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‘छोटी सरकार, बड़े दांव’

डेढ़ दशक से दिल्ली एमसीडी पर काबिज भाजपा वापसी की उम्मीद में है तो वहीं पिछले 8 सालों से दिल्ली सरकार में काबिज आम आदमी पार्टी बीजेपी के इस विजय रथ को रोकना चाहती है, जबकि कांग्रेस अपनी खोई जमीन तलाशने में जुटी है। इस चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए तीनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने सियासी दांव चल दिए हैं। कांग्रेस ने अपने सियासी आधार को वापस पाने के लिए सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं तो आम आदमी पार्टी भी अपनी पकड़ बनाए रखना चाहती है। वहीं भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों का प्रयोग किया है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव में मुसलमानों का भरोसा कौन जीतता है

दिल्ली नगर निगम चुनावों की घोषणा हो गई है। एमसीडी के एकीकरण के बाद होने वाले इस चुनाव में राज्य में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलेगा। एमसीडी का चुनाव इतना अहम होता है कि इस पर कब्जा जमाने के लिए सभी दल पूरी ताकत लगा देते हैं। हजारों करोड़ रुपए के बजट वाले एमसीडी के पास कई सारी शक्तियां भी होती हैं, जिस पर हर दल कब्जा करना चाहता है। दिल्ली नगर निगम चुनाव निगमों के एकीकरण के बाद इस बार बिल्कुल अलग हो गया है। पहले नगर निगम तीन क्षेत्रों यानी ईस्ट-नॉर्थ और साउथ दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में बंटी हुई थी। इसमें नगर निगम के कुल 272 वार्ड थे, लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार ने इस साल दिल्ली की तीनों नगर निगमों का एकीकरण कर दिया है, जिसकी वजह से सीटें घटकर 250 हो गई हैं। इससे पहले दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने साल 2011 में नगर निगम संशोधन विधेयक पारित किया था। इसके तहत नगर निगम को तीन भागों में बांटा दिया था, अब एकीकरण के बाद दिल्ली नगर निगम का एक ही मेयर होगा। निगम के सभी 250 सीटों पर 4 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे। 7 दिसंबर को नतीजे आने हैं।

पिछले डेढ़ दशक से एमसीडी पर काबिज भाजपा वापसी की उम्मीद में है तो वहीं पिछले 8 सालों से दिल्ली सरकार पर काबिज आम आदमी पार्टी इस कब्जे को तोड़ना चाहती है, जबकि कांग्रेस अपनी खोई हुई जमीन तलाशने में लगी हुई है। इस चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए तीनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने सियासी दांव चले हैं। कांग्रेस ने अपने सियासी आधार को वापस पाने के लिए सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं तो आम आदमी पार्टी भी अपनी पकड़ को बनाए रखना चाहती है। वहीं भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों का प्रयोग किया है। दिल्ली में मुसलमान लंबे समय तक कांग्रेस को वोट करते रहे हैं, तो भाजपा भी उनके लिए अछूत नहीं रही है। भाजपा के टिकट पर दिल्ली में मुस्लिम पार्षद ही नहीं बल्कि लोकसभा भी जीते हैं। अन्ना आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन किया तो मुस्लिमों ने कांग्रेस का मोह छोड़कर उनके साथ हो गए। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नगर निगम चुनाव में मुसलमानों का भरोसा कौन जीतता है।

गौरतलब है कि दिल्ली में 12 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं, जो दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 8 विधानसभा और नगर निगम की 250 में से करीब 50 सीटों पर मुस्लिम मतदाता अहम भूमिका निभाते हैं। बल्लीमारान, सीलमपुर, ओखला, मुस्तफाबाद, चांदनी चौक, मटिया महल, बाबरपुर, दिलशाद गार्डन और किराड़ी मुस्लिम बहुल इलाके हैं। इन क्षेत्रों की पार्षद सीटों पर 40 से 90 फीसदी तक मुस्लिम मतदाता हैं। इसके अलावा त्रिलोकपुरी और सीमापुरी इलाके में भी मुस्लिम मतदाता काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसलिए कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव में सबसे ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिए हैं तो भाजपा ने सबसे कम मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। कांग्रेस ने दिल्ली की राजनीति में वापसी करने का प्लान बनाया है। इसके लिए वह अपने पारंपरिक वोटबैंक को वापस पाने की कोशिश कर रही है। नगर निगम के कुल 250 वार्डों में से कांग्रेस ने 26 वार्डों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। इस तरह कांग्रेस ने 10 फीसदी से अधिक टिकट मुस्लिम समुदाय के नेताओं को दिए हैं। आम आदमी पार्टी ने तो 13 प्रत्याशी को ही चुनाव में उतारे हैं, जो सिर्फ पांच फीसदी है। वहीं, भाजपा ने दिल्ली के 4 मुस्लिम प्रत्याशी को चुनाव में उतारा है, लेकिन इन प्रत्याशी पर पसमांदा दांव भी चला है। मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने कुल 16 एमसीडी सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से 14 मुस्लिम और 2 दलित समाज से हैं।

मुस्लिम बनाम मुस्लिम की लड़ाई
दिल्ली नगर निगम चुनाव में मुस्लिम बहुल सीटों पर मुस्लिम बनाम मुस्लिम के बीच सियासी संग्राम हो रहा है, जिन 4 सीटों पर भाजपा ने मुस्लिम कैंडिडेट को उतारा है, उन्हीं सीटों पर कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम ने भी मुस्लिम प्रत्याशी पर ही दांव लगा रखा है। इसके अलावा एमसीडी की 9 सीटों पर कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम के मुस्लिम नेताओं के बीच फाइट है जबकि इन सीटों पर भाजपा से हिंदू समुदाय के नेता चुनाव मैदान में हैं। वहीं, 13 सीटों पर कांग्रेस के मुस्लिम कैंडिडेट की आम आदमी पार्टी और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हिंदू समुदाय के नेताओं से टक्कर है। साल 2017 के निगम चुनाव में मुस्लिम बहुल इलाकों में आम आदमी पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी। दिल्ली में 13 मुस्लिम पार्षद अलग-अलग पार्टी से जीतकर आए थे, जिनमें 8 मुस्लिम पार्षद आम आदमी पार्टी से जीते और कांग्रेस से 4 मुस्लिम पार्षद चुने गए थे। इसके अलावा 1 पार्षद बसपा के टिकट पर जीतकर आया था। इस तरह निगम चुनाव में मुस्लिमों की पहली पसंद आम आदमी पार्टी बनी थी और पिछले दो विधानसभा चुनाव से मुस्लिम इलाके में भी केजरीवाल का ही जादू चलता आ रहा है, लेकिन इस चुनाव में केजरीवाल को समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नागरिकता कानून के खिलाफ शाहीन बाग प्रोटेस्ट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय प्रोटेस्ट, दिल्ली दंगा आदि के दौरान जिस तरह से मुसलमानों के मुद्दों पर खामोश रहे थे। उसका नुकसान इस चुनाव में देखने को मिल सकता है। यहां तक कि गुजरात विधानसभा चुनाव में भी केजरीवाल बिल्किस बानो से जुड़े मुद्दे पर कोई टिप्पणी करने से बचे हैं जबकि कांग्रेस बिल्किस बानो के अपराधियों को दुबारा जेल के पीछे भेजने की मांग कर रही है, जिसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा। भाजपा की नजर पसमांदा मुस्लिम पर है, जिन्हें विकास के नाम पर जोड़ने की कोशिश कर रही है।

नगर निगम के पास 15 हजार करोड़ से ज्यादा का बजट दिल्ली नगर निगम के पास 15 हजार करोड़ से ज्यादा का बजट होता है। इसके अलावा दिल्ली सरकार से भी निगम के खर्चे के लिए बजट मिलता है। इस बजट के जरिए राजधानी में तमाम विकास कार्य किए जाते हैं। इसलिए इतने बड़े बजट वाले नगर निगम पर कब्जा करने की चाहत सभी राजनीतिक दलों की होती है। ऐसे में भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की मंशा नगर निगम पर अपना वर्चस्व बनाने की है। दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी के लिए भी नगर निगम पर काबिज होना अहम है, क्योंकि राज्य सरकार और नगर निगम के समन्वय से विकास कार्यों को बेहतर ढंग से किया जा सकता है, जो कि पिछले कुछ सालों से दिल्ली में होता हुआ दिख नहीं रहा है। भाजपा और ‘आप’ दोनों ही पार्टियों के बीच हमेशा से नगर निगम के कामों को लेकर टकराव दिखता रहा है।

पिछले दिनों ही कूड़े के पहाड़ को लेकर दोनों दलों के बीच जुबानी जंग देखने को मिली। इसके अलावा दिल्ली नगर निगम के पास कई ऐसे काम हैं जिसमें दिल्ली सरकार और नगर निगम साथ- साथ काम करती हैं। दिल्ली की नाले की सफाई से लेकर छोटे सड़के बनाना आदि काम करने पड़ते हैं। दिल्ली सरकार 60 फीट से अधिक चौड़ी सड़कों के मरम्मत का कार्य करती है जबकि इससे कम चौड़ी सड़कों का रख-रखाव नगर निगम द्वारा किया जाता है। दिल्ली में वाहन लाइसेंस देने का कार्य भी दोनों के द्वारा होता है। राज्य सरकार मोटराइज्ड वाहनों को लाइसेंस जारी करती है, जबकि नगर निगम द्वारा छोटे वाहनों जैसे रिक्शा, हाथ गाड़ी आदि को लाइसेंस दिया जाता है।

क्या करता है एमसीडी
एमसीडी के पास कई तरह के अधिकार होते हैं। राज्य में अस्पताल, डिस्पेंसरीज, पानी की सप्लाई, ड्रेनेज सिस्टम की देखभाल, बाजारों की देख-रेख करना। पार्कों का निर्माण करना और उसकी देखभाल का प्रबंध करना। सड़क और ओवर ब्रिज का निर्माण और मेंटेनेंस करना। कचरे के निस्तारण का प्रबंध। स्ट्रीट लाइट, प्राइमरी स्कूल, प्रॉपर्टी और प्रोफेशनल टैक्स कलेक्शन, टोल टैक्स कलेक्शन सिस्टम, श्मशान एवं जन्म और मृत्यु प्रमाणपत्र जैसे बेहद अहम काम एमसीडी के जरिए किए जाते हैं।

वोट बैंक के लिए बेहद अहम है एमसीडी
एमसीडी के जरिए कई ऐसे काम किए जाते हैं जो लंबे समय में सभी पार्टियों के वोट बैंक के लिए बेहद अहम होता है। सड़क निर्माण से लेकर स्कूल और टैक्स कलेक्शन आय का बड़ा स्रोत होता है। एमसीडी पर कब्जा करके राजनीतिक दल बड़ी आबादी के हितों के लिए काम कर सकती हैं। वैसे भी एमसीडी चुनाव एक तरह विधानसभा चुनाव की तैयारी होती है। सभी दल इन चुनावों के लिए पूरा जोर आजमाइश करते हैं।

राजनीतिक दलों के लिए क्यों अहम
‘आप’ के उदय से पहले बीजेपी-कांग्रेस के बीच एमसीडी चुनाव क्वार्टरफाइनल मुकाबले की तरह माना जाता था। क्योंकि इसके बाद पार्टियां विधानसभा चुनाव में जाती थीं और उसके बाद लोकसभा चुनाव होता था। पिछले दो चुनाव से ‘आप’ भी मजबूती से चुनाव में उतर रही है। ‘आप’ पिछले 8 साल से दिल्ली की सत्ता में काबिज है लेकिन उसका प्रदर्शन एमसीडी में अच्छा नहीं रहा है। बीजेपी डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से एमसीडी पर काबिज है।

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