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Infosys मामले को दी हवा फिर पीछे हटा आरएसएस

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आरएसएस (RSS) का विवादों से पुराना नाता रहा है। इसी बीच अब संघ परिवार की हिंदी पत्रिका पाञ्चजन्य की कवर स्टोरी से एक नया विवाद खड़ा हो गया है। पाञ्चजन्य आरएसएस का मुखपत्र मानी जाती है। इसलिए इसमें प्रकाशित होने वाले लेख भी संघ के ही माने जाते रहे हैं। दरअसल, पाञ्चजन्य में प्रकाशित एक लेख में आईटी कंपनी इंफोसिस पर कई आरोप लगाए गए हैं। विवाद इतना ही नहीं रहा बल्कि विवाद तब और बढ़ गया जब आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर द्वारा पाञ्चजन्य को संघ का मुखपत्र मानने से ही इंकार कर दिया गया इस मामले से अंदाज़ा लगाया जा सकता है संघ परिवार को पता है कि कब एक विवादित मसले को पहले उठाना है और फिर पूरी तैयारी के साथ इससे पल्ला झाड़ लेना है।

ऐसा पहली बार नहीं है जब ऐसे विवाद हुए हैं। ऐसे कई मामले हैं जिनमें कभी संघ कुछ कहता है कभी कुछ। विवाद बढ़ने पर फिर आरोपों से आरएसएस किनारा कर लेता है। लेकिन तब तक उनका छोड़ा तीर बिलकुल सटीक निशाने पर लग चुका है। हाल ही में जो विवाद चर्चा में है वो है इंफोसिस विवाद और निशाना इस बार कॉपोरेट जगत को बनाया गया है।

भले ही आंबेकर ने मामले पर सफाई दी है, लेकिन इस बार भी संदेश बिल्कुल साफ है। यदि आप चाहते हैं कि आपका व्यवसाय बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के चलता रहे, तो या तो बिना किसी झिझक के वर्तमान सत्ता का समर्थन करें या कम से कम इतना सावधान रहें कि सरकार के विरोधियों के साथ न तो समर्थन और न ही कोई संबंध हो।

ये किसी से छिपा नहीं है कि इंग्लिश वीकली ऑर्गनाइजर और हिंदी साप्ताहिक पाञ्चजन्य आरएसएस का हिस्सा हैं। लेकिन इसके विपरीत आंबेकर की ओर से एक ट्वीट किया गया,

‘पाञ्चजन्य में इस संदर्भ में प्रकाशित लेख, लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं तथा पाञ्चजन्य संघ का मुखपत्र नहीं है। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस लेख में व्यक्त विचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।’

हालांकि आंबेकर द्वारा यह भी कहा गया कि इंफोसिस भारतीय कंपनी है और भारत की उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान भी देती आई है।

ऊपरी तौर पर देखा जाए तो मामला ये है कि इंफोसिस को नए इनकम टैक्स पोर्टल में खामियों के लिए निशाने पर लिया गया है।

पाञ्चजन्य की स्टोरी में कहा गया, ‘क्या यह उपभोक्ता को संतोषजनक सेवाएं न दे पाने की सामान्य शिकायत है या इसके पीछे कोई सोचा-समझा षड्यंत्र छिपा है?’

यह भी कहा गया कि जानबूझकर कंपनी के मैनेजमेंट पर भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने की कोशिश करने के आरोप लग रहे हैं। हालांकि आरोप कौन लगा रहा है इसका जिक्र नहीं है। कहा गया कि कई जानकारों द्वारा सोशल मीडिया पर भी इस बारे में खुलकर संदेह जताया गया है और हवाला दिया गया है कंचन गुप्ता का। वह पूर्व में पत्रकार रही और वर्तमान में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सलाहकार के पद पर कार्यरत हैं।

लेख में कई आरोप और सवालों पर प्रकाश डाला गया है। लेख में एक सवाल यह भी है कि आखिर कोई कंपनी इतनी कम बोली पर क्यों सरकारी ठेके ले रही है? जीएसटी से लेकर आयकर पोर्टल तक हर एक बिंदु पर लेख में चर्चा की गई है।

कहा गया “चाहे जीएसटी हो या आयकर पोर्टल, इन दोनों में हुई गड़बड़ी ने अर्थव्यवस्था में करदाताओं के विश्वास को तोड़ने का काम किया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई देशविरोधी शक्ति इंफोसिस के माध्यम से भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुंचाने में जुटी है?”

लेख में अज्ञात हवालों से कहा गया है कि आरोप लगते रहे हैं कि इंफोसिस नक्सलियों, वामपंथियों और टुकड़े-टुकड़े गैंग की मदद करता है। माना जाता है कि द वायर, ऑल्ट न्यूज और स्क्रॉल जैसी दुष्प्रचार वाली वेबसाइटों के पीछे भी इंफोसिस की फंडिंग है।’

इसके बाद यहां पहुंचने पर मामला स्पष्ट होने लगता है कि निशाना इंफोसिस फाउंडेशन को बनाया जा रहा है। अब जितना दूर आरएसएस और पाञ्चजन्य हैं, इंफोसिस और इंफोसिस फाउंडेशन में उससे अधिक दूरी है। लेख के अनुसार सवाल है कि आखिर क्यों इंफोसिस फाउंडेशन सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले संगठनों की मदद कर रहा है? यानी अगर देखा जाए तो पाञ्चजन्य के मुताबिक जो उसकी विचारधारा का है कि वहीं सरकार को सेवा दे सकता है। ये भी उल्लेख किया गया, ‘ऐसी कंपनी यदि भारत सरकार के मुख्य ठेके लेगी तो क्या उसमें चीन और आईएसआई के प्रभाव का अंदेशा नहीं होगा?’

फिलहाल आंबेकर ने दावा किया कि संघ का इन आरोपों से कोई लेना देना नहीं है। पांचजन्य और संघ के संबंध 75 वर्ष से अधिक पुराना है। भारत की स्वन्त्रता के लिए जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उम्मीद बनने लगीं, उस वक्त आरएसएस की ओर से एक संगठन बनाने का निर्णय लिया गया। जिनमें शामिल थे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ और जनसंघ । जनसंघ की स्थापना भारत के गणतंत्र बनने के बाद हुई। आरएसएस को महसूस हुआ कि उसका एक राजनीतिक मोर्चा भी होना जरूरी है क्योंकि जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया गया था, तो राजनीतिक क्षेत्र में उसका बचाव करने वाला कोई नहीं था।

वर्ष 1946 में इसी कड़ी में भारत प्रकाशन ट्रस्ट का गठन किया गया।  इसके शेयर बेचकर स्वयंसेवकों ने लगभग 4 लाख रुपये जुटाए।  ट्रस्ट द्वारा 3 जुलाई 1947 ऑर्गनाइज़र का प्रकाशन शुरू हुआ। महात्मा की हत्या के बाद जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तब हिंदी में पांचजन्य और मराठी में राष्ट्र शक्ति का प्रकाशन आरंभ हुआ। पांचजन्य के पहले संपादक अटल बिहारी वाजपेयी रहे थे।

अगर तकनीकी रूप से देखा जाए तो शायद आंबेकर सही हैं कि पांचजन्य आरएसएस की पत्रिका नहीं है जैसे सामना शिवसेना की पत्रिका है या पीपुल्स डेमोक्रेसी सीपीएम की पत्रिका है। सीपीएम के बंगाली अखबार गणशक्ति को 2017 में एक स्वतंत्र ट्रस्ट को सौंप दिया गया था।

लेकिन भले ही सीपीएम की गणशक्ति से दूरी बनाने की कोशिश हो या आरएसएस की खुद को पांचजन्य से अलग करने का प्रयास हो, उनमें कोई दम नहीं है।

कई लोग भाजपा में आने से पहले आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक रहे थे। इन लोगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हैं।

कई बार आरएसएस के पदाधिकारियों को पांचजन्य में आयोजक और संपादक पद दिया गया।  आरएसएस की शेषाद्रि चारी आयोजक की संपादक रह चुकी हैं। पूर्व राज्यसभा सांसद तरुण विजय भी कभी पांचजन्य के संपादक थे।

ऐसे में इसमें कोई शक नहीं कि पांचजन्य के लेख में जो भी आरोप लगे, उन्होंने संघ परिवार और उसके नेतृत्व की राय सामने रखी। ऐसे तथाकथित स्वायत्त संगठनों को आरोप लगाने की अनुमति देकर आरएसएस वांछित संदेश देता है और जवाबदेही से भी बचता है।

वर्ष 2015 में भी मोहन भागवत का एक साक्षात्कार प्रकाशित होने पर पांचजन्य को इसी तरह से ‘इस्तेमाल’ किया गया था। साक्षात्कार में आरक्षण नीति की ‘समीक्षा’ की अपील की गई थी। उन पर विवाद हुआ था और इस मसले से बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को नुकसान भी मिला था।

इस लेख के बाद कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने लेख को देशद्रोही बताया था। उन्होंने एक ट्वीट में कहा था कि यह सरकार से दोष हटाने की कोशिश है, इसकी निंदा की जानी चाहिए। पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर ने कहा कि इंफोसिस एक बड़ी कंपनी है, सरकार ने इसकी विश्वसनीयता के दम पर इसे काफी अहम काम दिए हैं। टैक्स पोर्टल में गड़बड़ी एक राष्ट्रीय मुद्दा है, इसके लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

पांचजन्य विवाद से यह भी संकेत मिलता है कि संघ परिवार में आक्रामकता बढ़ रही है।

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