर प्रदेश छोड़िए, दिल्ली का तख्ता पलट सकता है। भले ही गोदी कहलाया जाने वाला मुख्यधारा का मीडिया लाख प्रचार करे, उत्तर प्रदेश सरकार की विकास योजनाएं, प्रदेश को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के दावे, ग्रेटर नोएडा में विश्व का चौथा बड़ा एयरपोर्ट, पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे, इत्यादि से जनता का मन बदलता नजर नहीं आ रहा है।

पांच बरस पहले उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सपा सरकार ने राज्य को नोएडा-लखनऊ के मध्य शानदार एक्सप्रेस-वे का तोहफा दिया था। निश्चित ही मात्र 22 महीनों में तैयार यह एक्सप्रेस-वे अखिलेश सरकार की बड़ी उपलब्धि थी। जनता लेकिन तब तक भाजपा को वोट देने का मन बना चुकी थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव की सभाओं में उमड़ रहा जनसैलाब इस बार भी जनता के मन बना लेने की कहानी कहता नजर आ रहा है। अब पीएम मोदी और भाजपा के पास सीमित विकल्प बचे हैं। पहला विकल्प वे आजमा चुके हैं। कृषि कानून वापस लिए जा रहे हैं। अगला विकल्प किसानों की बकाया मांगों को पूरा करने का बचा है। फसलों पर एमएसपी लागू करने संबंधी कानून यदि केंद्र बनाने को तैयार होता है तो उसे कॉरपोरेट सेक्टर की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई के चलते यह तय है कि कई मुद्दे पर अब तक सर्व-शक्तिशाली और छठी पीएम की छवि बना चुके पीएम को झुकना पड़ सकता है। ऐसा यदि नहीं हुआ तो 2024 में सत्ता खोने का खतरा भाजपा के सामने मुंह उठाए खड़ा है। और यदि हुआ तो भी जीत की शर्तिया गारंटी नहीं है।

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