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असम में बहुविवाह पर लगेगी रोक !

पूर्वोत्तर राज्य असम पिछले दिनों बाल विवाह पर रोक लगाने को लेकर सुर्खियों में था। इस मामले में अभी भी राज्य की हेमंत बिसवा शर्मा सरकार की कार्यवाई जारी है। इस बीच अब शर्मा सरकार ने प्रदेश में बहुविवाह को लेकर बड़ा एलान किया है। दरअसल बहुविवाह प्रतिबंधित होने के बावजूद महिलाओं के हाशिए पर जाने और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से जुड़ी हुई है। इसलिए बहुविवाह पर भी रोक लगाने के लिए शर्मा ने एक कमेटी का गठन किया गया है। हिमंत बिसवा शर्मा ने इस मामले में ट्वीट कर कहा है कि असम सरकार ने यह जांचने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। जो यह देखेगी कि राज्य विधानमंडल को राज्य में बहुविवाह पर रोक लगाने का अधिकार है या नहीं। यह समिति भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के साथ पढ़े जाने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम, 1937 के प्रावधानों की जांच करेगी, जो कि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत हैं। समिति सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श करेगी। ताकि सही निर्णय लिया जा सके।

 

मुख्यमंत्री के कहने अनुसार मुस्लिम समुदाय को छोड़कर भारत में बहुविवाह आमतौर पर सभी धार्मिक समुदायों में प्रतिबंधित है। भारत अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और अनुबंधों का एक हस्ताक्षरकर्ता है। नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की समिति का हिस्सा है। इसमें महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव को खत्म करने को कहा गया है। बहुविवाह महिलाओं की गरिमा का उल्लंघन करता है। इसलिए यह प्रथा जहां भी मौजूद है, इसे खत्म किया जाना चाहिए।

 

सुप्रीम कोर्ट में पहुँच चुका बहुविवाह

 

 

मुख्यमंत्री का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के सुनवाई के बाद आया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में बहुविवाह की प्रथा भले पहले के मुकाबले घटी हो लेकिन अब भी ऐसे मामले सामने आते रहे हैं। खासकर आदिवासियों और अल्पसंख्यक तबके में ये मामले ज्यादा पाए जाते हैं। बहुविवाह की वैधता पर बहस काफी पुरानी है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुविवाह और निकाह हलाला जैसे प्रथा की संवैधानिक वैधता पर विचार के लिए बीते साल एक पांच-सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ का भी गठन किया था। जिसमें जस्टिस इंदिरा बनर्जी, हेमंत गुप्ता, सूर्यकांत, एमएम सुंदरेश और सुधांशु धूलिया ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ,राष्ट्रीय महिला आयोग और अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग(एनसीएम) को पक्षकार बनाकर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। लेकिन जस्टिस इंदिरा बनर्जी 23 सितंबर और जस्टिस हेमंत गुप्ता इस साल 16 अक्टूबर को रिटायर हो गए। इस वजह से मामले में दोबारा बेंच का गठन करना पड़ा।

रेशमा -बहुविवाह पर लगाई जाए रोक

 

बीते साल 28 साल की रेशमा नाम की महिला ने दिल्ली हाईकोर्ट से मांग की कि बिना उसकी लिखित सहमति के उसके पति को दूसरी महिला से निकाह करने से रोका जाए। यह मामला सामने आने के बाद भारत के मुसलमानों में कई विवाह करने के रिवाज (बहुविवाह) पर एक बार फिर ध्यान गया है। रेशमा ने मांग करते हुए कहा कि सरकार को निर्देश दिया जाए कि बहुविवाह के इस दकियानूसी रिवाज को नियंत्रित करने वाला कानून बनाया जाए।रेशमा की शादी मोहम्मद शोएब खान नामक शख्श से साल 2019 में हुई थी। जिसके अगले साल दम्पति का एक बच्चा हुआ। रेशमा ने आरोप लगाते हुए कहा कि उनके पति ने उन्हें और उनके बच्चे को छोड़ दिया और दूसरा निगाह करने की योजना बना रहे हैं। इसके अतिरिक्त भी रेशमा ने अपने पति पर कई आरोप लगाए हैं।

 

हिन्दू कोट बिल के माध्यम से बहुविवाह पर रोक

 

 

प्राचीन समय से ही बहुविवाह का प्रचलन रहा है। धार्मिक ग्रंथों में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। भगवान राम के पिता दशरथ के भी तीन पत्नी थी। इसके अलावा महाभारत के दौरान द्रौपदी की शादी ,पांच पांडवो से हुई थी। यही नहीं कृष्ण की भी शादी 16 हजार एक सौ आठ रानियां थी। यहां तक कि आजादी के बाद भी हिन्दू धर्म में पुरुषों को बहुविवाह करने का अधिकार था। लेकिन विधवाओं को दोबारा शादी करने का कोई अधिकार नहीं था। बहुविवाह प्रचलन के चलते महिलाओं को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। पति द्वारा परित्याग की गई महिला को समाज में आज भी अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। महिलाओं के प्रति ऐसे दुर्व्यवहार और उनके अधिकारों के हनन देखते हुए डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर और प्रधानमंत्री नेहरू ने 11 अप्रैल 1947 को हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में महिलाओं के हित को देखते हुए मृतक की पत्नी ,पुत्री ,पुत्र को बराबर संपत्ति देने के अधिकार का प्रावधान था। यह बिल दो तरह के विवाहों सांस्कारिक व सिविल को मान्यता देता था। इसमें हिंदू पुरुषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे। इस बिल के अंतर्गत तलाक के लिए सात आधारों का प्रावधान था। जैसे परित्याग , धर्मांतरण, रखैल रखना या रखैल बनना, असाध्य मानसिक रोग, असाध्य व संक्रामक कुष्ठ रोग, संक्रामक यौन रोग व क्रूरता जैसे आधार पर कोई भी व्यक्ति तलाक ले सकता था। इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। 1951 में इसे संसद में पेश किया गया जिसका लोगों द्वारा कड़ा विरोध किया गया। जिसके बाद इसे रोक दिया गया। देश के पहले लोकसभा चुनाव के बाद नेहरू ने इस बिल को खंड -खंड में विभक्त कर लागू किया जिसके बाद 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया। जिसके तहत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे से विवाह करने का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी यानी बहुविवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।

 

हिन्दू धर्म में बहुविवाह कानून

 

हिन्दू कोट बिल 1955 के तहत हिन्दू समुदाय में बहुविवाह को निषेध किया गया है । इस अधिनियम की धारा 11 के अनुसार दूसरा विवाह शून्य माना गया है। दरअसल हिन्दू व्यक्ति एक समय पर दो या उससे ज्यादा पत्नियां नहीं रख सकता। हिंदू पति या पत्नी दोबारा शादी तब तक नहीं कर सकते जब तक कि पहली पत्नी या पति के साथ उनके रिश्ते को समाप्त नहीं किया जाता है। इसके अलावा यदि पति/पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो वह दूसरा विवाह कर सकते हैं । लेकिन पहली पत्नी या पति के जीवित रहते हुए और बिना तलाक दिए हुए यदि कोई व्यक्ति दूसरी शादी करता है तो वह कानूनी दृष्टि में शून्य माना जाएगा। हिंदू विवाह अधिनियम के तहत, पहला पति या पहली पत्नी बहुविवाहित पति या पत्नी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा सकते हैं । हिंदू विवाह अधिनियम भारतीय कानूनी व्यवस्था में निहित है और हिंदुओं के लिए बहुविवाह को अवैध बनाता है।

विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के तहत, बहुविवाह शून्य हैं, अधिनियम सावधानी से एक विवाह में संबंधों को अनिवार्य करता है। लेकिन जब कोई इसके खिलाफ जाकर दूसरे संबंध स्थापित करता है तो अधिनियम की धारा 17 के साथ-साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 और 495 के तहत दंडित किया जाता है , जो इस तरह के आचरण को अपराध के रूप में परिभाषित करता है। दूसरी शादी करने पर धारा 494 के तहत व्यक्ति को सात साल तक की अवधि के लिए दंडित किया जा सकता है और उस पर जुर्माना भी हो सकता है।

 

मुस्लिम पर्सनल के तहत बहुविवाह

 

 

“आईपीसी” की धारा 494 [6] और 495 द्विविवाह को एक आपराधिक अपराध बनाती है। लेकिन धारा 494 के तहत और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार शरीयत अधिनियम की धारा 2 [7] मुसलमान पुरुषों को बहुविवाह करने की अनुमति देती है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह करने की अनुमति नहीं है जो विशेष रूप से धर्म और लिंग के आधार पर विवेकाधीन और निरर्थक आदेश लाती है। इस तरह, अनुच्छेद 14 [8] के तहत सुनिश्चित संतुलन गड़बड़ा जाता है और फिर से, यह मुस्लिम बहुविवाह की वैधता के पक्ष में है।

शरीयत के अनुसार इस्लाम धर्म में बहुविवाह अनिवार्य नहीं है, न ही इसे प्रोत्साहित किया जाता ह। लेकिन विषम परिस्थितियों जैसे अनाथ ,विधवा महिला पर अत्याचार होने जैसी स्थिति में शरीयत कानून पुरुषों को बहुविवाह करने की इजाजत देता है। शरीयत के मुताबिक एक मुसलमान पहली पत्नी की सहमति से शादियां कर सकता है।

 

भारत में बहुविवाह की स्थिति

 

वर्ष 1961 में की गई जनगड़ना के अनुसार देश के मुसलमानों में बहुविवाह का प्रतिशत सिर्फ 5.7 फीसदी था। जो दूसरे धर्म के मुकाबले कम था। उसके बाद किसी भी जनगड़ना में इससे संबंधित आकड़े नहीं जुटाए गए। हालांकि राष्ट्रीय परिवार सवास्थ्य सर्वेक्षण ने साल 2019 से 2020 के आकड़ों में बताया कि हिंदुओं की 1.3 फीसदी, मुसलमानों की 1.9 फीसदी और दूसरे धार्मिक समूहों की 1.6 फीसदी आबादी में अब भी बहुविवाह की प्रथा जारी है। इसके बाद मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्टडीज ने भी अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया कि गरीब, अशिक्षित और ग्रामीण तबके में बहुविवाह प्रथा की दर ज्यादा पाई गई है। ऐसे मामलों में क्षेत्र और धर्म के अलावा समाज-आर्थिक मुद्दों की भी भूमिका अहम है। डी डब्लू की एक रिपोर्ट में सरकारी आकड़ो के मुताबिक देश में वर्ष 2005 -06 के 1.9 फीसदी के मुकाबले वर्ष 2019-20 में बहुविवाह के मामले घट कर 1.4 फीसदी रह गये थे। पूर्वोत्तर राज्यों में यह दर ज्यादा रही है। मेघालय में यह 6.1 फीसदी और त्रिपुरा में दो फीसदी है। बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भी यह प्रथा जारी है, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के असावा बाक़ी जगह यह प्रथा हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों में ज्यादा प्रचलित है। गौरतलब कि गोवा में भी बहुविवाह करने पर छूट है। गोवा में 1869 से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। जो कि पुर्तगालियों का क़ानून है। जिसके तहत गोवा में रह रहे लोगों को बहुविवाह कर सकते हैं।

 

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