भाजपा के हाथों लगातार चुनावी शिकस्त खा रही कांग्रेस ने कर्नाटक में प्रचंड बहुमत प्राप्त कर 2024 के आम चुनाव से ठीक पहले न केवल भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों के भीतर उत्साह पैदा करने का काम कर दिखाया है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे रख हर चुनाव जीतने का दावा करने वाली भाजपा को भी सकते में डालने का काम कर दिया है। दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार कहलाए जाने वाले राज्य में मिली जीत से कांग्रेस निश्चित ही मजबूत हुई है और उसका मनोबल बढ़ा है। 2018 में भाजपा को 224 में से 104 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। तब 80 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने जनता दल (सेक्यूलर) के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई थी। यह सरकार लेकिन एक साल बाद ही दल-बदल चलते गिर गई और राज्य में ‘कमल’ खिल उठा था। इस बार लेकिन भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के आक्रमक प्रचार बाद भी मात्र 66 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस ने 135 सीटें जीत इतिहास रचने का काम किया। हालांकि इस जीत के बाद पार्टी को विधायक दल का नेता चुनने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा लेकिन यह मसला भी बातचीत के जरिए अंततः सफलतापूर्वक हल कर लिया गया। विपक्षी दल कर्नाटक चुनाव के नतीजों को बीजेपी की कथित विभाजनकारी राजनीति को पराजित करने का मंत्र मान रहे हैं। यह मंत्र है आथि्र्ाक और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बेबाक और विश्वसनीय अभियान चलाना। कर्नाटक में इस मंत्र को सिद्ध करने के बाद कांग्रेस विपक्षी एकता के सफल सूत्रधार की भूमिका में आ गई है
हाल ही में सम्पन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव की 224 सीटों में से कांग्रेस ने 135 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल किया है तो वहीं भाजपा को 66 सीटों पर ही जीत मिली। इसके अलावा प्रदेश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी जेडीएस इस बार कुछ खास कमाल नहीं कर पाई। उसे महज 19 सीट पर ही कामयाबी मिली। कांग्रेस पार्टी को जनता का बंपर जनादेश मिलने के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर फंसा पेंच सुलझ गया है। पांच दिन की कड़ी मशक्कत के बाद अंततः प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार को पार्टी आलाकमान मनाने में सफल रहा और वरिष्ठ नेता सिद्धारमैया के नेतृत्व में राज्य में नई सरकार के गठन का रास्ता निकल पाया। भाजपा की इस हार को लेकर सवाल उठ रहा है कि क्या पार्टी की सियासत दक्षिण भारत में खुलने से पहले ही बंद हो गई है? राजनीतिक जानकारों की मानें तो बीजेपी को इस बार के विधानसभा चुनाव में जीत मिलती तो दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में अगामी विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में पार्टी के हौसले बुलंद रहते। लेकिन पिछले साढ़े तीन दशकों से कर्नाटक में चली आ रही रोटी पलट चुनाव की परंपरा इस बार भी कायम रही है। यह राज्य बीजेपी के लिए राजनीतिक लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य था। क्योंकि दक्षिण भारत में यह एक ऐसा
इकलौता राज्य था, जहां बीजेपी को किसी भी तरह सत्ता में आने का मौका मिला था। कर्नाटक से बीजेपी के लिए दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों में सियासी गलियारा खुलने की उम्मीद थी, लेकिन कर्नाटक में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। अब दक्षिण के अन्य राज्यों में भी पार्टी के लिए सियासी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।
दरअसल पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी जब से केंद्र में सरकार बनाई है तब से ही पार्टी अलग-अलग राज्यों में या तो अकेले या फिर एनडीए गठबंधन के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही है। लेकिन बीजेपी अभी दक्षिण भारत के राज्यों में अपना परचम नहीं लहरा पाई है। ऐसे में कर्नाटक की हार से दक्षिण भारत में बीजेपी को अभी लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। अगर कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण भारत के किसी भी राज्य में बीजेपी की सरकार नहीं थी। साउथ के आंध्र प्रदेश, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और तेलंगाना में बीजेपी अभी तक खुद को स्थापित नहीं कर पाई है। दक्षिण भारत के इन छह राज्यों में लोकसभा की कुल 130 सीटें आती हैं, जो कुल लोकसभा सीटों का 25 फीसदी है। इस हिसाब से भी दक्षिण के ये सभी राज्य काफी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। वहीं कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की धमाकेदार जीत की गूंज राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकती है। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार कर्नाटक के नतीजों ने भ्रष्टाचार को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चादर से ढकने की बीजेपी की राजनीति को तगड़ा झटका दिया है। कांग्रेस का दावा है कि इस जीत ने भाजपा के विभाजनकारी इरादों को भी नकारा है। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि कर्नाटक ने आर्थिक और सामाजिक न्याय की राजनीति के नए दौर का ऐसा फाटक खोल दिया है जिससे गुजरे बिना किसी भी दल को राह नहीं मिल पाएगी। कर्नाटक के चुनाव की जीत भारतीय राजनीति में एक नई कांग्रेस के उदय की भी घोषणा है जो अपने मुद्दों पर स्पष्ट है और उनके लिए जबरदस्त तरीके से जूझना जानती है।
जानकारों का कहना है कि कर्नाटक चुनाव ने यह भी साबित किया है कि बुनियादी मुद्दों को दरकिनार करने के लिए सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति की मियाद पूरी हो गई है। तमाम सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि कर्नाटक में कम आय वर्ग के लोगों और महिलाओं ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। हिजाब, नकाब से शुरू होकर बजरंगबली तक पहुंचे बीजेपी अभियान को यह गरीबों की ओर दिया गया मुंहतोड़ जवाब है। ‘40 फीसदी कमीशन की सरकार’ का आरोप जनता के अनुभव पर था और कांग्रेस ने पांच गारंटियां देकर एक नयी विश्वसनीयत हासिल कर ली। ‘गृहज्योति योजना’ के तहत हर महीने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, ‘गृहलक्ष्मी योजना’ के तहत परिवार की बुज़ुर्ग महिला को दो हजार रुपये प्रति माह, ‘उचिता प्रयाण योजना’ के तहत महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, ‘अन्न भाग्य योजना’ के तहत हर बीपीएल परिवार को दस किलो चावल प्रतिमाह, ‘युवा निधि योजना’ के तहत बेरोजगार स्नातक को प्रति माह 3000 रुपये और डिप्लोमा धारक को दो साल के लिए 1500 प्रति माह देने की गारंटी ने चुनाव को किसी पार्टी की जीत-हार के मसले की जगह जनता के भविष्य से जोड़ दिया।
कुल मिलाकर विपक्षी दल कर्नाटक चुनाव के नतीजों को बीजेपी की कथित विभाजनकारी राजनीति को पराजित करने का मंत्र मान रहे हैं। यह मंत्र है आथि्र्ाक और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बेबाक और विश्वसनीय अभियान चलाना। कर्नाटक में इस मंत्र को सिद्ध करने के बाद कांग्रेस विपक्षी एकता के सफल सूत्रधार की भूमिका में आ गयी है। लेकिन इससे कांग्रेस को पार्टी भीतर की कलह को सुलझाना होगा। गौरतलब है कि इस वर्ष राजस्थान विधानसभा के चुनाव होने हैं यहां बीते काफी समय से कांग्रेस के अंदर कुछ भी सही नहीं चल रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने एक-दूसरे के खिलाफ ही मोर्चा खोल रखा है। इस अंदरूनी कलह का फायदा बीजेपी आगामी चुनाव में उठा सकती है। इन दोनों की सियासी जंग की वजह से कांग्रेस आलाकमान भी परेशान है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ में ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री के फॉर्मूले को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बनाम टीएस सिंहदेव, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा बनाम कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव कुमारी शैलजा के बीच सियासी तकरार जारी है। वहीं महाराष्ट्र में नाना पटोले बनाम बाला साहेब थोराट की सियासी रार किसी से छिपी नहीं है। ये सभी वे राज्य हैं, जहां आने वाले कुछ समय में विधानसभा चुनाव होने हैं। मध्य प्रदेश में भी पार्टी को गुटबाजी के कारण नुकसान झेलना पड़ा था।
इन राज्यों में ही नहीं, पंजाब में भी अंदरूनी गुटबाजी के कारण कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। तब कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की गुटबाजी चरम पर थी। प्रदेश में पार्टी के अंदर दो-दो गुट बन चुके थे। इसका नतीजा ही था कि पंजाब से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। अब अगर कांग्रेस 2024 में सत्ता पर कायम रहने के बारे में सोच रही है तो उन्हें आपसी गुटबाजी को पूरी तरह से खत्म करना होगा।