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दिल्ली में हिंसा के बाद मोदी सरकार के साख पर राख

दिल्ली में हिंसा के बाद मोदी सरकार के साख पर राख

देश की राजधानी में ही यदि निजाम की निजामत न रहे तो उसकी साख पर सवाल उठने लाजिमी हैं। गत् सप्ताह दिल्ली में एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मेजबानी में पूरा सरकारी अमला जुटा हुआ था तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय नागरिकता कानून के पक्षधरों और विरोधियों के मध्य पनप रहे तनाव ने दंगे का रूप ले लिया। इन दंगों में अभी तक दर्जनों लोगों की मौत हो चुकी है। दिल्ली की फिजा हिंसक बनी हुई है

संघर्ष, आंदोलन और प्रदर्शन लोकतंत्र की ताकत है, लेकिन हिंसा एक ऐसी कमी है जहां पहुंचकर समाज की सारी अच्छाइयां घुटने टेक देती हैं। एक ऐसे समय में जबकि दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क के राष्ट्रपति सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मौजूद थे, राष्ट्रीय राजधानी हिंसा की लपटों से झुलस रहा हो, तो इससे न सिर्फ राष्ट्र की साख पर आंच आनी स्वाभाविक है, बल्कि नेतृत्व और सुरक्षा तंत्र भी सवालों में घिर जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जिन इलाकों में दंगे हुए हैं,

वहां तमाम प्रतिनिधियों, गणमान्यों से सवाल पूछा जा सकता है कि जब आम निर्दोष लोग मारे जा रहे थे, तो तब आप कहां थे? और यही सवाल अदालत ने दिल्ली पुलिस से भी पूछा है, तो इसमें गलत क्या है? दंगे की आंच पर कौन क्या पका रहा है और कौन क्या पकने दे रहा है, ये हमें जरूर देखना चाहिए। पुलिस पर विश्वास का क्या स्तर है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सेना बुलाने की मांग की? राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को खुद ही पूरी स्थिति को संभालने में लगना पड़ा।

नागरिकता संशोधन कानून सीएए के विरोध और समर्थन से सुलगी हिंसक लप्टों ने 38 निर्दोष लोगों की जानें लील ली। करीब 300 से ज्यादा लोग अस्पतालों में भर्ती हैं। उन्माद की भेंट चढ़ने वालों में कांस्टेबल रतनलाल और सुरक्षा अधिकारी अंकित शर्मा भी शामिल हैं। उन्माद की आग के बीच सवाल सुलग रहे हैं कि किसी राजनीतिक दल के नेता या किसी नेता का कोई परिजन हिंसा का शिकार हुआ?

किसी भी पार्टी का कोई नेता हिंसात्मक भीड़ के बीच जाने का साहस जुटा पाया कि हिंसा समाज के लिए घातक है? दुनिया के सम्मुख राष्ट्र की नकारात्मक छवि न बनने दें? अतीत में दिल्ली को दंगों के जो जख्म मिले वे आज तक नहीं भर पाए हैं। स्थिति बेकाबू हो रही थी तो पुलिस ने समय पर कठोर कार्रवाई क्यों नहीं की? ऐसी स्थिति क्यों आई कि कोई पुलिसकर्मी तमंचा चला रहे उपद्रवी के सम्मुख महज डंडा लेकर जाने का साहस जुटाए? क्या पुलिस विभाग के उच्च अधिकारियों और सुरक्षा एजेंसियों को इसका अहसास है? सवाल सरकार पर भी उठ रहे हैं।

दंगों के 24 घंटे बीत जाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी चुप्पी तोड़ते हैं। वे जनता से अमन और भाईचारा बनाने की अपील करते हैं, पर उनकी इस अपील का सम्मान सबसे ज्यादा कानून व्यवस्था संभालने वालों और कानून बनाने वालों को करना चाहिए। यह दुःखद है कि आखिर कैसे दंगाइयों को पार्टियों, संगठनों और मजहबों के झंडे की छाया मिल जाती है।

दंगाई सिर्फ दंगाई होते हैं, देश के दुश्मन वो भी हैं जो ऐसे तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संरक्षण देते हैं। चाहे वो किसी भी पार्टी, संप्रदाय और वर्ग का सदस्य हो, पुलिस को निष्पक्षता से समय रहते भड़काऊ बयानों, तस्वीरों और वीडियो को परोसने वाले लोगों पर सख्ती बरतनी चाहिए, पर मौजूदा सरकार इस पूरे मामले में अपनी साख बचाने में नाकामयाब रही। गृह मंत्री अमित शाह के अधीन काम कर रही दिल्ली पुलिस की किरकिरी तब और ज्यादा हुई जब उसे दिल्ली हाइकोर्ट ने लताड़ा। जस्टिस एस मुरलीधर ने दिल्ली में बढ़ते तनाव को लेकर केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी। उन्होंने कहा, “जब नेता भड़काऊ भाषण दे रहे थे, तो दिल्ली पुलिस कमिश्नर क्या कर रहे थे?”

उन्होंने भाजपा के कई नेताओं के भी नाम लिए जिन्होंने सीएए के समर्थन में भड़काऊ भाषण दिए, जिनमें अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और प्रवेश वर्मा भी शामिल हैं। दिल्ली हिंसा को लेकर जस्टिस मुरलीधर ने 26 फरवरी 2020 को कहा था, “हम देश में दोबारा 1984 जैसी घटना होने नहीं दे सकते।” न्यायालय में सुनवाई के दौरान जो सबसे अहम बात रही वो यह कि जब जज ने दिल्ली दंगों के वीडियो के बारे में पुलिस से जवाबदेही मांगी तो दिल्ली पुलिस ने कहा कि उन्होंने इस तरह का कोई वीडियो देखा ही नहीं है। जिस पर जज को न्यायालय में ही वीडियो चलवाकर दिखाना पड़ा।

इन सबके बाद 26 फरवरी 2020 की रात अचानक ही पता चलता है कि जज का ट्रांसफर कर दिया गया है। सरकारी नोटिफिकेशन में कहा गया है कि संविधान के आर्टिकल 222 के तहत, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अनुशंसा पर राष्ट्रपति, जस्टिस मुरलीधर का दिल्ली कोर्ट से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज के तौर पर तबादला करते हैं। देर रात हुए इस ट्रांसफर ने आम लोगों के साथ-साथ प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को भी हैरान करके रख दिया है। यहां एक सवाल जरूर उठता है कि क्या दिल्ली में हुए दंगे और मौतों से केंद्र सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता?

इस मामले पर बाॅलीवुड एक्टर जीशान अय्यूब ने भी अपना गुस्सा ट्वीट कर जाहिर किया, उन्होंने अपने ट्वीट में सरकार पर जमकर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, “जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर के बाद यह बात और साफ हो जाती है, ये दंगे और मौतें सरकार की आंख में बिल्कुल नहीं चुभ रहीं और इसे रोकने की हर मुमकिन कोशिश को वो जल्द से जल्द कुचल देंगे।” कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दंगों को केंद्र सरकार की नाकामी बताया है। उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह के इस्तीफे की मांग की है। उन्होंने आम आदमी पार्टी सरकार को भी दोषी बताया।

याद आया 84 का खौफ

दिल्ली मुझे एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ी दिखी, जहां वह आज से 35 साल पहले थी। जलते हुए खोमचे, धधकती हुई दुकानों और खबरों में लाशों की गिनतियों ने मेरे जख्म फिर से कुरेद दिए हैं। ऐसा लगा, जैसे दिल्ली उसी मंजर को फिर से जी रही है। अक्टूबर 1981 में मेरी शादी हुई थी। मौजपुर में अपने संयुक्त परिवार के साथ हम खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। पति और उनके भाइयों का दिलशाद गार्डन में आरा मशीन का काम था। अच्छी कट रही थी। मगर नवंबर 1984 में उन मनहूस दिनों ने हम सबकी जिंदगी तबाह कर दी। 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी के कत्ल के बाद शाम से तनाव गहराने लगा था, मगर हमें रत्ती भर भी अंदेशा न था कि हमारे साथ इस कदर जुल्म होगा।

मेरे घर पर तीन दिनों तक हमले हुए, तीसरे दिन मेरा सब कुछ खत्म हो गया। मैं अपने बच्चों को लेकर धूप में बाल सुखा रही थी। तभी दंगाइयों के हुजूम को अपनी तरफ आते देखा। उस वक्त मेरा बड़ा बेटा एक साल ग्यारह महीने का और छोटा सिर्फ साढ़े चार माह का था। दंगाई हमारे घर में घुस गए। मेरी आंखों के सामने उन्होंने मेरे पति को जिंदा जला दिया।मैंने किसी तरह अपने दोनों बच्चों को कलेजे से चिपकाए पड़ोस के घर में घुसकर जान बचाई। दंगाइयों ने घर का सारा सामान लूट लिया और जो वो नहीं ले जा सके,उनमें आग लगा दी। मेरा सबकुछ राख हो गया। सिर्फ तन पर जो कपड़े थे, वही रह गए थे। मैं तो आज भी सोचती हूँ कि हमारा क्या कसूर था? हम तो मेहनतकाश लोग थे।अगर दंगाइयों ने हमें निशाना न बनाया होता, तो आज हम कहां होते? मैंने जो भोगा, उसका असर वक्त के साथ मद्धिम पड़ चला था। मगर 25 फरवरी 2020 की दोपहर एक बार फिर अपने इलाके में हंगामा बढ़ते और दुकानों से उठते धुएं को देखा, तो चैरासी का खौफ उभर आया।

मैंने बच्चों को घर के अंदर बंद कर दिया। देखिए, एक बार फिर कितने सारे बच्चों के सिर से बाप का साया उठ गया, कितनी मांगें उजड़ गयी। माओं की गोद सूनी हो गयी। यह सब देख- सुनकर लगा कि दिल्ली और मेरा दर्द कितना साझा है। एक बार फिर मौजपुर में दहशत की स्थिति है। चैरासी के बाद से आज तक अपनी हर प्रार्थना में मैंने अपने रब से यही दुआ मांगी है कि अमन- चैन कायम रहे, ताकि कोई बच्चा यतीम न हो। राजनीति करने वालों का तो कुछ नहीं बिगड़ता, मारे सिर्फ गरीब जाते हैं।’ -रजिंद्रर कौर, 1984 की दंगा पीड़ित

सरकार से सवाल

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पूछा, “क्या आपको यह डर था कि यदि आपकी पार्टी के नेताओं की स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच की जाएगी, तो दिल्ली की हिंसा, आतंक व अफरा-तफरी में आपकी खुद की मिलीभगत का पर्दाफाश हो जाएगा? निष्पक्ष व प्रभावशाली न्याय सुनिश्चित किए जाने से रोकने के लिए आप कितने जजों का ट्रांसफर करेंगे? क्या आपके पास अपनी ही पार्टी के नेताओं द्वारा दिए गए विषैले बयानों को उचित ठहराने का कोई रास्ता नहीं था, इसलिए आपने उस जज का ही ट्रांसफर कर दिया, जिसने पुलिस को आपकी पार्टी के नेताओं की जांच करने का आदेश दिया था?”

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी जस्टिस मुरलीधर के तबादले पर सवाल खड़े करते हुए आरोप लगाया कि सरकार ने न्याय अवरुद्ध करने का प्रयास किया है। जस्टिस मुरलीधर के तबादले पर घिरी सरकार की ओर से कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सफाई दी है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम ने प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में 12 फरवरी को ही उनके तबादले की सिफारिश कर दी थी। किसी भी जज के ट्रांसफर पर उनकी सहमति ली जाती है। और इस प्रक्रिया में इसका पालन किया गया है।

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