नागालैंड में सैनिकों की गोलीबारी में ग्रामीणों समेत 14 की मौत के बाद एक बार फिर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून ‘अफस्पा’ को हटाने की मांग तेज हो गई है। नागालैंड और मेघालय ने इस कानून को हटाने की मांग उठाई है। अफस्पा के विरोध में प्रदर्शन का पूर्वाेत्तर में लंबा इतिहास रहा है। शर्मिला इरोम ने लंबे समय तक इस कानून के खिलाफ अनशन जारी रखा था। इस कानून को हटाना पूर्वाेत्तर राज्यों का चुनावी मुद्दा भी रहा है। दरअसल, नागालैंड में पिछले हफ्ते हुई सुरक्षा बलों की कार्रवाई और उसके बाद भड़की हिंसा से उपजे सवाल 14 नागरिकों की मौत तक सीमित नहीं है। सभी मानते हैं कि इस मामले में सुरक्षा बलों से चूक हुई है। खुद गृहमंत्री ने घटना पर अफसोस जताया है और जांच की भी घोषणा की है। लेकिन ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या स्पष्टीकरण देती है, इससे बड़ा सवाल यह है कि सरकारी स्पष्टीकरण को उस क्षेत्र के लोग किस तरह देखते हैं। खासकर नॉर्थ-ईस्ट के संदर्भ में देखा जाए तो ऐसे तमाम मामलों में जांच की घोषणाएं होती रही हैं, लेकिन उनका कोई खास नतीजा निकलता नहीं देखा गया।

इसकी जड़ में है अफस्पा यानी ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’, जो सुरक्षा बलों को असाधारण अधिकार देता है। इस बार भी सरकार की तरफ से यह प्रतिबद्धता दिखाई गई है कि जांच में जो भी दोषी पाए जाएंगे, उनके खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी। पर क्या अफस्पा के रहते दोषियों के खिलाफ कानूनन किसी तरह की कार्रवाई संभव हो पाएगी? आज भी यह कानून नागालैंड, असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में लागू है। इसके तहत सुरक्षा बलों के जवान और अधिकारी संदेह के आधार पर किसी को गोली मार सकते हैं, बिना किसी वारंट के घर की तलाशी ले सकते हैं और कानूनी कार्रवाई से भी बचे रह सकते हैं। पिछले बीस वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से आर्मी के खिलाफ कार्रवाई की जितनी भी सिफारिशें आईं, केंद्र ने ‘अफस्पा’ के तहत उन सभी मामलों में मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया।
स्वाभाविक रूप से अफस्पा झेल रहे तमाम इलाकों में इसे काले कानून के रूप में देखा जाता है। इस बार भी घटना के बाद से अफस्पा हटाने की मांग तेज हो गई है। बीजेपी के सहयोगी दलों से जुड़े दो मुख्यमंत्री-नागालैंड के नेफ्यू रियो और मेघालय के कॉनराड संगमा भी ऐसी मांग करने वालों में शामिल हो चुके हैं। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद या उग्रवाद से निपटना काफी मुश्किल काम है और सुरक्षा बलों को भी अपनी जान जोखिम में डाले रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों या आम लोगों के बीच इस तरह का अहसास जमने देना ठीक नहीं है कि सुरक्षा बलों के जवान कुछ भी करें उनके खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी। कई चर्चित मामलों में भी सुरक्षा बलों के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न होने से ऐसा भाव बनने लगा है और यह भी एक वजह है कि कई विशेषज्ञ भी अफस्पा हटाने की जरूरत बताते रहे हैं। खासकर चीन के साथ सीमा विवाद से गरमाए माहौल और म्यांमार में सैन्य सत्ता की वापसी के चलते सीमावर्ती राज्यों में बने हालात को ध्यान में रखें तो अफस्पा पर पुनर्विचार की यह जरूरत और बढ़ जाती है।

गौरतलब है कि वर्ष 1958 में ‘अफस्पा’ कानून के लागू होने के बाद यह अनुमान लगाए जा रहे थे कि इस कानून के साथ सीमा के तनाव को कम किया जा सकेगा। वहां की बिगड़ी परिस्थितियों को सुधारा जा सकेगा लेकिन यह बार-बार शक के घेरे में खड़ा होता रहा है। अफस्पा के कारण सैनिकों द्वारा इस कानून का गलत इस्तेमाल करने को लेकर काफी विवाद होता रहा है। यही कारण है कि इसे हटाने के लिए कई बार आंदोलन भी होते रहे हैं। इस बीच हाल में हुई घटना के बाद एक बार फिर नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो और मेघालय के सीएम कोनराड संगमा ने गृह मंत्री अमित शाह से राज्यों से अफस्पा कानून हटाए जाने की मांग की है। नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने कहा, ‘मैंने केंद्रीय गृह मंत्री से बात की है। हम केंद्र सरकार से नागालैंड से अफस्पा हटाने की मांग कर रहे हैं।’ वहीं, मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा ने कहा कि ‘अब वक्त आ गया है। पूर्वाेत्तर में अफस्पा को हटा दिया जाए।’ मेघालय में विपक्ष के नेताओं ने भी इस मांग का समर्थन किया और कहा है कि यहां के नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता और सभी राजनीतिक दल वर्षों से पूर्वाेत्तर में अफस्पा हटाने की मांग करते आ रहे हैं।

क्यों हो रहा है कानून का विरोध कई बार सुरक्षा बलों पर इस कानून का दुरुपयोग करने का आरोप लग चुका है। ये आरोप फर्जी एनकाउंटर, यौन उत्पीड़न आदि के मामले को लेकर लगे हैं। यह कानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। इस कानून की तुलना अंग्रेजों के समय के ‘रौलट ऐक्ट’ से की जाती है। क्योंकि, इसमें भी किसी को केवल शक के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता है। यही कारण है कि इस कानून को हटाने की मांग तमाम एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ता करते रहते हैं। बड़ी घटनाएं जिसके बाद ‘अफस्पा’ हटाने की मांग तेज हुई नवंबर 2000ः मणिपुर में नवंबर 2000 में असम राइफल्स के जवानों पर 10 निर्दाेष लोगों को मारने का आरोप लगा था। उस दौरान कानून को खत्म करने की मांग को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठी थी। तब अफस्पा कानून को हटाने की मांग तेज हुई।
10 जुलाई 2004: आरोप है कि थंगजाम मनोरमा नाम की मणिपुरी महिला को भारतीय अर्द्धसैनिक इकाई के 17 वीं असम राइफल्स ने उसके घर से उसे पकड़ा था। अगली सुबह उसे गोलियों से भून दी गई, लाश एक खेत में पाई गई थी। पोस्टमार्टम में मरने से पहले बलात्कार किए जाने की बात सामने आई थी। 16 साल तक भूख हड़ताल पर रहीं इरोम शर्मिला मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला पूर्वाेत्तर राज्यों में लागू सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम अफस्पा को हटाने के लिए लगभग 16 वर्षों (4 नवंबर 2000 से 9 अगस्त 2016) तक भूख हड़ताल पर रहीं। जुलाई 2016 को उन्होंने अचानक घोषणा की कि वे शीघ्र ही अपना अनशन समाप्त कर देंगी। उन्होंने अपने इस निर्णय का कारण आम जनता की उनके संघर्ष के प्रति बेरुखी को बताया।
क्या है अफस्पा
यह एक कानून है, जो भारतीय सुरक्षा बलों को देश में युद्ध जैसी स्थिति बनने पर अशांत क्षेत्रों में शांति व कानून-व्यवस्था बहाल करने के लिए विशेष शक्तियां देता है। इसे वर्ष 1958 में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अध्यादेश के तौर पर पेश किया गया था, बाद में इसी वर्ष संसद ने कानून के तौर पर पारित कर दिया था। इसके तहत सेना पांच या इससे ज्यादा लोगों को एक जगह इकट्ठा होने से रोक सकती है। इसके तहत सेना को चेतावनी देकर गोली मारने का भी अधिकार है। ये कानून सेना को बिना वारंट के किसी को भी गिरफ्तार करने की ताकत देता है। इसके तहत सेना किसी के घर में बिना वारंट के घुसकर तलाशी ले सकती है।
कब-कब कहां लागू हुआ?
1958-मणिपुर और असम
1972-असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड
1983- पंजाब एवं चंडीगढ़
1990- जम्मू-कश्मीर
इन राज्यों में लागू है अफस्पा
पूर्वाेत्तर में असम, नागालैंड, मणिपुर (इंफाल नगर परिषद क्षेत्र को छोड़कर)
अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग, लोंगडिंग, तिरप जिलों में असम सीमा पर मौजूद आठ पुलिस थाना क्षेत्रों में अफस्पा लागू है