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जयराम मंत्रिमडल में फेरबदल के संकेत

अगले साल यानी 2022 के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव होंगे। ऐसे में दोनों ही प्रदेशों में सत्तारूढ़ भाजपा एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को कम करने की रणनीति पर अभी से काम करती नजर आने लगी है। खासकर हिमाचल में पार्टी की स्थिति विशेषकर कमजोर है। हाल में सम्पन्न हुए एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर पार्टी की करारी हार के चलते पार्टी में खलबली मची हुई है। भाजपा सरकार के सत्ता में चार साल पूरे करने के साथ मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने संकेत दिए हैं कि वे जल्द ही गुजरात की तरह हिमाचल में भी कैबिनेट में फेरबदल कर सकते हैं। जयराम ठाकुर ने एक बयान में कहा कि ‘मैं सरकार के साथ-साथ भाजपा के संगठनात्मक ढांचे में बदलाव की जरूरत को स्वीकार करता हूं।’ मैं अपने मंत्रियों के प्रदर्शन से थोड़ा बहुत खुश हूं, लेकिन सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। फेरबदल पर कोई भी फैसला केंद्रीय नेतृत्व ही करेगा। उनके इस बयान के बाद राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गुजरात की तर्ज पर हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव से पहले बड़े बदलाव हो सकते हैं।

गौरतलब है कि 27 दिसंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा हिमाचल प्रदेश में जनसभा के अलावा चुनाव आयोग और हेल्थ मिनिस्ट्री के अधिकारियों के बीच विधानसभा चुनावों को लेकर अहम बैठक हुई। भाजपा ने राज्यों में मुख्यमंत्रियों को बदलकर संदेश दिया है कि जो काम नहीं करेगा, उसे जाना पड़ेगा। अब देखना है कि क्या भाजपा हिमाचल प्रदेश में भी गुजरात की भांति मुख्यमंत्री समेत समूचे मंत्रिमंडल को बदलने का दांव चलने जा रही है या फिर जयराम ठाकुर पर पार्टी आलाकमान का भरोसा बना रहेगा। राजनीति में चुनावी सफलता के लिए राजनीतिक पार्टियां हर दांव -पेंच आजमाने की कोशिशें करती हैं। भारतीय जनता पार्टी भी इन दिनों राज्यों में डैमेज कंट्रोल का दांव चल रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जहां कहीं भी पार्टी को लग रहा है कि सत्ताधारी नेतृत्व से खफा जनता का आक्रोश भविष्य में महंगा पड़ सकता है, वहां पार्टी मुख्यमंत्रियों को हटा रही है। बात सिर्फ किसी मुख्यमंत्री को हटाने की नहीं है, बल्कि इसमें यह भी ध्यान रखा जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों की दृष्टि से जातीय, क्षेत्रीय एवं धार्मिक समीकरणों को कैसे बेहतर ढंग से साधा जा सकता है। गुजरात का उदाहरण सबसे ताजा है वहां भाजपा को लगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में जनता उलटफेर कर सकती है, तो चुनाव से सवा साल पहले नेतृत्व बदल दिया गया।

दरअसल, भाजपा के रणनीतिकारों को अहसास है कि इससे पहले कि कि घाव नासूर बने, उसका समय रहते इलाज कर दिया जाए। अतीत के कटु अनुभव वे देख ले ही चुके हैं कि वर्ष 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड में भाजपा के भीतर रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग जोर पकड़ती रही। रघुबर दास के व्यवहार और कार्यशैली से आहत पार्टी के स्थानीय नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से शिकायतें की थीं। यहां तक कहा गया कि रघुबर के नेतृत्व में चुनाव में जाना खतरे से खाली नहीं होगा। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने इन शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए रघुबर दास के ही नेतृत्व में चुनाव में जाना पसंद किया। नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के चेहरे रहे रघुबर दास खुद पार्टी के बागी सरयू राय से तो हारे ही, भाजपा भी सत्ता गंवा बैठी। इस प्रकार पार्टी को स्थानीय नेताओं के सटीक फीडबैक को नजरअंदाज करना भारी पड़ा था।

झारखंड की चूक के बाद दूसरे किसी राज्य में खतरे की घंटी बजते ही पार्टी एक्शन मोड में आ जाती है। असम में जब सर्बानंद सोनोवाल सफल होते नहीं दिखे तो पार्टी ने अपेक्षाकृत लोकप्रिय और हार्डलाइनर माने जाने वाले हिमंता बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय किया। इसी तरह उत्तराखण्ड में स्थानीय नेताओं के फीडबैक के आधार पर भाजपा को यह भनक लग गई कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के चेहरे पर पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल नहीं कर सकती, तो आलाकमान ने बिना समय गंवाए उन्हें हटाने का निर्णय ले लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत को भी बहुत कम समय में ही हटना पड़ा। यह अलग बात है कि तीरथ सिंह रावत को बदलने का कारन संवैधानिक संकट बताया गया, लेकिन जानकार मानते हैं कि समीकरणों को साधना इसकी बड़ी वजह है।

जुलाई में कर्नाटक में भी नेतृत्व परिवर्तन हुआ। हालांकि यहां लोकप्रियता या परफार्मेस को आधार बनाने की जगह उम्र के पैमाने पर 78 वर्षीय बीएस येदियुरप्पा की विदाई की पटकथा पार्टी ने लिखी। अब हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाएं सियासी गलियारों से उठने लगी हैं। जानकार मानते हैं कि कहीं कोई धुआं तब ही उठता है जब वहां आग लगी हो। राज्यों के नेतृत्व परिवर्तन का एक बड़ा कारण यह भी है कि गृहमंत्री अमित शाह कई अवसरों पर कह चुके हैं कि जनता पॉलिटिक्स आफ परफार्मेस चाहती है। केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार आने के बाद इसका दौर शुरू हुआ है। चुनावी रैलियों के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘नामदार बनाम कामदार’ का नारा भी उछाल चुके हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की इन बातों से साफ संकेत मिलते रहे हैं कि केवल नाम के सहारे लंबी राजनीति नहीं चलने वाली, बल्कि परफार्मर यानी कामदार बनना होगा। मोदी-शाह की जोड़ी के पॉलिटिक्स ऑफ परफार्मेस के पैमाने पर विजय रूपाणी खरे नहीं उतर सके। उत्तराखण्ड में तो त्रिवेंद्र रावत के खिलाफ निरंतर जनता का आक्रोश फूटता रहा है। ऐसे में मुख्यमंत्रियों को बदलकर भाजपा ने डैमेज कंट्रोल का दांव चला है। अब देखना है कि राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में यह दांव कितना कारगर साबित हो पाता है।

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