कुछ मुस्लिम नेताओं ने तालिबान की तारीफों के पुल बांधे तो कुछ भाजपा नेता कहने लगे हैं कि जिसे भारत में डर लग रहा हो, वह अफगानिस्तान चले जाए। इस तरह का वाक्युद्ध ही विवादास्पद राजनीतिक मुद्दों को जन्म देता है। आज ‘तालिबान’ आगामी यूपी चुनाव का एक बड़ा मुद्दा बनने वाला है
कुछ ही महीनों के भीतर पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां इन चुनावों के लिए सक्रिय हो चुकी हैं। इस बीच पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा भारतीय राजनीति का मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है। कहा जा रहा है कि आगामी चुनावों में यह अहम चुनावी मुद्दा बनेगा। खासकर भाजपा को लेकर कहा जा रहा है कि उसे बैठे बिठाए तालिबान के रूप में एक अच्छा चुनावी हथियार हाथ लग गया है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेता इसे आपदा में अवसर की तरह देखने लगे हैं। उनको लगने लगा है कि अब तालिबान और पाकिस्तान का भय दिखाकर, राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता जता कर, मुसलमानों के आक्रामक होने का नैरेटिव बनाकर वोट बैंक को और ज्यादा मजबूत बनाने का अभियान तेज होगा। यह अभियान सोशल मीडिया में शुरू भी हो गया है।
दरअसल, अगले साल उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उससे पहले यह संयोग है कि जिस दिन तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया उसी दिन उत्तर प्रदेश सरकार ने देवबंद में एंटी टेरेरिस्ट स्क्वायड का कमांडो सेंटर बनाने का ऐलान किया। सोशल मीडिया में इसे तालिबान के साथ जोड़कर ही प्रचारित किया जा रहा है। बहुत से लोग मान रहे हैं कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कमांडो सेंटर बनाने की जो पहल की है, वह आतंकवाद को करारा जवाब है।
देश के कुछ मुस्लिम नेताओं और संगठनों ने ऐसे बयान दिए हैं जिन्होंने ‘तालिबान’ को चुनावी मुद्दा बनाने का काम किया है। आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नोमानी ने तालिबान की जमकर तारीफ की और कहा कि उन्होंने दुनिया की सबसे ताकतवर फौज को हरा दिया है। उन्होंने हिंदी मुसलमानों की तरफ से तालिबान को सलाम भेजा। उधर समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने तालिबान की तारीफ करते हुए उनकी तुलना भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से कर दी। यहां तक कि मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने भी तालिबान को आजादी के लड़ाके कहा और दावा किया कि वे अपने देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे। बहुत सारे लोग तालिबान के इस प्रोपेगेंडा का भी प्रचार कर रहे हैं कि इस बार तालिबान बदला हुआ है। वह 20 साल पहले वाला तालिबान नहीं है। वह महिलाओं को अधिकार दे रहा है और उसने विरोधियों को आम माफी की घोषणा की है।
इन तमाम लोगों की वजह से ‘तालिबान’ चुनावी मुद्दा बन रहा है। तालिबान आज भी वही है या उससे भी ज्यादा बर्बर है, जैसा 20 साल पहले था। वह आज भी महिलाओं के साथ वही बर्ताव कर रहा है, जो 20 साल पहले करता था। देश के सभी लोगों को यह समझना होगा कि तालिबान का खतरा असली है और उसका विरोध करना कोई राजनीतिक या संप्रदाय का मसला नहीं है। यह लोकतंत्र और इंसानियत की रक्षा के लिए जरूरी है कि हर माध्यम से तालिबान का विरोध हो। लेकिन यह तब होगा, जब सभी पक्ष तालिबान को साझा दुश्मन मानेंगे। अगर एक पक्ष उसकी तारीफ करता रहा, सलाम भेजता रहा और उन्हें आजादी के लड़ाके बताता रहा तो तय मानें कि भारत में पहले से मौजूद सामाजिक विभाजन बहुत ज्यादा बड़ा हो सकता है। भारत में पहले से इस हालात का राजनीतिक लाभ लेने वाले सक्रिय हो गए हैं।
देश में अब लोगों को पाकिस्तान की बजाय अफगानिस्तान भेजने का अभियान शुरू हो गया है। पहले भाजपा के समर्थक बात -बात में कहते थे कि जिसे भारत में डर लग रहा है वह पाकिस्तान चले जाएं। अब वे कहने लगे हैं कि अफगानिस्तान चले जाए। मध्य प्रदेश के एक भाजपा नेता ने कहा कि जिनको ज्यादा महंगाई लगती है वे अफगानिस्तान चले जाएं। वहां सस्ता पेट्रोल-डीजल मिलता है। इसी तरह बिहार से भाजपा के एक विधायक हरिभूषण ठाकुर ने कहा कि जिन लोगों को भारत में डर लगता है वे अफगानिस्तान चले जाएं।
ऐसे में एक तरफ भाजपा की केंद्र सरकार ने अफगानिस्तान से भारत आने वाले लोगों के लिए इमरजेंसी ई-वीजा की प्रक्रिया शुरू की है, तो दूसरी ओर भाजपा के नेता अफगानिस्तान जाने का वीजा बांटने लगे हैं। बहरहाल जानकारों की राय है कि अभी भारत सरकार को घरेलू राजनीति में वोट बैंक की राजनीति से दूर रहना चाहिए और तालिबान के वास्तविक खतरे को समझना चाहिए। चीन, पाकिस्तान और रूस की मदद से तालिबान कितना ताकतवर और घातक हो सकता है इसका आकलन करना चाहिए और उस हिसाब से अपनी तैयारियां करनी चाहिए।