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हम एक भीषण वैचारिक समर में हैं। यह समर गांधी के प्रादुर्भाव के बाद के भारत के स्वरूप, सोच, सिद्धांतों और मान्यताओं की जीत और हार का समर है। जीतेगी वही सेना जिसके नायक के पास नैतिक बल होगा, त्याग का नैतिक बल आज राहुल जी के पास है। हमें नेता नहीं चुनना है, वैचारिक महाभारत का संचालनकर्ता चुनना है। हमें केवल युधामन्यु (धृष्टद्युम्न) चुनना है, ऐसा व्यक्ति चुनना है, जो धर्म युद्ध को संचालित करे। युद्ध का नेतृत्व तो श्री राहुल गांधी जी ही करेंगे। हम लोकतंत्र के लिए इस युद्ध को जीतेंगे। हम सब श्री राहुल गांधी जी के साथ खड़े होकर प्राण-प्रण से इस युद्ध को लड़ेंगे और जीतेंगे। सारी दुनिया श्री राहुल गांधी को रणजीत कहेगी

 

द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण को उनके विरोधियों द्वारा रणछोड़ दास कहा गया। यदुवंशियों की राजधानी मथुरा पर जरासंध के नेतृत्व में, कृष्ण विरोधी निरंतर आक्रामक हो रहे थे। कई युद्ध हारने के बाद भी जरासंध मौका पाते ही आक्रमण कर, नगर की शांति भंग कर देता था। भगवान कृष्ण उसकी धूर्तता के कारण शेष भारत खंड पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। जरासंध को आशीर्वाद प्राप्त था कि यदि कोई उसके शरीर के दो बराबर भाग करेगा और वे परस्पर जुडें़गे नहीं, तभी उसकी मृत्यु होगी। श्रीकृष्ण ने स्थिति को समझा और मथुरा से द्वारका प्रस्थान कर वहां राजधानी बना दी। उनके विरोधियों ने उन्हें रणछोड़ दास कहा। कालांतर में इसी रणछोड़ दास के नेतृत्व में जरासंध का वद्ध हुआ। कुरूक्षेत्र के युद्ध में कौरव पक्ष जो सत्ता पक्ष था उसका नाश हुआ और धर्म पक्ष पांडव सत्ता वंचित पक्ष विजयी हुए। राहुल गांधी जी ने कांग्रेस की वर्तमान हार का दायित्व लेते हुए, जब अध्यक्ष पद त्यागा, सत्ता पक्ष ने उन्हें रणछोड़ दास कहना प्रारंभ किया। अनजाने-अनचाहे राहुल गांधी जी के आलोचकों ने उन्हें द्वापर के धर्म युद्ध के वास्तविक विजेता श्रीकृष्ण के समकक्ष खड़ा कर दिया है।

आज भी धर्म युद्ध लड़ा जा रहा है। यह धर्म युद्ध भारत के संविधान, संवैधानिक परंपराओं एवं संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। आजादी के मूल्यों एवं मान्यताओं की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। संसदीय लोकतंत्र के रक्षार्थ लड़ा जा रहा है। यह युद्ध सनातन धर्म के सर्वधर्म सम्भाव के मूल्यों की रक्षा का भी है। गांधी के सिद्धांत प्रेम, सहिष्णुता, अहिंसा के मानकों की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा लोकतांत्रिक युद्ध भी है। कौरवों की तरह सत्ता पक्ष भी विशाल संख्या से सज्जित है। सत्ता-साधनों से परिपूर्ण है। बड़े-बड़े महारथियों से सुशोभित पक्ष है। दूसरी तरफ साधन एवं संख्याहीन विपक्ष है। विपक्ष के पक्ष में संसदीय लोकतंत्र की रक्षा की भावना का कवच है। सत्य, अहिंसा, प्रेम, सहिष्णुता के अस्त्र-शस्त्र हैं। संविधान एवं संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा का संकल्प रूपी रथ है। न्यायपक्षीय विपक्ष के नेतागण हैं और अब सारथी के रूप में सत्ता वितरागी राहुल गांधी हैं। समय साक्षी है, जीता वही है जिसे सत्ता का मोह नहीं रहा है। वनवासी राम, सर्व समर्थ रावण से जीते। राम के पक्ष में घोषित विख्यात महाबली नहीं थे नर, वानर, भालू थे। द्वापर में कुरूक्षेत्र युद्ध के नियामक सत्ता विमोही कृष्ण थे और उनके सहयोगी सत्ताच्युत पांडव थे। जीत हमेशा वंचित वर्ग की हुई है। राहुल जी आज वंचित वर्ग की अगुवाई कर रहे हैं, एक वितरागी के रूप में कर रहे हैं। राहुल जी एक संकल्पधारी कृष्ण की तरह हैं, जो युद्ध को राज सिंहासन के लिए नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के लिए जीतना चाहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है ‘योगस्थः कुरू कर्मणी संग त्यक्त्वा धन्नजय, सिद्ध सिद्धयोः समो भूत्वा संममत्व योग उच्यते’। राहुल जी ने भी हमसे यही कहा है कि निष्काम कर्म करो और अपनी शक्ति को पहचानो।

क्या राहुल जी का अध्यक्ष पद त्यागना उचित एवं सामयिक है? इस प्रश्न का उत्तर खोजना अति कठिन है। उत्तर खोजते हुए तर्क पर भावनाएं हावी हो रही हैं। नेताओं से अधिक कांग्रेस कार्यकर्ता गांधी परिवार से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। हमारे पास योग्य नेता हैं, परंतु प्रश्न कार्यकर्ताओं की स्वीकार्यता का है। इसी शब्द पर आकर सारे तर्क-वितर्क ठहर जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों विशेषतः लगभग डेढ़ दर्जन महिनों के अंतराल में राहुल जी के प्रति लोगों की सोच में बड़ा अंतर आया है। कार्यकर्ता उनकी संघर्ष शक्ति को देखते हुए उनसे अंतर्मन से जुड़ा है। यह जुड़ाव भावनात्मक है। इसे झटके से नहीं तोड़ा जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के अंदर व्याप्त स्थिति पर टीका-टिप्पणी कर रहे हैं, जो स्वभाविक है। हम देश की सबसे पुरानी पार्टी हैं, हमारा इतिहास भारत के संघर्ष एवं निर्माण का इतिहास है। इस लंबे दौर में कांग्रेस ने कई उतार-चढ़ाव देखे एवं भोगे हैं। कांग्रेस प्रत्येक चुनौती से उबरी है। इस बार चुनौती कुछ भिन्न प्रकार की है। अध्यक्ष के चयन और भावनात्मक समायोजन से जुड़ी है। हमें इस तथ्य के आलोक में रास्ता ढूंढ़ना है। कांग्रेस पार्टी के सर्वमान्य नेता तो राहुल गांधी जी ही हैं। हमें नेता नहीं अध्यक्ष चुनना है। नेता का चयन तो वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव कर चुका है। राहुल जी अकेले हर मोर्चे पर लड़ रहे थे। कांग्रेस के नेता के तौर पर भी और विपक्ष के नेता के तौर पर भी। दूसरे पक्ष के नायक पर यदि कोई प्रहार कर रहा था तो वह थे श्री राहुल। अन्य तो या साथ थे या विरोध में थे। विपक्ष के कुछ नेतागण श्री नरेंद्र मोदी से कम लड़ रहे थे, श्री राहुल गांधी से अधिक लड़ रहे थे। कुछ लोग लड़ नहीं रहे थे, परंतु सहयोग के बजाय उलझाव अधिक कर रहे थे। विषम परिस्थितियों में साहसपूर्ण नेतृत्व एक व्यक्ति को नेता के रूप में स्थापित करता है। हार में भी श्री राहुल गांधी जी नेता के रूप में स्थापित हुए हैं।

श्री राहुल गांधी जी के कटुतम आलोचक भी श्री गांधी की संघर्ष क्षमता का लोहा मानने लगे हैं। राहुल जी ने विपक्ष के लिए हथियार गढ़े एवं उन्हें मांजा भी। एक बार यह स्पष्ट दिखने लगा था कि श्री मोदी चुनावी रण हार रहे हैं। श्री राहुल जीत रहे हैं। पुलवामा में 40 सीआरपीएफ कर्मियों की मानव बम विस्पोट में हुई निर्मम हत्या ने चुनावी मोड में आ चुके राष्ट्र को स्तब्ध कर दिया। पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद द्वारा हत्या की जिम्मेदारी लेने के बाद सारे भारत का गुस्सा जैश-ए-मोहम्मद एवं उसके सरगना अजहर मसूद और पाकिस्तान पर केंद्रित हो गया। भारत विरोधी खलनायक पाकिस्तान और अजहर मसूद प्रत्येक भारतवासी के गुस्से एवं नफरत के केंद्र बिंदु बन गए। एक कुशल सर्जन की तरह मोदी जी ने नफरत और गुस्से से भरे फोड़े पर बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक का नश्तर चला दिया, जो चलना भी चाहिए था। बालाकोट में बरसे हर बम के साथ राष्ट्र बम, लगकर उठा। यहीं से फिर लोगों में श्री मोदी की छवि एक वीर नायक की बनी और मीडिया ने उसे खूब मांजा और चमकाया। वर्ष 2019 के चुनाव का सारा परिदृश्य (नरेटिव) बदल गया।

बेरोजगारी, लगातार गिरती हुई अर्थव्यवस्था एवं रुपए का गिरता मूल्य, बढ़ती कीमतें, किसानों की बदहाली, छोटे एवं लघु व्यापारियों, उद्यमियों की दुर्दशा, महिलाओं और दलितों पर बढ़ते अत्याचार, देश में व्याप्त अशांति, असहिष्णुता, बढ़ता हुआ नक्सलवाद, उल्फा उग्रवाद के सारे गेम चेंजर मुद्दे, चुनावी बाजार में प्रचलन से बाहर हो गए। मोदी जी पाकिस्तान पर, पंच पर पंच मारे जा रहे थे और मतदाता की मोदी मुग्धता बढ़ती जा रही थी। ट्रंप जैसे दोस्तों की सामयिक मदद भी मोदी जी की पंचिग पावर को बढ़ाते जा रही थी।

इस चुनाव के परिणामों को राष्ट्रवाद की जीत कहना बहुत ही सरलीकरण है। राष्ट्रवाद राष्ट्र के नागरिकों के सामूहिक हित का पहचान पुंज होता है। हमारे सामूहिक हित देश के नागरिकों के कल्याण में निहित हैं। मैं यह नहीं कहूंगा कि बालाकोट एयर स्ट्राइक का देश के नागरिकों के सामूहिक कल्याण से कोई वास्ता नहीं है। परंतु हम राष्ट्र के रूप में इतने छोटे नहीं हैं कि भारत अपनी भावी सरकार का निर्माण अजहर मसूद और जैश-ए-मोहम्मद जैसे घृणित आतंकियों और पाकिस्तान से घृणा को आधार बनाकर करे। एक महाशक्ति भारत, शांति, अहिंसा का अग्रदूत भारत, उन्मादी होकर निर्णय करेगा, ऐसा मानना कष्टदायक है। मगर यह दुखद सत्य है कि इस चुनाव का निर्णायक बिंदु पाकिस्तान रहा है। यदि ऐसा है तो इस चुनाव में भारत छोटा हुआ है। मोदी जी अवश्य बड़े हुए हैं, विजेता हैं, सर्वविजेता हैं, ऑल कन्क्वेरर्र हैं। मीडिया के बहुत बड़े हिस्से का उनमें गुण ही गुण दिखाई दे रहे हैं, जो स्वभाविक हैं। विक्टरी हैज मैनी फ्रैंड्स डिफिट हैज नन्।

प्रश्न उठता है क्या जिन मुद्दों को श्री राहुल जी ने उठाया, वे मुद्दे अपनी शक्ति खो चुके हैं। क्या वर्तमान संदर्भ में इन मुद्दों की सार्थकता नहीं रही या ये जनता जनार्दन के सवाल नहीं रहे। नहीं ऐसा नहीं है। ये सवाल हैं और आगे भी रहेंगे। अंततोगत्वा सरकार या सरकारों का आकलन इन्हीं आधारों पर होगा, ये सवाल केवल हमारे लिए नहीं, बल्कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के सम्मुख भी हैं। श्री मोदी इस तथ्य को जानते हैं, उन्होंने एक नया मंत्र उछाला है। पांच ट्रिलियन डॉलर्स इकोनॉमी का। एक बड़ा सपना दिखा रहे हैं माननीय प्रधानमंत्री जी। भारत की अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। निर्यात घट रहा है, पूंजी निवेश भी घट रहा है। देश की आर्थिक विकास दर में वृद्धि के लक्षण नहीं हैं। उद्योग मंदी का संकेत दे रहे हैं, सामान्य उपभोग की वस्तुओं के मूल्य बढ़ रहे हैं, रोजगार लगातार घट रहे हैं, पाकिस्तान अब वोटवर्धक प्रश्न नहीं रह गया है। अब सवाल है, आतंकवाद के खात्मे का कश्मीर में निरंतर बढ़ती हुई अशांति का। पिछले पांच वर्षों में 450 से अधिक सैनिक कश्मीर में शहीद हो चुके हैं, जबकि मारे गए आतंकियों की संख्या लगभग 950 है। यह संख्या देश की चिंता बढ़ाने वाली है। देश समाधान चाहता है।

आने वाली स्थितियां श्री राहुल जी को पुकारेंगी। यह पुकार आमजन की होगी, लोकतंत्र की होगी। राहुल जी के लिए इस पुकार को अनसुना करना सम्भव नहीं है। देश एवं जनता से दूर होना गांधी परिवार के डीएनए में नहीं है। हम कांग्रेसजन अपने स्वार्थवश चाहते हैं, श्री राहुल गांधी जी अध्यक्ष पद पर बने रहें। हम अपनी शंकाओं एवं आशंकाओं से घिरे हुए हैं। राहुल जी कार्यसमिति की बैठक में अपने त्यागपत्र की घोषणा करते हुए, आगे की चुनौतियों को रेखांकित कर चुके हैं। उनका पत्र जो कांग्रेसजनों को संबोधित है, भारत एवं लोकतंत्र के सम्मुख खड़ी चुनौतियों को बयां करता है। यह पत्र कार्यसमिति में उनके कथन को और स्पष्ट करता है। राहुल जी चुनौती से भाग नहीं रहे हैं, बल्कि चुनौती को जीतने के लिए नैतिक शक्ति ग्रहण कर रहे हैं। हार स्वीकार करना ही बड़ा कठिन होता है। श्री राहुल गांधी जी ने हार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। भारतीय राजनीति में एक नया तत्व, अकाउंटेविलिटि, यह मात्र उत्तरदायित्व की स्वीकारोक्ति नहीं है, बल्कि एक संकल्प भी है। एक वाक्य शीर्ष से तल तक कांग्रेस पार्टी के सभी दायित्बोधी को अपने उत्तरदायित्व का बोध कराने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। राहुल जी के इस उद्घोष के बाद हम सबको अपने को बदलना पड़ेगा, अपनी कार्यपद्धति को बदलना पड़ेगा। लोकतंत्र में केवल सरकार और सरकारी मशीनरी के दायित्वबोधी होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि पार्टी तंत्र को भी दायित्वोयोगी होना चाहिए, यही राहुल जी का निश्चय बताता है। यदि एक बार यह परंपरा चल पड़ी तो इसका असर दूर तक जाएगा। भारतीय जनता पार्टी इस मामले में हमसे भिन्न है। वहां प्रत्येक व्यक्ति आरएसएस के प्रति उत्तरदायी है या आरएसएस उस पर नियंत्रण रखता है। हम पूर्णतः लोकतांत्रिक पार्टी हैं, पार्टी के सिद्धांतों और नेतृत्व का अनुसरण ही पर्याप्त है। हमारी पार्टी में अकाउंटेविलिटि का सिद्धांत लंबे समय से शुसुप्त हो गया है। राहुल जी ने उसे पुनः जगा दिया है। चुनावी हार के बाद कांग्रेस को पुनर्गठित करने में यह शब्द अब रामबाण बन जाना चाहिए। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इस शब्द के निहितार्थों को शब्दशः लागू करना चाहिए। यह प्रक्रिया अब शीर्ष से प्रारंभ होकर प्रत्येक स्तर तक जाएगी, कोई भी स्तर इस प्रक्रिया को लागू करने से बच नहीं सकता है।

राहुल जी द्वारा त्यागपत्र देने से पहले मैं नेहरू-गांधी परिवार का विशेषतः राहुल जी का उपकृत कांग्रेसजन था। पिछले डेढ़-दो वर्षों के संघर्ष के दौर में मैंने एक भिन्न राहुल देखे, सबका विश्वास जीतते हुए संघर्षशील राहुल। उनके त्यागपत्र ने मुझे भी झकझोरा। मुझ जैसे हजारों लोगों को लगा, अब हमारी सक्रिय राजनीतिक पारी का अंत हो गया है। मुझ जैसे लाखों लोग हैं, जिन्होंने कांग्रेस और नेहरू-गांधी शब्द से आगे कुछ देखा ही नहीं। राहुल जी द्वारा बार-बार पद त्याग पर जोर देने से हमारी सोच प्रक्रिया भी स्पष्ट हुई है। राहुल जी मैदान से हट नहीं रहे हैं, बल्कि द्वापर के कृष्ण की तर्ज पर सारी लोकतांत्रिक शक्तियों को लोकतंत्र बचाने के न्याय युद्ध से जोड़ रहे हैं। इस युद्ध के सारथी भी राहुल हैं और गांडीवधारी अर्जुन भी राहुल गांधी हैं। हम एक भीषण वैचारिक समर में हैं। यह समर गांधी के प्रादुर्भाव के बाद के भारत के स्वरूप, सोच, सिद्धांतों और मान्यताओं की जीत और हार का समर है। जीतेगी वही सेना जिसके नायक के पास नैतिक बल होगा, त्याग का नैतिक बल आज राहुल जी के पास है। हमें नेता नहीं चुनना है, वैचारिक महाभारत का संचालन कर्ता चुनना है। हमें केवल युधामन्यु (धृष्टद्युम्न) चुनना है, ऐसा व्यक्ति चुनना है, जो धर्म युद्ध को संचालित करे। युद्ध का नेतृत्व तो श्री राहुल गांधी जी ही करेंगे। हम लोकतंत्र के लिए इस युद्ध को जीतेंगे। हम सब श्री राहुल गांधी जी के साथ खड़े होकर प्राण-प्रण से इस युद्ध को लड़ेंगे और जीतेंगे। सारी दुनिया श्री राहुल गांधी को रणजीत कहेगी।

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