- ओंकार नाथ सिंह
पूर्व महासचिव, उत्तर प्रदेश कांग्रेस
सब जानते हैं कि यह अविश्वास प्रस्ताव वास्तव में प्रधानमंत्री जी की मणिपुर संहार पर चुप्पी को तोड़ने के लिए विपक्ष द्वारा लाया गया था, क्योंकि विपक्ष प्रधानमंत्री जी से सदन में वक्तव्य चाहता था जिसे प्रधानमंत्री जी ने देना अपनी शान के खिलाफ समझा जिस कारण पूरा सत्र एक तरह से बिना समुचित कार्यवाही किए बिना ही चला गया। मजबूर होकर विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा जिससे प्रधानमंत्री सदन में आए और मणिपुर पर भी जवाब दें। अंततोगत्वा विपक्ष अपने अभियान में सफल हुआ और प्रधानमंत्री जी को सदन में मणिपुर पर बोलना पड़ा जिसका देश इंतजार कर रहा था। हम आभारी हैं कि प्रधानमंत्री जी ने मणिपुर में शांति बहाल करने के लिए सदन को आश्वस्त किया। कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में नेता विरोधी दल मलिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री जी के भाषण को चुनावी भाषण कहने के बावजूद मणिपुर की हिंसा पर शांति बहाली का स्वागत किया। इसलिए सरकार और सदन दोनों से ही अपेक्षा जनता करती है कि जिस सदन में हम माननीय सांसदों को चुनकर भेजते हैं वह सदन की गरिमा को बनाए रखें और जो भी बयान सरकार द्वारा सदन में प्रस्तुत किया जाए कम से कम यह अवश्य ख्याल रखें कि उनके बयान से देश को गलत सूचना न मिले
विपक्ष द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था जो ध्वनिमत से गिर गया। अब जब पूरे देश की जनता ने लोकसभा की कार्यवाही को टीवी पर अपने-अपने घरों में देखा, तो जब आप कुछ देखते हैं उसे अच्छा या बुरा कुछ तो कहते ही हैं। जब अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में दूसरे दिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बोला तो उसके बाद लोग राहुल-राहुल के नारे लगाने लगे। कुछ लोगों ने इंडिया-इंडिया के नारे लगाए जिसे स्पीकर महोदय ने ऐसा नहीं करने के लिए कहा। यह ठीक भी है सदन माननीय सांसदों के वाद-विवाद में भाग लेने की है, संविधान में संशोधन लाने के लिए है, नए कानून बनाने के लिए है, न कि नारे लगाने के लिए। लेकिन जब अविश्वास प्रस्ताव के आखिरी दिन प्रधानमंत्री जी सदन में आए तो उस समय असम के भाजपा सांसद अंग्रेजी में अपना वक्तव्य दे रहे थे, उसी समय ट्रेजरी बेंच के सभी सदस्य खड़े होकर मोदी-मोदी के नारे लगाने लगे और स्पीकर महोदय ने किसी को भी ऐसा करने से रोका नहीं, मगर जैसे ही विपक्ष ने इंडिया-इंडिया के नारे उसके जवाब में फिर लगाया तो स्पीकर महोदय ने आपत्ति की। जब प्रधानमंत्री जी ने बोलना शुरू किया तो बीच-बीच में सत्तापक्ष के सदस्यों से हामी और नारे लगवा रहे थे। स्पीकर महोदय ने उन्हें ऐसा करने से भी नहीं रोका। सब जानते हैं कि स्पीकर सत्ताधारी दल के ही सदस्य होते हैं लेकिन स्पीकर के चयनित होने के बाद उन्हें कम से कम माननीय सांसदों और जनता की निगाह में निष्पक्ष दिखना तो चाहिए ही जो नहीं दिखा। यदि स्पीकर ट्रेजरी बेंच को यह कहते कि नारा लगाना उचित नहीं है तो सदन की गरिमा का महत्व जनता को समझ में आता। मैंने तो कई बार सदन की कार्यवाही को देखा है। जब अधिकारी था तो अपने विभाग के प्रश्नों के संबंध में कई बार विधानसभा की अधिकारी गैलरी में बैठने का अवसर मिला। मैंने देखा है कि सदन में यदि कोई सदस्य कार्यवाही के दौरान प्रवेश करता है तो सदन के अध्यक्ष की पीठ को सर झुका कर अभिवादन करता है और प्रयास करता है कि उसके कारण सदन की कार्यवाही बाधित न हो। यही स्थित लोकसभा की भी रहती है, परंतु अफसोस सदन की गरिमा अब वैसी नहीं रही, जैसी पहले थी।
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु आपके समक्ष मैं सदन के नेता के भाषण की गंभीरता को रखूंगा। सदन के नेता और देश के प्रधानमंत्री से सदन और देश कभी यह अपेक्षा नहीं करेगा कि वह सदन में गलत बयानी करें। प्रधानमंत्री जी ने मणिपुर के संबंध में बात करते हुए दो बिंदुओं पर तत्कालीन कांग्रेस सरकारों को कटघरे में खड़ा किया। पहली बात उन्होंने सदन को बताई कि पांच मार्च 1966 को कांग्रेस सरकार ने मिजोरम पर वायुसेना से हमला करवाया। यह भी कहा कि कोई अपने नागरिकों पर बम बरसाता है और सदन में शेम-शेम की आवाजें आईं। पाठक को यह जानना अति आवश्यक है कि उस समय मिजोरम की क्या स्थिति थी? मिजोरम की एमएनएफ पार्टी ने उसके नेता लालडेंगा के नेतृत्व में बगावत कर दी थी। इस बगावत में चीन और पाकिस्तान उनकी मदद कर रहे थे। एमएनएफ ने मिजोरम को स्वतंत्र घोषित कर दिया, सेंट्रल फोर्सेज को भगाने लगे, उनके हथियार छीन लिए और सरकारी खजाने को हथिया लिया। सरकारी कार्यालयों में आग लगा दी तथा राष्ट्रीय ध्वज को उतार कर अपना नया ध्वज फहरा दिया। अब आप बताइए कि तत्कालीन सरकार इस बगावत को रोकने के लिए क्या उपाय करती जब मिजोरम के सड़क मार्ग को चारों तरफ से रोक दिया गया। इसलिए यह कदम अगर तत्कालीन केंद्रीय सरकार न उठाती तो क्या करती? क्या मिजोरम को स्वतंत्र हो जाने देती और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती? यदि मिजोरम की उस बगावत को कुछ देश औपचारिक मान्यता दे देते तो भारत की क्या स्थिति होती? प्रधानमंत्री जी के बयान से तो ऐसा लग रहा था कि तत्कालीन सरकार ने देश की एकता और अखंडता को बचाने के बजाय देश के नागरिकों का संहार किया था। प्रधानमंत्री जी अपनी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव का बड़े ही प्रभावशाली ढंग से जवाब देते लेकिन गलत सूचना देश और सदन को नहीं देनी चाहिए। मिजोरम के बिना भी मणिपुर की बात कर सकते थे।
दूसरा बिंदु उन्होंने तमिलनाडु के रामेश्वरम से बारह किलोमीटर दूर एक कच्चातीवू द्वीप के बारे में बताया कि इस द्वीप को इंदरा गांधी जी ने श्रीलंका को थाली में सजाकर 1974 एवं 1976 में दे दिया। जनता को इसकी सच्चाई जानना आवश्यक है। यह द्वीप रामेश्वरम से बारह किलोमीटर और श्रीलंका के जाफना से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक निर्जन द्वीप है जो 285 एकड़ में फैला हुआ है। यह वैसा समुद्र नहीं है जहां बड़े जहाज आ-जा सकें। इसका मुख्य उत्पादन मछली पालन है। पहले इस पर आधिपत्य रामेश्वरम के रामनाड साम्राज्य का था। ब्रिटिश शासन के समय यह क्षेत्र मद्रास प्रेसीडेंसी के अधीन आ गया। चूंकि दोनों ही देशों, भारत और श्रीलंका जो उस समय सिलोन के नाम से जाना जाता था, पर ब्रिटेन का राज्य था तो इस क्षेत्र को मद्रास और सिलोन द्वारा ब्रिटिश भारत के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई। हालांकि 1921 में श्रीलंका ने कच्चातीवू पर अपना दावा बहाल कर दिया। तब से इस क्षेत्र पर श्रीलंका का ही आधिपत्य था जिसे भारत सरकार की आजादी के समय अंग्रेजों ने भारत का हिस्सा बताया था। भारत भी इसे अपना अवश्य बताता था, परंतु कब्जा श्रीलंका का ही था। 1974 और 1976 में भारत सरकार ने चार समझौते किए जिसके अंतर्गत दोनों देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय समुद्रीय सीमा रेखा सीमांकन करने हेतु संधियों पर हस्ताक्षर किए। इन संधियों ने भारत और श्रीलंका के बीच जोड़ने वाले पाक जलडमरू को टू नेशन पौंड बना दिया जो संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून-नियमों के अंतर्गत किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप को रोकता है। यह समझौता इस क्षेत्र में भारत के मछुआरों को मछली पकड़ने से नहीं रोकता। वह मछली पकड़ सकेंगे, अपना जाल सुखा सकेंगे और बिना वीजा के वहां के पूजा स्थलों पर जा सकेंगे। हां इस समझौते का विरोध तमिलनाडु की सरकार ने किया।
यह समझौता देशहित में किया गया था जिससे तीसरे देश को इस क्षेत्र का प्रयोग करने से रोका जा सके। भारत एक शक्तिशाली देश है यदि उसकी पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई समझौता किया है तो आने वाली सरकारों को उस समझौते का मान रखना चाहिए। यदि वर्तमान सरकार इसे अनुचित मानती है तो अब तक इस समझौते से जो समस्या उत्पन्न हुई उसे पिछले नौ वर्षों में देश और सदन को प्रधानमंत्री जी ने क्यों नहीं अवगत कराया और क्यों 2014 जून में इनके तत्कालीन अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी कि अंतरराष्ट्रीय समझौते के अंतर्गत यह क्षेत्र वापस नहीं लिया जा सकता, इसे लेने के लिए युद्ध करना पड़ेगा। आप सोचिए कि जिस क्षेत्र का आधिपत्य हमारी सरकार के पास था ही नहीं उसे एक विवादित क्षेत्र सरकार समझ रही थी फिर उससे समझौता करके यदि तीसरे देश के प्रवेश को संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार कानूनन हम रोकते, वह उचित है या सबका प्रवेश कराना उचित है। यह मैं पाठकों के ऊपर छोड़ता हूं।
तीसरी बड़ी आश्चर्यजनक जानकारी हमारे प्रधानमंत्री जी ने देश और सदन को दी कि तत्कालीन सरकार ने मां भारती के 1947 में तीन टुकड़े किए। भारत और पाकिस्तान के अलावा यदि कोई तीसरा देश बना हो तो कृपया आप लोग बताएं। प्रधानमंत्री जी ने यह भी कहा कि देश खूब निर्यात कर रहा है और जल्द ही विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। पाठकों की जानकारी के लिए 2022-23 में कुल निर्यात वस्तुएं- सेवाएं मिलाकर यह 770.18 अरब अमेरिकी डॉलर हुआ है और आयात 892.18 अरब अमेरिकी डॉलर हुआ है अर्थात् 122 अरब डॉलर का घाटा हुआ है। सब जानते हैं कि यह अविश्वास प्रस्ताव वास्तव में प्रधानमंत्री जी की मणिपुर संहार पर चुप्पी को तोड़ने के लिए विपक्ष द्वारा लाया गया था क्योंकि विपक्ष प्रधानमंत्री जी से सदन में वक्तव्य चाहता था जिसे प्रधानमंत्री जी ने देना अपनी शान के खिलाफ समझा जिस कारण पूरा सत्र एक तरह से बिना समुचित कार्यवाही किए बिना ही चला गया। मजबूर होकर विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा जिससे प्रधानमंत्री सदन में आए और मणिपुर पर भी जवाब दें। अंततोगत्वा विपक्ष अपने अभियान में सफल हुआ और प्रधानमंत्री जी को सदन में मणिपुर पर बोलना पड़ा जिसका देश इंतजार कर रहा था। हम आभारी हैं कि प्रधानमंत्री जी ने मणिपुर में शांति बहाल करने के लिए सदन को आश्वस्त किया। कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में नेता विरोधी दल मलिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री जी के भाषण को चुनावी भाषण कहने के बावजूद मणिपुर की हिंसा पर शांति बहाली का स्वागत किया। इसलिए सरकार और सदन दोनों से ही अपेक्षा जनता करती है कि जिस सदन में हम माननीय सांसदों को चुनकर भेजते हैं वह सदन की गरिमा को बनाए रखें और जो भी बयान सरकार द्वारा सदन में प्रस्तुत किया जाए कम से कम यह अवश्य ख्याल रखे कि उनके बयान से देश को गलत सूचना न मिले।
(लेखक के ये अपने विचार हैं।)