देश की कुछ महत्वपूर्ण राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने ना सिर्फ राज्य इकाईयों में चल रही अंतर्कलह को खत्म करने के लिए कवायद शुरू कर दी है , बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने के लिए संगठन में बड़े बदलाव की राजनीति भी लगभग तैयार कर ली गई है। सूत्रों की मानें तो इस बदलाव के तहत कई प्रदेशों में अध्यक्ष और प्रभारी बदले जाएंगे। उत्तराखंड व गुजरात में विधायक दल के नए नेता का चयन भी शीघ्र होने की बात सामने आ रही है । संगठन में फेरबदल की संभावनाओं के बीच वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से मुलाकात की है। इस मुलाकात के बाद इन अटकलों को बल मिला है कि उन्हें पार्टी में कोई अहम पद दिया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बनाए जाने की कयासबाजी चलने लगी है।
कांग्रेस अध्यक्ष से कमलनाथ की मुलाकात के बाद पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि अभी तस्वीर साफ नहीं है,लेकिन पार्टी कमलनाथ को कार्यकारी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बनाती है, तो उसका सीधा असर पंजाब विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। पंजाब में अगले साल चुनाव है। कमलनाथ पर 1984 के सिख विरोधी दंगो में शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं। पार्टी ने 2016 में कमलनाथ को पंजाब का प्रभारी नियुक्त किया था, पर चुनाव से ठीक पहले पंजाब में विरोध के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में उन्हें हरियाणा का प्रभारी बनाया गया था।
दूसरी तरफ, कमलनाथ की गिनती कांग्रेस नेतृत्व के भरोसेमंद नेताओं में होती है। उनकी पार्टी में भी अच्छी पकड़ है और वरिष्ठ नेताओं के साथ भी अच्छे रिश्ते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष को पत्र लिखने वाले असंतुष्ट नेताओं को मनाने में उनकी अहम भूमिका रही है। ऐसे में उन्हें अहम जिम्मेदारी मिल सकती है। कलनाथ की मुलाकात को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कांग्रेस नेतृत्व से बैठक के एक दिन बाद हुई है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि प्रशांत से साथ बैठक में कांग्रेस को पुनजीर्वित करने की संभावनाओं पर भी चर्चा हुई है।
दरअसल , कुछ ही महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस पर अब अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की रणनीति बनाने का दबाव है। भारतीय जनता पार्टी बड़ी चुनौती के रूप में सामने है ,लेकिन राज्यों में कांग्रेस अंदरूनी झगड़ों को निपटाने में ही उलझी हुई है। पार्टी कांग्रेस पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह बनाम नवजोत सिंह सिद्दू, कर्नाटक में सिद्धरमैया बनाम डीके शिवकुमार और उत्तराखण्ड में विपक्ष के नेता के चुनाव को लेकर करीब एक महीने से मंथन कर रही है, तो राजस्थान में अशोक गहलोत बनाम सचिन पयालट की लड़ाई को सुलझाने में व्यस्त है।
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कांग्रेस के भीतर आंतरिक कलह केंद्र ही नहीं राज्यों में भी नेतृत्व को लेकर भारी गुटबाजी चल रही है। स्थिति यह है कि जिन राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं , वहां भी स्थिति बेहद खराब है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की मुश्किलें खत्म होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। पंजाब विवाद अभी सुलझा नहीं है, वहीं दूसरे राज्यों में आंतरिक कलह जोर पकड़ने लगी है। पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों की नियुक्ति है क्योंकि, राज्यों में गुटबाजी चरम पर है।
तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी पंजाब विवाद को हल करने में नाकाम है। कई माह की मशक्कत के बावजूद कलह बरकरार है। उत्तराखंड में भी प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत में सहमति नहीं बन पाने की वजह से विवाद बढ़ता ही जा रहा है। पार्टी का आंतरिक झगड़ा सिर्फ इन दो प्रदेशों तक सीमित नहीं है। असम, पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड सहित कई दूसरे प्रदेशों में भी विवाद है। बिहार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं से नए अध्यक्ष को लेकर चर्चा की है। ताकि किसी तरह का विवाद न हो।
पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी से प्रदेश कांग्रेस के कई नेता नाराज हैं। वह चौधरी को हटाकर नया अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं, पर नया अध्यक्ष कौन हो, इसको लेकर एक राय नहीं है। सभी अपनी-अपनी दावेदारी कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि एक के बाद एक प्रदेश में शुरू हो रही अंदरूनी कलह की एक वजह पार्टी अध्यक्ष को लेकर अनिश्चितता है। पद की दावेदारी करने वाले सभी नेता और गुट पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाने की कोशिश करते हैं। इससे कलह बढ़ती है।
कांग्रेस के रणनीतिकार भी मानते हैं कि पार्टी नेतृत्व को और अधिक सक्रिय भूमिका निभानी होगी। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि राहुल गांधी ने प्रदेश कांग्रेस नेताओं से मिलना शुरू किया है। इसका लाभ जरूर मिलेगा, लेकिन उन्हें अपना दायरा बढ़ाते हुए जल्द निर्णय लेने होंगे।
पिछले हफ्ते हरियाणा कांग्रेस के 22 भूपिंदर सिंह हुड्डा समर्थक विधायकों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया । उनकी मांग हैं कि संगठन के मामलों में पूर्व सीएम को पूरी अहमियत दी जानी चाहिए। इन विधायकों का कहना है कि संगठन के मामलों में किसी भी फैसले को लेकर हुड्डा को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाओं के लिहाज से ऐसा करना सही नहीं होगा।
दिल्ली में डेरा डालने वाले इन विधायकों में भारत भूषण बत्रा, रघुवीर कादियान, कुलदीप वत्स, वरुण चौधरी, बिशन लाल सैनी, आफताब अहमद, राजिंदर जून, नीरज शर्मा, मेवा सिंह और जगबीर मलिक जैसे कद्दावर नेता भी शामिल हैं। इनमें से कई विधायकों ने कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल से मुलाकात भी की । इस मीटिंग में भी उन्होंने मांग की कि राज्य संगठन में किसी बदलाव को लेकर हुड्डा को अहमियत मिलनी चाहिए। दिल्ली आने से पहले सभी विधायक हुड्डा के घर एकत्रित हुए थे। हुड्डा समर्थक विधायकों में शामिल भारत भूषण बत्रा ने कहा, ‘हमारा अजेंडा ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी को प्रभावित करना है कि पार्टी के मामलों में पूर्व सीएम को भी महत्व दिया जाए।’
इस दौरान हरियाणा की एक और सीनियर लीडर किरण चौधरी ने भी केसी वेणुगोपाल से मुलाकात की है और कुमारी शैलजा का समर्थन किया है। दरअसल राज्य में प्रदेश अध्यक्ष बदलने की चर्चा है और हुड्डा अपने लिए यह पद चाहते हैं। ऐसे में कुमारी शैलजा के खेमे से टकराव की नौबत आ गई है। राज्य में कांग्रेस के कुल 31 विधायक हैं, जिनमें से 22 ने हुड्डा का समर्थन किया है। इस तरह से देखें तो पलड़ा हुड्डा का भारी नजर आता है।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा की लड़ाई पुरानी है। इससे पहले भी कई बार दोनों नेता आपस में जोर आजमाइश कर चुके हैं। शैलजा के करीबी नेताओं का कहना है कि हुड्डा जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं, क्योकि प्रदेश संगठन में परिवर्तन होने वाला है। हुड्डा को डर है कि उऩकी पकड़ कमजोर पड़ सकती है। इसलिए वह पार्टी नेतृत्व पर दबाव बना रहे हैं तो छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच पार्टी के सत्ता में आने के समय से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए खीचतान रही है इस पर तब पार्टी ने दोनों नेताओं के बीच ढाई – ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला तय किया था। लिहाजा फिर यह समस्या कड़ी हो गई है कि मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेंगे। बहरहाल अभी भूपेश बघेल आश्वस्त हैं कि वे मुख्यमंत्री रहेंगे। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री बदलने के फैसले तो गठबंधन सरकारों में होते हैं।
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव जो कि 2018 में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे और अब फिर से दावेदार हैं,उन्हें उम्मीद है कि आलाकमान उनके पक्ष में फैसला लेगा। सूत्रों के मुताबिक, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संकेत दिया था कि बघेल और सिंह देव, जो दिल्ली में भी थे, पांच साल के कार्यकाल को समान रूप से साझा करेंगे, जिसमें बघेल पहली बार जाएंगे। हालांकि, पिछले महीने पद पर ढाई साल पूरे करने वाले बघेल ने इस तरह के किसी भी समझौते से साफ़ इनकार किया है।