हरीश रावत एक ऐसे राजनीतिक योद्धा हैं जो हारे अवश्य, लेकिन उन्होंने कभी मैदान नहीं छोड़ा। लगातार जनता के बीच बने रहकर नई लड़ाई की तैयारियां करते रहे। इसका न सिर्फ उन्हें बल्कि कांग्रेस को भी फायदा मिलता रहा। यही वजह रही कि विधानसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें सीडब्ल्यूसी सदस्य बनाने के साथ ही राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी भी सौंपी है
अल्मोड़ा जिले के मोहनरी गांव में 17 जुलाई को जश्न का माहौल था। अखिर हो भी क्यों न। इस गांव के गाड-गधेरों और खेत-खलिहानों में खेल-कूद कर बड़े हुए हरीश रावत देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के सर्वोच्च नीति निर्धारण मंडल यानी कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यू सी) के स्थाई सदस्य बने थे। यही नहीं उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव और असम प्रदेश का प्रभारी भी बनाया गया है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्मयंत्री दिग्विजय सिंह जैसे सीनियर लीड़रों को दरकिनार कर राहुल गांधी ने हरीश रावत को कार्य समिति में शामिल कर संदेश दिया है कि पार्टी में अहमियत संघर्षशील और जुझारू नेताओं को ही मिलेगी।
हाईकमान के इस फैसले से जहां कांग्रेस की राजनीति में रावत का कद और बढ़ा है, वहीं उनके उन विरोधियों को भी तगड़ा झटका लगा है। जो यह मानकर चल रहे थे कि विधानसभा चुनाव में पार्टी और खुद की करारी हार से राज्य की राजनीति में रावत के लिए हालात फिर कभी अनुकूल नहीं होंगे। पहली बार है जब एक छोटे से राज्य उत्तराखण्ड के किसी नेता को आलाकमान द्वारा एक साथ इतने बड़े पदों से नवाजा गया है। 2017 में रावत के नेतृत्व में प्रदेश में बुरी तरह चुनाव हारी कांग्रेस के कुछ नेता अपने आपको रावत का ना केवल धुर-विरोधी दिखा रहे थे, बल्कि उन्होंने अपना गुट भी बना लिया था। इससे प्रदेश में गुटबाजी चरम पर थी। अब रावत के राष्ट्रीय नेतृत्व में जाने से उनके खिलाफ गुटबाजी कर रहे नेता परेशान हैं कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी नेतृत्व ने रावत पर भरोसा किया है। लेकिन दूसरी तरफ वे इस उम्मीद से खुश हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर व्यस्त रहने के कारण अब उत्तराखण्ड में हरदा का दखल नहीं होगा। लेकिन वह नेता मुगालते में हैं। रावत ऐसे खांटी नेता हैं जो एक साथ कई मोर्चों पर लड़ाई में आगे रहते हैं। फिलहाल नैनीताल लोकसभा सीट पर उनकी दावेदारी मजबूत हुई है। साथ ही उन पर प्रदेश की पांचों सीटों को जिताने का भार भी है। हरीश रावत ने तमाम किंतु-परंतु के बावजूद यह भी साबित कर दिया है कि हाईकमान पर राज्य के और किसी नेता के मुकाबले उनकी ज्यादा मजबूत पकड़ है। इसे रावत के सियासी करियर की एक ओर बड़ी छलांग के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि कुछ समय से रावत की राष्ट्रीय राजधानी में सक्रियता से कयास लगाए जाने लगे थे कि वे जल्द दिल्ली को अपनी कर्मभूमि बना सकते हैं। गत दिनों पार्टी हाईकमान के समक्ष हरीश रावत के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह, नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय की महत्वपूर्ण बैठक को इसी परिप्रेक्ष्य से देखा जा रहा है।

हरीश रावत ने अपनी राजनीति की शुरुआत ब्लॉक स्तर से की। जब वह महज 28 साल की उम्र में ही भिकियासैंण के ब्लॉक प्रमुख बने। इसके बाद वह अल्मोड़ा जिलाध्यक्ष बने। इसके तुरंत बाद ही वह युवा कांग्रेस के साथ जुड़ गए। हरीश रावत पहली बार 1980 में केंद्र की राजनीति में शामिल हुए। तब वह अल्मोड़ा से सांसद चुने गए थे। 1984 एवं 1989 में भी उन्होंने संसद में इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1992 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस सेवा दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का महत्वपूर्ण पद संभाला। जिसकी जिम्मेदारी वह 1997 तक संभालते रहे। राज्य निर्माण के बाद रावत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए। उनकी अगुवाई में 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ और उत्तराखण्ड में कांग्रेस की सरकार बनी। नारायण दत्त तिवारी के मुकाबले मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से पिछड़ने के बाद उसी साल नवंबर में रावत को उत्तराखण्ड से राज्यसभा भेजा गया।
1991, 96, 98 और 99 में वह लगातार चार बार लोकसभा चुनाव हार चुके थे। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी और 2009 में हरिद्वार से सांसद बनकर खोई प्रतिष्ठा वापस पाई। तब
तत्कालीन मुख्यमंत्री मनमोहन सिंह सरकार में रावत को पहले राज्यमंत्री और बाद में कैबिनेट मंत्री बनाया गया। 2012 में कांग्रेस एक बार फिर प्रदेश की सत्ता में आई तो इस बार भी पार्टी आलाकमान ने उनकी दावेदारी को नकार कर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया। इसका प्रदेश के विधायकों ने भारी विरोध किया। बहुगुणा के सत्ता संभालने के बाद से लगातार प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें चलती रही जो 16-17 जून 2013 में आई प्राकøतिक आपदा से निपटने में राज्य सरकार की नाकामी के चलते और तेज हो गई। अंततः विजय बहुगुणा को पदच्युत कर एक फरवरी 2014 को हरीश रावत को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बना दिया गया।
मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने के बाद रावत के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश को आपदा से उबारने की थी तो दूसरी तरफ बैसाखियों के सहारे चल रही अपनी सरकार को स्थिर रखने के लिए भी मशक्त करनी पड़ रही थी। पार्टी के विधायक भी दिक्कत कर रहे थे। राजनीतिक रूप से अत्यंत सक्रिय रहे उत्तराखण्ड में 2016 का साल सर्वाधिक उठापटक वाला रहा। जहां सत्ताधारी कांग्रेस विधायकों के मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ बगावत से शुरू हुई अस्थिरता के चलते प्रदेश ने 16 साल में पहली बार सरकार की बर्खास्तगी और राष्ट्रपति शासन देखा। फरवरी 2014 में हरीश रावत के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के समर्थकों को मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से तथा फिर प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सीट पर भी उनकी दावेदारी नकारे जाने से सत्ताधारी कांग्रेस के इस खेमे में अंदर ही अंदर सुलग रही चिंगारी 18 मार्च 2016 को भड़क गई। विधानसभा में बजट प्रस्ताव रखे जाने के दौरान सत्ताधारी दल के नौ विधायकों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया। इसी गहमागहमी में 18 मार्च 2016 से 18 मार्च 2017 तक रावत तीन बार मुख्यमंत्री पद पर आते और जाते रहे। इस दौरान हरीश रावत ने अपने राजनीतिक चातुर्य का परिचय देते हुए विषम परिस्थितियों में प्रदेश में राज किया। हालांकि 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में वह किच्छा और हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट से हार गए। तब राजनीतिक गलियारों में चर्चा होने लगी थी कि अब हरदा का राजनीतिक जीवन ढलान की ओर है। लेकिन वह उत्तराखण्ड की राजनीति में फिर से सक्रिय हुए। उनकी सक्रियता से घबराया हुआ कांग्रेस का एक गुट निरंतर उनके लिए राजनीतिक अवरोध पैदा करता रहा। लेकिन बिना रूके, बिना थके ही रावत अपने रास्ते पर चलते रहे। हार के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा उठाने और जनता का विश्वास हासिल करने में वे जिस तरह सक्रिय रहे इसी के चलते पार्टी आलाकमान ने उन पर भरोसा किया। हरीश रावत का अगला राजनीतिक पड़ाव 2019 का लोकसभा चुनाव है। जिसके लिए उन्होंने पहले ही कमर कस ली है।
रावत राजनीति के खुर्राट खिलाड़ी हैं। वह एक साथ कई लक्ष्य साधना जानते हैं। उनके बारे में मशहूर है कि एक समय वो अपने गांव की किसी सभा में होते हैं तो अगले ही पल हरिद्वार या दिल्ली में किसी कार्यक्रम में शामिल होते हैं। इधर वह टीवी बहसों में भी भाग ले रहे थे और अपने तीखे कटाक्षों से विपक्षी पार्टी भाजपा को घायल कर रहे थे। अभूतपूर्व सक्रियता और मूवमेंट के अलावा इधर हरीश रावत में एक और परिवर्तन आया है। वह यह कि जब से वे विधानसभा चुनाव हारे हैं तब से अधिक सक्रिय और सजग दिखते हैं। उनके बयान सधे हुए और उनके तर्क अकाट्य होते हैं। उनके पास तथ्य और आंकड़े भी होते हैं। उनकी सबसे बड़ी बात यह है कि वह विरोधियों की कमजोरी का होमवर्क करके आगे बढ़ते हैं। कुछ इसी तरह आजकल वह मिशन 2019 में लगे हैं। उत्तराखण्ड की पांचों लोकसभा सीटों पर विजय उनका अगला लक्ष्य है। जिसमें वह खुद नैनीताल लोकसभा सीट से तैयारियों में तल्लीन हैं।
राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं आम हैं कि अब राष्ट्रीय महासचिव और असम का प्रभारी बनने पर वह अपने मूल प्रदेश उत्तराखण्ड से दूर हो जायेंगे। लेकिन ऐसा कम से कम हरीश रावत के राजनीतिक जीवन में तो संभव नहीं है। उत्तराखण्ड को लेकर वह पहले से ज्यादा सजग होंगे। अब उत्तराखण्ड जैसे छोटे लेकिन राजनीतिक रूप से जटिल और अफसरशाही की कथित उच्छृंखंलताओं के लिए कुख्यात हो चुकी देवभूमि के हित में संभव है उन्होंने अपने औजार पैने करने शुरू कर दिए होंगे।