भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही केवल महिला और पुरुषों, दो जेंडर को मान्यता दी गई थी। जिसके कारण समाज का एक अन्य वर्ग (किन्नर समुदाय) सैकड़ों वर्षों से अपनी पहचान और अधिकारों से वंचित रह कर यातनाएं झेल रहा है।
हालांकि साल 2014 में किन्नर समुदाय को भी अलग जेंडर के रूप में मान्यता दे दे गई लेकिन अभी तक यह समुदाय अपने आपको कई सुविधाओं से वंचित महसूस करता है। सुविधाओं की इसी कमी के कारण हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई। जिसमें किन्नरों के लिए एक अलग शौचालय की मांग की गई है। यह जनहित याचिका विशाल द्विवेदी और अन्य विधि छात्रों द्वारा दायर की गई है। बीते दिन यानी 22 जून को इस मामले पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति गजेंद्र कुमार ने इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 12 जुलाई की तारीख निर्धारित की है।
याचिकाकर्ताओं ने किन्नरों को स्वास्थ्य के अधिकार और विशेष शौचालय उपलब्ध कराए जाने की मांग की है। उनका कहना है कि उच्चतम न्यायालय ने नाल्सा बनाम केंद्र सरकार के मामले में साल 2016 में किन्नरों को थर्ड जेंडर (अन्य) के तौर पर मान्यता दी थी और उन्हें संविधान के तहत एक नागरिक को उपलब्ध होने वाली सभी अधिकारों के अलावा स्वास्थ्य अधिकार और शौचालय सुविधाएं उपलब्ध कराने का निर्देश दिया था।
भारत में किन्नरों की स्थिति
भारत में किन्नरों को समाज से अलग माना जाता है और उनका बहिष्कार किया जाता है। इसकी वजह यह है कि इन्हे न तो पुरुषों के दर्जे में रखा जा सकता है और न ही महिलाओं के दर्जे में। जिसके कारण वह सामाजिक बहिष्कार और उनके साथ होने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं। साल 2014 के अप्रैल महीने में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी। नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी की अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था। इस फैसले से आधार पर किन्नरों को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस में तीसरे लिंग के तौर पर पहचान हासिल करने का अधिकार मिला।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने ट्रांसजेंडर लोगों को प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स बिल के तहत वर्ष 2016 में मान्यता दे दी गई। किन्नरों को मान्यता देने को लेकर सरकार का उद्देश्य था कि किन्नरों को भी सामाजिक जीवन, शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में आजादी से जीने के अधिकार मिल सके। क्योंकि हमारे देश में ऐसे लोगों को सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। जिसे बदलने के लिए कानूनी नियम बदलने के साथ-साथ लोगों की मानसिकता बदलने की भी आवश्यकता है। 2016 में लाये गए कानून में यह उम्मीद की जा रही है कि किन्नरों के साथ अपमानजनक और भेदभाव वाले व्यवहार को काम करना सबसे जरूरी है। ताकि वह भी अपने आपको इस समाज का एक अंग महसूस कर सकें।