- वरुण गांधी
लेखक लोकसभा के सांसद हैं
जब संसदीय प्रक्रियाओं में इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए अलग से समय दिए जाने की व्यवस्था बनाई जाती है तो विधायिका की गुणवत्ता में भी सुट्टार आता है और इससे सर्व सम्मति का वातावरण भी निर्मित होता है। भारत में ‘कृषि कानून किसान विधेयक (2021)’ को सिर्फ आठ मिनट में पारित कर दिया गया (तीन मिनट में लोकसभा से और 5 मिनट में राज्यसभा से)। इससे सांसदों का महत्व अप्रासंगिक सिद्ध हुआ और वे केवल संख्या बल प्रदर्शन का हिस्सा बनकर रह गए। आदर्श रूप में संसदीय परंपरा तभी विकसित और सशक्त होगी जब सांसदों को इस बात की छूट हो कि वे विवेचना अथवा चर्चा की प्रक्रिया में मुक्त भाव से भाग लें और अपने विवेक के अनुसार मत करें
वर्ष 2021 में भारतीय संसद के मानसून सत्र में लोकसभा ने कुल 18 बिलों को पारित किया जिसके लिए प्रत्येक कानून पर चर्चा हेतु लगभग 34 मिनट का समय खर्च किया गया। आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक (2021), जो भारत सरकार को रक्षा उद्योग की इकाइयों में हड़ताल, तालाबंदी पर प्रतिबंध लगाने और छंटनी करने हेतु अधिकार देता है, पर महज 12 मिनट की चर्चा की गई। जबकि ‘दिवाला और शोधन असमता संहिता (संशोधित) विधेयक, 2021’ पर केवल 5 मिनट की चर्चा हुई (पीआरएस इंडिया, 2021)। किसी अध्यादेश को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया। इसी क्रम में ध्वनि मत से विधेयक पारित करा लेना एक परंपरा मात्र से रूप में ही देखने को मिला जिसमें सांसद कभी-कभार ही अपने मतों को दर्ज कराने हेतु सदन में मौजूद रहे। इस बीच संसद की उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। 2022 में अंतिम सत्र में लोकसभा की उत्पादकता 129 प्रतिशत रही। लेकिन विधेयकों पर चर्चा का, बहस की परंपरा का लगातार क्षरण हुआ है तो सवाल यह उठता है कि क्या संसद मात्र एक डाक घर में तब्दील होता जा रहा है?
विधेयक, संशोधनों आदि पर विस्तृत विवेचना करना संसदीय लोकतंत्र की अद्वितीय विशेषता है। अमेरिका में सीनेटर रेड कुंज को वर्ष 2016 में ओबामा केयर नीति पर बोलने के लिए सीनेट ने 21 घंटे, 19 मिनट का समय दिया था। जब संसदीय प्रक्रियाओं में इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए अलग से समय दिए जाने की व्यवस्था बनाई जाती है तो विधायिका की गुणवत्ता में भी सुधार आता है और इससे सर्वसम्मति का वातावरण भी निर्मित होता है। जबकि भारत में ‘कृषि कानून किसान विधेयक’ (2021) को सिर्फ आठ मिनट में पारित कर दिया गया (तीन मिनट में लोकसभा से और 5 मिनट में राज्यसभा से) इससे सांसदों का महत्व अप्रासंगिक सिद्ध हुआ और वे केवल संख्या बल प्रदर्शन का हिस्सा बनकर रह गए।
हमारी संविधान सभा में संविधान बनाने को लेकर चर्चा का आरंभ दिसंबर, 1946 में हुआ और यह करीब 166 दिन तक चलकर जनवरी, 1950 में पूर्ण हुआ था। आदर्श रूप में संसदीय परंपरा तभी विकसित और सशक्त होगी जब सांसदों को इस बात की छूट हो कि वे विवेचना अथवा चर्चा की प्रक्रिया में मुक्त भाव से भाग लें और अपने विवेक के अनुसार मत करें। यहां इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि आवश्यक शोध कार्य हेतु सांसदों के पास पर्याप्त संसाधनों का भी अभाव बना रहता है। एक सांसद को संसदीय सहायक रखने के लिए 40,000 प्रतिमाह का भत्ता मिलता है जबकि इंग्लैंड में एक सांसद का औसत वेतन 84,144 पाउंड है। वर्ष 2021 में संसदीय सहायक रखने हेतु उन्हें 1,93,000-2,16,000 पाउंड प्रतिमाह का भत्ता प्रदान किया गया था।
संसदीय बहसों, चर्चाओं का स्तर गुणवत्तापूर्ण और प्रभावी बनाने के लिए सरकार को संसदीय शोध कार्यों से संबंधित अनुदान में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए। किसी भी संसदीय लोकतंत्र में निश्चित रूप से सरकार की जवाबदेही तय की जानी जरूरी है। वेस्टमिस्टर में ब्रिटिश प्रधानमंत्री प्रत्येक बुधवार को 12 से 12ः30 मध्याÐ में सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हैं। ये प्रश्न पटल पर प्रस्तुत या अप्रस्तुत पूरक प्रश्नों के मिश्रण भी हो सकते हैं। इस स्थिति में प्रधानमंत्री को कभी-कभी यह भी नहीं पता होता कि कैसा प्रश्न पूछा जाने वाला है। नतीजा वहां के टेलीविजन पर कठिन प्रश्नों के कमजोर उत्तर सुनने को मिलते हैं। इससे सरकार की असहजता भी प्रदर्शित होती है और सतर्क रहने की सीख मिलती है। कोविड-19 के दौरान लागू लॉकडाउन तक की असामान्य परिस्थितियों में भी ब्रिटेन में यह परंपरा जारी रही और सरकार की जिम्मेदारी तय करते हुए प्रधानमंत्री से वर्चुअल माध्यम से सवाल पूछे गए। भारत में शायद ही कभी इस परंपरा का निर्वहन किया गया है। यहां प्रधानमंत्री और मंत्री पहले से उपलब्ध कराए गए प्रश्नों का ही जवाब देते रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि सरकार की जिम्मेदारी तय करने में संसदीय समितियां भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अमेरिका में सीनेट और सदन की समितियों द्वारा कानूनों की बारीकी से छानबीन, सरकारी नियुक्तियों की संपुष्टि, अनुशासन संचालन और सुनवाई की प्रक्रिया जैसे कार्यों को संपादित किया जाता है। इंग्लैंड में वर्ष 2013 में विधायिका निर्माण की प्रक्रिया को बेहतर बनाने हेतु एक सार्वजनिक कार्यक्रम को डिजिटल प्रारूप में शुरू किया गया जिसके माध्यम से जनता को किसी भी नए कानून निर्माण की प्रक्रिया पर टिप्पणी करने और विचार प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया। इस अभिनव प्रयोग के माध्यम से 1000 व्यक्तिगत प्रतिभागियों की 1400 टिप्पणियों प्राप्त हुई।
भारत में दीर्घावधि विकास परियोजनाओं को संसदीय छानबीन/जांच के दायरे में कभी नहीं लाया गया। यहां एक वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत कर उसका अनुमोदन कराकर काम चला लिया जाता है। जहां कहीं भी दीर्घावधि विकास योजनाओं को निर्माण में संसदीय समितियों ने पहल की है, उनका सकारात्मक प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ है (उदाहरण के लिए वर्ष 2013 में टेलीकॉम लाइसेंस और टेलीकॉम मूल्यों के विवरण हेतु गठित संयुक्त संसदीय समिति 2013 एवं प्रतिभूति घोटालों के लिए 1993 में गठित समिति)। न्यूजीलैंड जैसे देश ने सभी विधेयकों की गहराई से छानबीन करने के लिए प्रवर समिति को सौंपने की अनिवार्य व्यवस्था का प्रावधान लागू कर रखा है।
हमारे यहां भी लंबे समय से कार्यरत विभिन्न विभागों से संबंधित स्थायी समितियां हैं जिन्हें विधयेकों की विवेचना का कार्य सौंपा जा सकता है। ऐसी समितियों को यह शक्ति प्रदान की जाए कि वे सार्वजनिक विचारों का संग्रहण प्रकाशित कर
सलाहकारों से परामर्श भी कर सके। ऐसी समितियों द्वारा तैयार प्रतिवेदनों को आवश्यक रूप से पढ़ा जाए और संसद में इन पर चर्चा हो। सांसदों द्वारा स्वेच्छा से सकारात्मक पहल करने की स्वतंत्रता संसदीय लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है। कभी-कभी यह प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में देखने को मिलती है। वर्ष 2019 तक इंग्लैंड की संसद ने 7 दफा और कनाडा ने 6 प्राइवेट मेंबर बिल पारित किए हैं।
भारत में अब तक केवल 14 प्राइवेट मेंबर बिल दोनों सदनों द्वारा पारित किए गए हैं। इसमें से 6 अकेले नेहरू जी के कार्यकाल में पारित हुए। ऐसे विधेयकों से सरकारों को अपनी त्रुटियां को सुधारने का अवसर मिलता है। मसलन ‘महिला और बाल संस्था लाइसेंस अधिनियम, 1956’ राजमाता कमलेंदु द्वारा लाया गया, जो महिलाओं और बच्चों की देखभाल संरक्षण, कल्याण हेतु गठित संस्थाओं के लाइसेंस से संबंधित था। दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन विधेयक (1953) रघुनाथ सिंह द्वारा लाया गया था जिसमें उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों को आदेशों को रोकने का निलंबित करने की शक्ति प्रदान करने की मांग की गयी थी। प्राइवेट मेंबर बिल को संसदीय सुनवाई का हिस्सा बनाने और इस पर मतदान करने के लिए एक आदर्श प्रक्रिया का भी निर्धारण किया जाना बेहद जरूरी है। वर्ष 1958 में फिरोज गांधी ने संसदीय कार्यवाही को कवर करने की मीडिया को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए एक प्राइवेट मेंबर बिल प्रस्तुत किया था। बाद में यह संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन एवं संरक्षण) अधिनियम, 1956 के रूप में संहिताबद्ध हुआ।
संसद के परिसर से बाहर योग्य सांसदों द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र में सशक्त परिवर्तन कर पाना बहुत कठिन कार्य होता जा रहा है। आप उदाहरण के लिए ‘एमपीलैंड’ स्कीम का नाम ले सकते हैं जो सांसदों को यह अधिकार देता है कि वे अपने क्षेत्र के विकास संबंधी गतिविधियों का चयन कर (जो अधिकतम 5 करोड़ तक की हो सकती है) स्थानीय जिला प्रशासन को इसकी संस्तुति भेज दें। भारत में कुल 6,38,000 गांव हैं, इस हिसाब से प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में करीब 1000 गांव हैं। यदि किसी सांसद को अपने 5 करोड़ के कोष से वितरण करना हो तो यह 15,000 प्रति गांव के रूप में निर्धारित होगा। 15,000 की राशि से तीन मीटर की कंक्रीट सड़क भी नहीं बनाई जा सकती। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि पिछले डेढ़ सालों से यह योजना निलंबित भी है, जिससे केंद्र सरकार 6,320 करोड़ की बचत हुई बताई जा रही है।
इसी बीच फिलीपींस ने अपने सभी सीनेटरों को स्मॉल स्केल इंफ्रांस्ट्रक्चर (लघु स्तरीय अवसंरचना) और सामुदायिक परियोजना के विकास हेतु प्राथमिकता विकास सहायता कोष से धन मुहैया कराना शुरू किया है। ऐसी योजनाओं से संसदीय क्षेत्र केंद्रित विशिष्ट विकास योजनाओं को गति मिली और इससे लोकतंत्र का ढांचा भी सशक्त हुआ। इससे उलट हमारे यहां ऐसी सांस्थानिक व्यवस्था की जा रही है जो चर्चाओं और बहसों को सीमित कर सांसदों द्वारा किए जाने वाले विकास कार्यों को अवरुद्ध कर सके। इस बात पर भी विचार करें कि लोकसभा के कुल 543 सीटों में से 250 का प्रतिनिधित्व खुद को किसान घोषित करने वाले राजनेता करते हैं और इन ‘किसानों’ में से सिर्फ कुछेक ने ही संसद में तीन कृषि कानूनों पर जारी चर्चा में अपनी आवाज बुलंद की।भविष्य के संकेत बहुत गंभीर और चिंताजनक हैं। भारत में एक सांसद औसतन 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। यह संख्या बोत्सवाना, स्लोवेनिया, एस्टोनिया और भूटान जैसे देशों की जनसंख्या से कहीं ज्यादा है। तुलनात्मक रूप से देखें तो इंग्लैंड में प्रत्येक सांसद सिर्फ 92,000 नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है जबकि अमेरिका के प्रतिनिधि सभा का सदस्य 7 लाख लोगों के लिए उतरदायी है।
25 लाख की बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधि बनकर कोई भी सांसद कभी भी समुचित तरीके से अपने क्षेत्र की जनाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। निश्चित रूप से वर्ष 2026 तक लोकसभा के संसदीय सीटों की संख्या 1000 तक पहुंच जाने की उम्मीद की जानी चाहिए। सही प्रतिनिधित्व की सुनिश्चितता तय करना लोकतंत्र का मूल जरूर है लेकिन सांसदों को सदन में बोलने का पयाप्त समय नहीं किया जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। आदर्श स्थिति की बात की जाए तो संसद और इसके सदस्यों का यह दायित्व है कि वह सरकार के उतरदायित्व की परख करते रहें। हमारी संसद को बदलते भारत की इच्छाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करने की नितांत आवश्यकता है। कार्य पालिका के आगे नतमस्तक होने के बजाय संसद को अपनी भूमिका ज्यादा सशक्त बनाने की जरूरत है। वास्तव में संसद को लोकतंत्र की परख का सच्चा केंद्र बनना
होगा।
(अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद मो. दानिश ने किया है)