भारतीय समाज में जैसे-जैसे स्वतंत्रता और आधुनिकता का विस्तार हो रहा है वैसे ही महिलाओं के प्रति संकीर्णता का भाव बढ़ रहा है। प्राचीन समाज ही नहीं आधुनिक समाज की दृष्टि से महिलाओं को आज भी वह सम्मान नहीं मिला है जिसकी वे हकदार हैं। पितृसत्तात्मक समाज में वे आज भी मात्र औरत हैं जिन्हें थोपी व गढ़ी-बुनी गई तथाकथित नैतिकता की चारदीवारी में कैद रखा जाता है। इसी मानसिकता का घातक परिणाम है कि महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, नैतिक व्यवहार, दहेज हत्या तथा यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट में यह सच सामने आया है जिसे खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया ने साझा किया है
प्राचीनकाल से भारत में नारी का समाज में पवित्र स्थान रहा है। भारतीय वेदों एवं पुराणों में महिला को देवी स्वरूप माना गया है। बावजूद इसके भारत में महिलाएं सबसे अधिक यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं। एक सर्वे के अनुसार भारत में महिलाएं बचपन से ही उत्पीड़न का शिकार बनती आई हैं। कई रिपोर्ट्स भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि महिलाएं घर से लेकर दफ्तर तक इस उत्पीड़न को झेलने के लिए विवश हैं। महिलाओं की खराब स्थिति को देखते हुए भारत सरकार द्वारा समय-समय पर कई निर्देश-कानून जारी किए जाते रहे हैं। महिलाओं को बेहतर जीवन मुहैया कराने के लिए कई गैर सरकारी संगठन भी कार्य कर रहे हैं। सरकार द्वारा उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए विशाखा गाइडलाइन्स, निर्भया फंड, डोमेस्टिक वोइलेंस एक्ट (2005), प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हर्रासमेंट एक्ट (पॉश एक्ट) जैसे कई संभव कदम उठाए गए हैं। फिर भी महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों का आंकड़ा कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस) के अनुसार देश की एक-तिहाई महिलाएं यौन हिंसा का सामना करती हैं। देश में लगभग 29.3 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा से जूझ रही हैं। वहीं, 18 से 49 वर्ष की आयु की 30 फीसदी महिलाओं ने बताया कि वह 15 वर्ष की आयु से शारीरिक हिंसा का सामना कर रही हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ मनसुख मांडविया द्वारा साझा की गई इस रिपोर्ट में सामने आया है कि शारीरिक या यौन हिंसा से पीड़ित महज 14 फीसदी महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने इसके बारे में बताया, अन्यथा अधिकतर महिलाएं अपने साथ हो रहे यौन उत्पीड़न के बारे में न ही बात करती हैं और न ही किसी को बताती हैं।
नवीनतम एनएचएफएस सर्वेक्षण में 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेश के 707 जिलों के 6.37 लाख परिवारों को शामिल किया गया है। वर्ष 2019-21 के दौरान कराए गए इस सर्वेक्षण में 7 लाख 24 हजार 115 महिलाओं और 1 लाख 1 हजार 839 पुरुषों ने हिस्सा लिया था। इस सर्वे में 18-49 वर्ष की 32 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने यौन और भावनात्मक वैवाहिक हिंसा का सामना किया है। वैवाहिक हिंसा में सबसे आम शारीरिक हिंसा (28 फीसदी) थी, जिसके बाद भावनात्मक हिंसा और यौन हिंसा के आंकड़े लिखे गए हैं।
इस सर्वे में महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के साथ होने वाली हिंसा के आंकड़े भी जारी किए गए हैं जिसमें महिलाओं की तुलना में पुरुष केवल 4 फीसदी घरेलू हिंसा का शिकार हुए हैं। महिलाओं के खिलाफ सबसे अधिक 48 फीसदी घरेलू हिंसा के मामले कर्नाटक में देखे गए हैं। इसके बाद बिहार, तेलंगाना, मणिपुर और तमिलनाडु का स्थान है। लक्षद्वीप में महिलाओं ने सबसे कम (2.1 फीसदी) घरेलू हिंसा का सामना किया है। इस सर्वे में यह भी सामने आया है कि, ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं (32 फीसदी) और शहरी क्षेत्रों (24 फीसदी) महिलाएं शारीरिक हिंसा का सामना करती हैं। साथ ही इस सर्वे में यह भी पाया गया है कि जिस तरह महिलाओं और पुरुषों में शिक्षा और धन का स्तर जितना बढ़ता है, हिंसा उतनी ही तेजी से घटती है।
सर्वेक्षण में कहा गया है कि स्कूली शिक्षा पूरी न करने वाली 40 फीसदी महिलाओं को शारीरिक हिंसा का सामना अधिक करना पड़ा, जबकि स्कूल गई केवल 18 फीसदी महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार हुई हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आर्थिक रूप से कमजोर 39 फीसदी और आर्थिक रूप से मजबूत 17 फीसदी औरतें शारीरिक हिंसा का निशाना बनी हैं। सर्वे में सामने आया एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा के 80 प्रतिशत से अधिक मामलों में उनके पति को अपराधी पाया गया है।
जिन पतियों ने स्कूली शिक्षा के 12 या अधिक वर्ष पूरे किए हैं, उनमें शारीरिक, यौन या भावनात्मक वैवाहिक हिंसा करने की संभावना उन लोगों की तुलना में आधी (21 फीसदी) होती है, जिन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली है। बताया गया है, पति के शराब के सेवन के स्तर के साथ शारीरिक या वैवाहिक यौन हिंसा का अनुभव बहुत भिन्न होता है। उन 23 प्रतिशत महिलाओं, जिन के पति शराब नहीं पीते हैं, की तुलना में अक्सर शराब पीने वाले पुरुषों की पत्नियों (70 फीसदी महिलाओं) ने शारीरिक या यौन हिंसा का सामना किया है। 40-49 आयु वर्ग की महिलाएं 18-19 उम्र वर्ग की महिलाओं की तुलना में अधिक हिंसा का शिकार बनती हैं।
महिला अत्याचार के खिलाफ कड़े कानून
घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005
कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों अर्थात् हत्या, आत्महत्या हेतु उकसाना, दहेज हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि को रोकने का प्रावधान है। उल्लंघन की स्थिति में गिरफ्तारी एवं न्यायिक दंड व्यवस्था का उल्लेख इसमें किया गया है। इसके अतिरिक्त महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के भी अनेक प्रयास किए गए हैं ताकि वे अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचार का मुकाबला कर सकें। जैसे पुरुष एवं स्त्री को समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव से सुरक्षा और महिला कर्मचारियों के लिए पृथक शौचालयों व स्नानगृहों की व्यवस्था की अनिवार्यता इत्यादि।
सख्त कानूनों के बाद भी अपराधों में कमी क्यों नहीं
न्याय में देरीः भारत में बीते एक दशक में यौन उत्पीड़न और बलात्कार के जितने भी मामले दर्ज हुए हैं उनमें केवल 12 से 20 फीसदी मामलों में सुनवाई पूरी हो पाई। दर्ज मामलों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन सजा की दर नहीं बढ़ रही है।
खत्म होता सजा का भयः उत्पीड़न से संबंधित मामलों में न्याय में देरी होने के कारण ही गुनहगारों में सजा का भय खत्म होता जा रहा है। कानून में मौत की सजा के प्रावधान होने के बाद भी बलात्कार की घटनाओ में कोई कमी नहीं दिख रही है। अश्लील सामग्री दुनिया भर के समाज शास्त्री, राजनेता, कानून विद और प्रशासनिक अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि बढ़ते यौन अपराधों का यह एक बड़ा कारण है। टेलीकॉम कंपनियों द्वारा सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जा रहे डाटा का 80 प्रतिशत उपयोग मनोरंजन व अश्लील सामग्री देखने में हो रहा है, जबकि इसे सूचनात्मक ज्ञान बढ़ाने का आधार बताया गया था। सात वर्ष पहले ‘निर्भया’ और अब हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ हुए दुष्कर्म के कारणों में एक कारण स्मार्टफोन पर उपलब्ध अश्लील फिल्में भी मानी जा रही हैं। अश्लील फिल्में देखने के बाद दुष्कर्मियों ने दुष्कर्म करना स्वीकारा है, लिहाजा यह तथ्य सत्य के निकट है।
पुरुषवादी मानसिकता देश भर के कम उम्र के लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष इस बारे में टिप्पणी करता है कि किस तरह ऐसी विषाक्त मर्दानगी की भावनाएं युवाओं के जहन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है तथा उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दानगी है।
प्रशासनिक उदासीनता : निर्भया कोष के आवंटन के संबंध में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार आवंटित धनराशि में से 11 राज्यों ने एक रुपया भी खर्च नहीं किया। इन राज्यों में महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव शामिल हैं। दिल्ली ने 390.90 करोड़ रुपए में से सिर्फ 19.41 करोड़ रुपए खर्च किए। उत्तर प्रदेश ने निर्भया फंड के तहत आवंटित 119 करोड़ रुपए में से सिर्फ 3.93 करोड़ रुपए खर्च किए। कर्नाटक ने 191.72 करोड़ रुपए में से 13.62 करोड़ रुपए, तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपए में से केवल 4.19 करोड़ रुपए खर्च किए। आंध्र प्रदेश ने 20.85 करोड़ में से केवल 8.14 करोड़ रुपए, बिहार ने 22.58 करोड़ रुपए में से मात्र 7.02 करोड़ रुपए खर्च किए। संसद में पेश आंकड़ों के अनुसार महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से जुड़ी योजनाओं के लिए 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को महिला हेल्पलाइन, वन स्टॉप सेंटर स्कीम सहित विभिन्न योजनाओं के लिए धन आवंटित किया गया था। दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, दादर नगर हवेली और गोवा जैसे राज्यों को महिला हेल्पलाइन के लिए दिए गए पैसे जस के तस पड़े हैं। वन स्टाप स्कीम के तहत बिहार, दिल्ली, कर्नाटक, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल ने एक पैसा खर्च नहीं किया।