दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनाव किसी उत्सव से कम नहीं है। राजनीतिक दलों के लिए यह अवसर जहां सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने का होता है, वहीं जनता के लिए अपने भविष्य के निर्ट्टारण को तय करना होता है। लेकिन बीते कुछ दशकों से चुनाव ‘रेवड़ी कल्चर’ को बढ़ावा देने वाले होते जा रहे हैं। बजटीय आकलन और राजस्व को होने वाले नुकसान से बेपरवाह राजनीतिक दल अब मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकारें यदि ईमानदारी से पांच वर्ष जनता के हितों को देखते हुए योजनाएं चलाएं तो मुफ्त रेवड़ियां बांटने की नौबत ही नहीं आएगी। यदि योजनाएं अर्थव्यवस्था के अनुशासन में रहकर चलें तो परेशानी नहीं आएगी, मगर सत्ता हासिल करने के लिए योजनाओं को लाया जाए तो यह अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालेंगी
साल के अंत में प्रस्तावित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे चुनावी सरगर्मियां तेज होती जा रही हैं। हालांकि अभी चुनावों की तारीखों का ऐलान नहीं हुआ है लेकिन कई राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। इसके साथ चुनावी रैलियों में एक बार फिर चुनावी रेवड़ियां सुर्खियों में हैं।
असल में राजनीतिक दलों के चुनावी वायदे और गारंटियों की जीत में अहम भूमिका होती है। कोई भी पार्टी चुनावी घोषणा में किसी से पीछे नहीं रहना चाहती। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ कांग्रेस और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार एक के बाद एक योजना का ऐलान करने में जुटी हैं। ताकि कुछ माह बाद होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में लोगों का भरोसा जीता जा सके।
कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा चुनाव में कर्नाटक चुनाव का असर साफ नजर आएगा। कांग्रेस जहां कर्नाटक मॉडल को आधार बनाकर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है, वहीं भाजपा भी चुनावी गारंटियों में कांग्रेस से होड़ लगाती दिख रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक के बाद एक कई चुनावी वायदों का ऐलान किया है। यही नहीं बीते दिनों केंद्र सरकार द्वारा एलपीजी गैस सिलेंडर के दामों में की गई कटौती को भी इसी नजरिए से देखा जा रहा है।
दरअसल, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनाव किसी उत्सव से कम नहीं हैं। राजनीतिक दलों के लिए यह अवसर जहां सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने का होता है, वहीं जनता के लिए अपने भविष्य के निर्धारण को तय करना होता है। लेकिन बीते कुछ दशकों से चुनाव ‘रेवड़ी कल्चर’ को बढ़ावा देने वाले होते जा रहे हैं। बजटीय आंकलन और राजस्व को होने वाले नुकसान से बेपरवाह सभी राजनीतिक दल अब मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं।
इस वर्ष के अंत में पांच राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक दलों की ओर से ऐसी-ऐसी लोक-लुभावन योजनाएं जनता के समक्ष प्रस्तुत की जा रही हैं जिनकी सफलता पर संदेह तो होता ही है, साथ ही यह संशय भी उत्पन्न होता है कि यदि ईमानदारी से इन योजनाओं को क्रियान्वित किया भी गया तो संबंधित प्रदेश के आर्थिक नियोजन पर कितना अतिरिक्त भार पड़ेगा? पहले से आर्थिक रूप से बीमारू राज्यों के लिए उक्त मुफ्तखोरी की योजनाओं का ऐलान निश्चित रूप से जनता से छलावा मात्र है क्योंकि उनके क्रियान्वयन के लिए न तो धन का प्रबंध राज्य के पास है और न ही केंद्र की ओर से अतिरिक्त धन की व्यवस्था की जा सकती है।
कुछ महीनों पहले कर्नाटक में जीत से उत्साहित कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश में तीन माह पूर्व प्रदेश की जनता को पांच गारंटी देते हुए चुनावी बिगुल फूंका था। अब पिछले हफ्ते 27 अगस्त को पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इन्हीं पांच गारंटियों को बढ़ाकर 11 वचन कर दिए जिसमें महिलाओं को 1 हजार 500 रुपए प्रतिमाह, 500 रुपए में गैस सिलेंडर, 100 यूनिट बिजली बिल माफ और 200 यूनिट तक बिल आधा, पुरानी पेंशन योजना की बहाली, किसानों का फसल कर्ज माफ, सिंचाईं के पुराने बिजली बिल माफ, 5 हॉर्स पॉवर की मोटर का बिजली बिल माफी के साथ ही अन्य राजनीतिक वचन शामिल हैं। कमलनाथ की इन घोषणाओं के मुकाबला करने के लिए शिवराज सरकार ने भी लोक-लुभावन योजनाओं के लिए सरकारी खजाना खोल दिया है। 10 अक्टूबर, 2023 से लाड़ली बहना योजना के तहत महिलाओं को प्रतिमाह 1 हजार 250 रुपए मिलेंगे जिसे बढ़ाकर 1 हजार 600 रुपए करने की घोषणा भी हो चुकी है। इस लाड़ली बहना योजना के तहत अंततः 3 हजार रुपए प्रतिमाह दिए जाने का प्रस्ताव भी बताया जा रहा है।
इसके अलावा बिजली के बढ़े बिल इस महीने से यानी सितंबर में शून्य होंगे। महिलाओं को 450 रुपए में गैस सिलेंडर देने का वादा भी किया गया है जिसके अंतर्गत सरकार गैस एजेंसियों से जानकारी लेकर महिलाओं के खाते में 600 रुपए ट्रांसफर करेगी। यह उपक्रम उस राज्य में हो रहा है जिसका वर्ष 2023-24 के लिए राजकोषीय घाटा 55,708 करोड़ रुपए है जो सकल राज्य घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी का लगभग 4 प्रतिशत है। यह राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 के अनुसार 3 .5 प्रतिशत की सीमा से अधिक है। तमाम योजनाओं में से मात्र लाड़ली बहना योजना को भविष्य में इसमें मिलने वाले 3 हजार रुपए मासिक आधार बनाएं तो योजना के तहत कुल भुगतान बढ़कर 3 हजार 800 करोड़ रुपए प्रतिमाह या 45 हजार 600 करोड़ रुपए प्रति वर्ष हो जाएगा जो राज्य के वार्षिक वित्तीय घाटे से थोड़ा ही कम है।
अब इसके बाद किस योजना के मद में कितनी राशि आएगी, उक्त योजना धरातल पर कैसे उतरेगी, यह समझना कठिन नहीं है। 07 जुलाई, 2023 को कर्नाटक की नवनिर्वाचित सिद्धारमैया सरकार ने वित्त वर्ष 2024 के लिए बजट पेश किया जिसमें चुनाव पूर्व की गई पांच मुफ्त योजनाओं, गृह लक्ष्मी, गृह ज्योति, शक्ति, अन्न भाग्य और युवानिधि पर ध्यान केंद्रित किया गया जिससे कुल बजटीय खर्च 3 लाख 27 हजार 747 करोड़ रुपए हो गया है। यह पिछली भाजपा सरकार के 3 लाख 9 हजार 182 करोड़ रुपए के बजट से 6 प्रतिशत अधिक है। उक्त बजट में पिछले आवंटन में कटौती के साथ सबसे महत्वपूर्ण कृषि, बागवानी, जल संसाधन, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और सहयोग की उपेक्षा की गई है। ये वे उपेक्षित क्षेत्र हैं जहां सरकार यदि ईमानदारी से जन हितैषी कार्य करे तो चुनावी मौसम में मुफ्त रेवड़ियां बांटने और सत्ता में आने के बाद उनके क्रियान्वयन के लिए राज्य की आर्थिक सेहत से खिलवाड़ नहीं करना पड़ेगा।
दूसरी तरफ राजस्थान में चल रही योजनाओं का मामला भी कुछ ऐसा ही है। आरबीआई के अनुसार, प्रदेश का कर्ज बढ़कर 4 .77 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया है। इसमें 82 हजार करोड़ रुपए का गारंटेड लोन भी शामिल कर दें तो प्रदेश पर कुल कर्ज 5 .59 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया है। वहीं कैग के अनुसार, बीते वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार ने मई तक 8 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज और लिया था। राजस्थान सरकार साढ़े तीन साल में 1.91 लाख करोड़ रुपए का कर्ज, जिसमें गारंटेड लोन शामिल नहीं है जबकि इससे पहले की सरकार ने 5 साल में 1 .81 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया था। 2019 में राजस्थान में प्रति व्यक्ति कर्ज 38 हजार 782 रुपए था जो 2022-23 के बजट में बढ़कर 70 हजार 848 रुपए हो गया है। पिछले वर्ष आरबीआई की एक रिपोर्ट ने राजस्थान सहित 10 राज्यों के वित्तीय हालत पर चिंता जताते हुए बिहार, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को कर्ज के भारी बोझ तले दबा बताया था। यहां तक कि पंजाब को एक्ट्रा बजटरी बोरोइंग देने के लिए आरबीआई ने बैंकों को ही मना कर दिया था। आरबीआई के अनुसार, वर्ष 2026-27 तक पंजाब पर अपनी जीडीपी का 45 प्रतिशत से अधिक कर्ज होने का अनुमान है।
मुफ्त रेवड़ी कल्चर पर सर्वोच्च न्यायालय से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक चिंता जता चुके हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग भी राजनीतिक दलों के प्रति सख्ती बरतने की बात कह रहा है लेकिन यह संस्कृति चुनावी मौसम में बढ़ती ही जा रही है। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके द्वारा खुले तौर पर रंगीन टेलीविजन, मंगलसूत्र, मोबाइल, लैपटॉप, स्कूटी, हाथ घड़ी बांटने से अनियंत्रित हुआ यह रेवड़ी कल्चर अब अर्थव्यवस्था पर बोझ बनता जा रहा है। राजनीतिक विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकारें यदि ईमानदारी से पांच वर्ष जनता के हितों को देखते हुए योजनाएं चलाएं तो मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की नौबत ही नहीं आएगी। यदि योजनाएं अर्थव्यवस्था के अनुशासन में रहकर चलें तो परेशानी नहीं आएगी, मगर सत्ता हासिल करने के लिए योजनाओं को लाया जाए तो अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालेंगी। इसका विपरीत असर बाजार की सेहत पर भी पड़ेगा क्योंकि जब अन्न-जल से लेकर सभी मुफ्त होगा तो अर्थव्यवस्था चलायमान कैसे होगी?
राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे चुनाव प्रचार के दौरान वायदे करते हुए केवल राजनीतिक पहलू पर विचार करना त्याग दें क्योंकि बजटीय आवंटन और संसाधन सीमित हैं। उन्हें अर्थव्यवस्था को भी ध्यान में रखना चाहिए। मुफ्त की योजनाओं में खर्च किये गए धन को यदि रचनात्मक रूप से रोजगार के अवसर पैदा करने, जल प्रबंधन के बुनियादी ढांचे के निर्माण तथा कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए उपयोग किया जाए तो निश्चित रूप से राज्य में लोगों की प्रगति होगी और लोग अपने उद्यम से सुखी व संपन्न हो जाएंगे।
गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस दूसरी चुनावी गारंटियां दे रही है। कर्नाटक में तय वक्त के ऊपर अपनी सभी पांच गारंटियों को लागू कर पार्टी ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह जो वायदा करती है, उसको पूरा करती है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में पार्टी ने कई योजनाओं को लागू किया है। इसके साथ कई और वायदे करने की तैयारी है। रणनीतिकार मानते हैं कि चुनाव के दौरान किए गए वायदे सियासी पार्टियों को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं को मासिक भत्ता, मुफ्त बस यात्रा, मुफ्त बिजली, मुफ्त अनाज योजना, किसान सम्मान निधि और मुफ्त एलपीजी सिलेंडर गेमचेंजर साबित हुए हैं। यहां तक कि कर्नाटक में पांच गारंटियों ने कांग्रेस को शानदार जीत दिलाते हुए सत्ता तक पहुंचा दिया।
ऐसा नहीं है कि चुनावी वायदों ने सिर्फ हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनाव में अहम भूमिका निभाई है। इससे पहले हुए कई राज्यों के चुनावों में भी मुफ्त योजना सफल रही है। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी और तमिलनाडु में डीएमके को स्पष्ट बहुमत मिला है। इसलिए, लगभग सभी राजनीतिक दल चुनाव में मतदाताओं का भरोसा जीतने के लिए ऐसी गारंटियां देती हैं।