तिहाड़ जेल से निकलने के बाद स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया ने कहा था कि ‘अब मेरी पत्रकारिता की कलम और तेज हो गई है।’ हरियाणा के झज्जर के रहने वाले स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया जिन्हें 30 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने सिंधु बाॅर्डर से गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में बंद कर दिया था, उनकी गिरफ्तारी तब हुई थी जब वे सिंधु बाॅर्डर पर हो रहे किसान आंदोलन की ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग कर रहे थे। मनदीप पर दर्ज एफआईआर में धारा 186, 332, 355 सहित धारा 34 लगाई गई थी। हालांकि गिरफ्तारी के तीन दिन बाद उन्हें रोहिणी कोर्ट ने 25 हजार के निजी मुचलके पर जमानत दे दी थी। पुनिया से राजनीति और जनांदोलनों के बीच पत्रकारिता को लेकर शोभा अक्षर की खास बातचीत
जिस दिन आपको गिरफ्तार किया गया उसके एक दिन पहले ही आपने सिंट्टाु बाॅर्डर पर हुए तथाकथित किसान और जनता के बीच हुई झड़प में यह खुलासा किया था कि जो लोग आंदोलनरत किसानों से झड़प कर रहे थे वे लोग लोकल नहीं बल्कि बीजेपी के कार्यकर्ता हैं और पुलिस बकायदा उन्हें बैकअप दे रही थी। क्या आपको लगता है कि पुलिस ने आपको टारगेट करके गिरफ्तार किया?
बिल्कुल, क्योंकि दिल्ली पुलिस का जो नैरेटिव था, उस दिन जो उन्हें सेट करना था वह ध्वस्त हो गया था। उनका उद्देश्य था कि मीडिया में यह बात जाए कि सिंधु बाॅर्डर पर आंदोलनरत किसानों के विरोध में वहां के लोकल लोग इकट्ठा होकर उन पर पत्थर बाजी कर रहे हैं। दिल्ली पुलिस चाहती थी कि उस दिन किसान वर्सेज लोकल का नैरेटिव सफल हो जाये, इसीलिए वे उन तथाकथित लोकल लोगों को बैकअप भी दे रहे थे।
आप ये देखिये कि वे लोग लोकल नहीं, बल्कि भाजपा के कार्यकर्ता थे, इसका खुलासा मैंने अपने फेसबुक लाइव में बाकायदा उनके फेसबुक एकाउंट के साथ किया था।
तिहाड़ जेल में आपने देखा कि आपके साथ हरियाणा राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के गांव के ऐतिहासिक गुरद्वारा के एक ग्रंथी भाई जीत सिंह भी बंद हैं, जिनकी उम्र लगभग 70 वर्ष है। वहां उनसे आपकी क्या कुछ बातचीत हुई या नहीं?
हां, बातचीत हुई। उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें महज इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि वे बुराड़ी मैदान में आंदोलनरत लोगों को लंगर सेवा दे रहे थे। मैं बताना चाहता हूं कि बुराड़ी मैदान को खुद सरकार ने ही अलाॅट किया था विरोध प्रदर्शन के लिए। तो उन्हें सिर्फ सेवा देने के लिए गिरफ्तार किया गया? वहां तिहाड़ जेल में मैंने देखा कि सत्ता के सताए और भी लोग हैं जिन पर कोई भी आरोप लगाकर बस गिरफ्तार कर लिया गया था।
आपने तिहाड़ जेल के अंदर भी अपना पत्रकारिता धर्म निभाया, वहां आपने कलम का इंतजाम किया, रिपोर्टिंग की, कागज नहीं था तो आपने अपने पैर पर स्टेटमेंट्स लिखे। तिहाड़ जेल के भीतर की रिपोर्टिंग में क्या कुछ खास रहा?
देखिये, पत्रकारिता में सबसे जरूरी काम है ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग करना। जब मुझे गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल लाया गया तो मैंने सबसे पहले यही सोचा कि अगर मैं जेल में हूं तो मुझे यहां की भी ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग करनी चाहिए। मैंने वहां पाया कि कई किसान, मजदूर और भी कई लोग वहां सिर्फ ताकतवर सत्ता और पुलिस की दमनकारी नीतियों की वजह से बंद हैं। उनके पूरे शरीर पर जगह-जगह मार के निशान थे। कुछ किसान थे जिनके पैर पर इतना मारा गया था कि वहां बुरे तरीके से नीला निशान पड़ गया था। मुझे याद है कि जब सिंधु बाॅर्डर पर गिरफ्तार किया गया था तब एक टेंट में ले जाकर मुझे भी पुलिस ने बहुत मारा-पीटा। वे लोग मारते हुए चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे, ‘तू बहुत बड़ा पत्रकार बनने चला है, पत्रकारिता का भूत सवार है, अब चल तिहाड़ से ही रिपोर्टिंग करना।’ मुझे लगता है कि पत्रकार का काम है रिपोर्ट करना, मैंने तिहाड़ जेल में जाकर भी वही किया।
यह कितना चैलेंजिंग रहा होगा?
बिल्कुल। सत्ता तो यही चाहती है न कि आप डर जाएं, लेकिन हमें यही करना है कि डरना नहीं है। सत्ता को लगता है कि पत्रकारों को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को और जागरूक लोगों को दमनकारी प्रहार से डराया जा सकता है। हम जब डरेंगे नहीं तो वहीं वे विफल हो जाएंगे।
वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि, ‘डरा हुआ पत्रकार मरे हुए लोकतंत्र का प्रतीक होता है।’ बस जब तक हम डरेंगे नहीं तब तक वे अपने अहंकारी और दमनकारी उद्देश्य में कामयाब नहीं हो पाएंगे।
एक अध्ययन के अनुसार, पिछले एक दशक (2010-2020) में 154 में से 73 पत्रकार जिन्हें गिरफ्तार किया गया वे बीजेपी शासित क्षेत्रों से आते हैं, तो क्या यह कहा जा सकता है कि बीजेपी शासित सरकार में स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारों को पहले की सरकारों की अपेक्षा ज्यादा संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है?
देखिए, भारत में पत्रकारों के लिए कभी भी स्वर्णिम काल नहीं रहा। लेकिन यह जरूर कहना चाहूंगा कि वर्तमान दौर अब तक का सबसे बदत्तर दौर है। जो भी पत्रकार ग्राउंड जीरो पर जाकर रिपोर्टिंग करना चाहता है उसे रोकने के पूरे प्रयास किये जाते हैं। शुरुआत में हमें सिंधु बाॅर्डर पर भी नहीं जाने दिया जा रहा था। बात स्पष्ट है कि सत्ता अगर डरती है तो सिर्फ पत्रकारों के फैक्ट्स से, ग्राउंड जीरो की रिपोर्टिंग से। इसीलिए तमाम अड़चनंे डालने की कोशिश की जाती है, कभी दिल्ली पुलिस की मदद से तो कभी खास संगठन के लोगों को भेज कर, दंगे करवा कर। 5 अगस्त 2020 को भी यही हुआ था ‘द कारवां’ के पत्रकारों के साथ। आएसएस और बीजेपी के तथाकथित लोगों ने उन पर हमला किया था। पवन जायसवाल के साथ भी यही हुआ, सरकार ऐसे पत्रकार से डरती है जिसने नमक सरकारी स्कूल की दुव्र्यवस्था (नमक- रोटी रिपोर्ट) की सच्चाई दिखा दी।
इनमें नेहा दीक्षित, प्रशांत कनौजिया… और भी कई नाम शामिल हैं।
हां और इन सबमें एक और महत्वपूर्ण पत्रकार का भी नाम शामिल है। कप्पन सिद्दीकी, जिनको सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वे ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग के लिए हाथरस जा रहे थे।
स्टूडियो में बैठकर दरबारी मीडिया के लोग सिर्फ और सिर्फ सत्ता के इशारों पर नाच रहे हैं।
मतलब वर्तमान सरकार सिर्फ अपना वर्जन (पक्ष) ही जनता के बीच मीडिया के माध्यम से परोसना चाहती है?
यह तो साफ है कि सरकार की मंशा यही है कि सिर्फ उनका ही पक्ष लोगों के बीच जाए। इसके अतिरिक्त कुछ होता है तो उन पत्रकारों पर अक्सर कार्यवाही की जाती है। आप देखिए, जैसे पुण्य प्रसून के साथ हुआ। पत्रकार का तो काम ही यह है कि सत्ता जो छुपाना चाहती है वह उसका पता लगाए।
रोहिणी कोर्ट के जज ने आपको जमानत देते हुए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी, एक्जेक्टली उन्होंने क्या कहा था?
मेरे वकील थे वहां उन्होंने बताया कि जज ने कहा कि ‘बेल इज राइट,जेल इज एक्ससेप्शन।’ मैं दिल से शुक्रिया करता हूं जज का जिन्होंने इतना अच्छा फैसला सुनाया।
आपने बताया था कि आपको गिरफ्तार करने के बाद सबसे पहले पुलिस आपको एक अजीब सी बिल्डिंग में ले गई, वहां ये कह रहे थे कि, ‘इसकी रेड लाइट एरिया से गिरफ्तारी दिखा देते हैं। लेकिन वीडियो वायरल हो गया है तो यह नहीं कर सकते हैं। यह प्रकरण तो भारत की पुलिसिंग सिस्टम पर सवाल उठता है?
मेरे साथ तो वो जैसा चाहते थे, लेकिन नहीं कर सके क्योंकि मेरा वीडियो वायरल हो गया था। पर उनका क्या जिनका वीडियो नहीं बन पाता। एक ऐसा ही केस है नवदीप कौर के साथ गिरफ्तार हुए शिव कुमार का। शिव कुमार की गिरफ्तारी हरियाणा में 16 जनवरी को हुई, कागज में दिखाया गया 24 जनवरी।आखिर शिवकुमार को आठ दिन तक गैर कानूनी तरीके से क्यों रखा गया ? उसके शरीर पर पुलिस की यातनाओं के इतने निशान थे कि कोर्ट को दुबारा मेडिकल के लिए बोलना पड़ा। पुलिस का रोल ऐसे मामलों में तो बिल्कुल संदेहात्मक है।
पुलिस 22 और 23 साल के नौदीप और शिवकुमार को थर्ड डिग्री टाॅर्चर दे रही है। भारत की पुलिसिंग पर डिबेट होनी चाहिए और यह बातचीत जारी रखने की आवश्यकता है।
बहुत से लोग पत्रकारिता को ग्लैमर की दुनिया के नजरिये से देखते हैं, सिर्फ स्टूडियो में बैठकर टेलीप्राम्प्टर पढ़ने को पत्रकारिता कैसे कहा जा सकता है?
जो लोग ऐसा समझते हैं वे गलत समझ रहे हैं। पत्रकारिता ग्लैमर का क्षेत्र बिल्कुल नहीं है। यह एक जोखिम भरा क्षेत्र है। यहां सबसे जरूरी है ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग।
आपकी बात सही है पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्रों में ज्यादातर एंकर बनना चाहते हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि एंकर पत्रकारिता नहीं करते लेकिन पत्रकारिता का मूल है कि गंभीरता से हर पक्ष लिखा और दिखाया जाए।
बीजेपी सरकार से पहले कांग्रेस शासित सरकार में भी लगभग 19 पत्रकार ऐसे थे जिन पर झूठे चार्जेज लगा कर गिरफ्तार किया गया था। इस पर एक रिपोर्ट भी है। क्या यह नहीं होना चाहिए कि किसी की भी सरकार हो पत्रकार संगठनों को एकजुट होकर ऐसे मामलों में रेस्पाॅन्स करना चाहिए?
यह होना ही चाहिए, एक दम रेस्पाॅन्स करने की जरूरत है। अगर फिजिकली नहीं तो लिखित ही सही, पर रेस्पाॅन्स करना चाहिए। ऐसे कई संस्थान हैं जो ऐसे मामलों पर त्वरित काम करते हैं। जैसे सीएएजे (कमिटी अगेंस्ट असाल्ट आॅन जर्नलिस्ट), सीपीजे (कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट) आदि।
लेकिन पत्रकारिता से जुड़े हर एक का खुद का भी एफर्ट होना चाहिए।
आप ट्रोलर्स को कैसे डील करते हैं? क्योंकि सोशल मीडिया पर होने पर, खासकर पत्रकारिता से जुड़े लोगों पर एक विशेष तरह के ट्रोलर प्रहार करते हैं?
ट्रोलर्स एक खास मानसिकता के ही होते हैं। उनको रेस्पाॅन्स करना जरूरी नहीं है। उनको जवाब अपने फैक्ट और रिपोर्ट्स से देने की जरूरत है। हम उनके लेवल पर नहीं जा सकते हैं, हम पलट कर उन्हें गाली नहीं दे सकते। देखिए दो तरह के लोग हैं, एक काम करते हैं, दूसरे सिर्फ नंबर बढ़ाने के लिये लगे रहते हैं। यह तय करना होगा आपको कि आप किस तरफ हैं यदि आपको काम करना है तो इन्हें इगनोर करना होगा।