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योगी राज में भी निष्प्रभावी सूचना का अधिकार

पारदर्शिता के दावे  मौजूदा योगी सरकार के कार्यकाल में भी बेमानी साबित हो रहे हैं। एक ओर मुख्यमंत्री भ्रष्ट अधिकारियों से लेकर अपराधियों तक को खुली चुनौती दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर उन्हीं की नाक के नीचे कथित भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने का खेल जारी है। इस खेल में वह जनसूचनाधिकारी भी शामिल हैं जिनकी तैनाती सिर्फ इसीलिए की गयी है ताकि आम जनता को उनके प्रश्नों का उत्तर मिल सके। एक तथाकथित भ्रष्ट अधिकारी को बचाने से सम्बन्धित यह मामला आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर से सम्बन्धित है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी अधिकारी को बचाने के लिए अधिकारियों की पूरी लाॅबी एकजुट हो जाती है भले ही वह मामला कितना ही गंभीर क्यों न हो। आरटीआई एक्टिविस्ट की शिकायतों को यदि आधार माने तो एक आईपीएस अधिकारी को बचाने में सम्बन्धित विभाग का पूरा अमला जुटा है। ये वही आईपीएस अधिकारी हैं जो पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार के कार्यकाल में गायत्री प्रजापति के मामले को लेकर खासा चर्चा में रहे थे।
उत्तर प्रदेश के अपराध अनुसंधान विभाग के इंदिरा भवन लखनऊ स्थित आर्थिक अपराध अनुसंधान संगठन मुख्यालय के अपर पुलिस अधीक्षक (अपराध) और जनसूचना अधिकारी ने मानवाधिकार कार्यकर्ता संजय शर्मा द्वारा मांगी गयी सूचना को देने से इंकार कर दिया है। गौरतलब है कि यूपी कैडर 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर के खिलाफ लखनऊ के थाना गोमतीनगर में (वर्ष 2015) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 13(2) सपठित 13(1)(म) के तहत दर्ज प्रकरण (अपराध संख्या 0746/2015) से सम्बंधित जानकारियों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत यह कहते हुए देने से इंकार कर दिया है कि यदि सुचना सार्वजनिक हुई तो जांच अथवा पकड़े जाने सहित अभियोजन की क्रिया में अड़चन आ सकती है। बताना जरूरी है कि सुचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 8(1)(ज) के तहत उन सुचनाओं को सार्वजनिक किये जाने की मनाही है जिनके सार्वजनिक किये जाने से अपराधियों के अन्वेषण, पकडे जाने अथवा अभियोजन की क्रिया में अड़चन पड़ने की संभावना हो जबकि आईपीएस अमिताभ ठाकुर के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है।
पारदर्शिता, जबाबदेही और मानवाधिकार क्रांति के लिए काम करने वाले तहरीर नामक संगठन के संस्थापक एवं अध्यक्ष संजय शर्मा का कहना है कि उन्होंने बीते 25 अप्रैल को आर्थिक अपराध शाखा के महानिदेशक को पत्र लिखकर शिकायत की थी कि राजनैतिक और विभागीय प्रभाव के कारण यूपी पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा के जांचकर्ता द्वारा भयवश अमिताभ ठाकुर के खिलाफ (लखनऊ के थाना गोमतीनगर में दिनांक 16-09-15 को) दर्ज प्रकरण की विवेचना गहनतापूर्वक और निष्पक्षता से नहीं की जा रही है। शिकायती पत्र में यह भी मांग की गयी है कि प्रचलित जांच को तत्काल किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी को सौंपी जाए। पत्र में पर्यवेक्षण के लिए मा. उच्च न्यायालय के मा. वरिष्ठ न्यायाधीश को नामित करके मा. वरिष्ठ न्यायाधीश के पर्यवेक्षण में जांच अंतिम कराये जाने के सम्बन्ध में सक्षम स्तर से आदेश जारी करने के लिए अपने स्तर से कार्यवाही करके प्रकरण का न्यायपूर्ण निस्तारण कराने की मांग की गयी थी। बकौल संजय शर्मा, ‘उन्होंने बीती 5 मई को आर्थिक अपराध शाखा के महानिदेशक को पत्र लिखकर प्रकरण की प्रचलित विवेचना में चल-अचल संपत्तियों और आय-व्यय का आंकलन करने के लिए कट-आॅफ डेट (अमिताभ ठाकुर के सेवा आरम्भ की तिथि) को रखने, आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर सहित इनकी पत्नी व अन्य परिवारीजनों की चल-अचल संपत्तियों की जांच की मांग की है।’
आरटीआई एक्टिविस्ट संजय शर्मा का कहना है कि उन्होंने 5 मई और 15 मई को आर्थिक अपराध शाखा में दो आरटीआई देकर अपने पत्रों पर की गई कार्यवाहियों की सूचना माँगी थी। आर्थिक अपराध अनुसंधान संगठन के पीआइओ (जनसूचनाधिकारी) ने बीते 29 मई को पत्र जारी करके बताया है कि उनके आरटीआई आवेदनों का सम्यक अवलोकन व अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला गया है कि उनके द्वारा चाही गई सुचना, सुचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 8(1)(ज) से आच्छादित होने के कारण देय नहीं है।
जनसुचनाधिकारी के भेजे गए इस पत्र से इतना जरूर स्पष्ट हो गया है कि मौजूदा योगी सरकार के कार्यकाल में भी तथाकथित भ्रष्ट अफसरों को बचाने का खेल जारी है। यहां तक कि जनसूचनाधिकार अधिनियम-2005 भी अब अफसरों के रहमो-करम पर है। अफसर चाहेंगे तो सही सुचना मिलेगी अथवा मामले इसी तरह से निपटाए जाते रहेंगे।

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