परिवारों वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए आगे का रास्ता मुश्किल होता नजर आ रहा है। सिद्धांतों से दूर, कुर्सी पर बने रहने के लिए किए गए जोड़-तोड़ के नतीजे महाराष्ट्र में सामने दिख रहे हैं। वंशवादी राजकुमारों को जमीन से जुड़े नेताओं की चुनौती पार्टियों की नींव हिला देती है। मौजूदा समय में महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के प्रमुख घटक दल शिवसेना में हुई टूट ने एक बार फिर वंशवादी राजनीति की कमजोरियां सामने ला दी हैं
लो तंत्र में निजी परिवारों वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए रास्ते मुश्किल होते नजर आ रहे हैं। सिद्धांतों से दूर, कुर्सी पर बने रहने के लिए किए गए जोड़-तोड़ के नतीजे महाराष्ट्र में सामने दिख रहे हैं। वंशवादी राजकुमारों को जमीन से जुड़े नेताओं की चुनौती पार्टियों की नींव हिला देती है। मौजूदा समय में महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी सरकार के प्रमुख घटक दल शिवसेना में हुई टूट ने एक बार फिर वंशवादी राजनीति की कमजोरियां सामने ला दी हैं। एक परिवार जब अपनी पार्टी को निजी संपत्ति मान कर किसी कंपनी की तरह चलाता है, तो उससे प्रदेश या देश देर तक स्थिर नहीं रह सकता। पार्टी में ही चुनौती मिलने पर जिस तरह से मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। इसके साथ ही महा विकास अघाड़ी में बिखराव दिखने लगा है। हालांकि, केवल महाराष्ट्र ही नहीं उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब और दिल्ली तक देश के कई बड़े सियासी परिवार संकट में फंसे नजर आ रहे हैं।
महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार
शिवसेना पहली बार बगावत का सामना नहीं कर रही है, लेकिन इस बार हाल ज्यादा बिगड़ गए हैं। खबर है इस फूट के बाद केवल पुत्र आदित्य ठाकरे ही हैं, जो मंत्री-विधायक के तौर पर अपने पिता उद्धव ठाकरे के साथ खड़े थे। आंकड़े बताते हैं कि विधानसभा में शिवसेना विधायकों की कुल संख्या 55 में से पार्टी के 40 विधायक बगावत कर चुके हैं।
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार चला रही तीनों ही पार्टियां लोकतांत्रिक लोगों का समूह न होकर परिवार विशेष की कंपनियों की तरह काम करता नजर आ रही थी। शिवसेना और ठाकरे परिवार, एनसीपी और पवार परिवार जैसे महाराष्ट्र में एक-दूसरे का पर्याय हैं, वैसे ही उनकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस नेतृत्व के लिए गांधी-नेहरू परिवार से आगे नहीं देख पाती है। नतीजा यह है कि कमोबेश तीनों ही पार्टियों में नेतृत्व का संकट है। दरअसल शिवसेना का कमजोर नेतृत्व महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनाव में उभर कर आ गया था। उसी कमजोरी का फायदा चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार ने उठाया। भले ही उद्धव मुख्यमंत्री बने, लेकिन सबने महसूस किया कि सरकार का रिमोट पवार और उनकी पार्टी के पास था। उसी का नतीजा एकनाथ शिंदे के रूप में सामने आया है।
दिल्ली में गांधी परिवार
साल 2014 से लेकर अब तक कांग्रेस और गांधी परिवार ने कई सियासी झटकों का सामना किया है। हालांकि पार्टी को साल 2018 में तीन राज्यों में जीत मिल गई थी, लेकिन हालिया उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा के दम भरने के बावजूद पार्टी एक सीट पर सिमट गई। वहीं पंजाब में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के हाथों बुरी तरह हार के बाद सत्ता गंवा दी। हालात इस कदर बिगड़े की पार्टी ने यूपी उपचुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया। दिल्ली विधानसभा उपचुनाव राजेंद्र नगर और पंजाब के संगरूर में पार्टी की जमानत जब्त हो गई। ये ऐसे दो राज्य हैं, जहां कभी कांग्रेस ने शासन किया है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि ऐसी पार्टियां या तो संस्थापकों के रहने तक या फिर छोटे राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति होने तक ही जनता पर असर बनाए रख पाती हैं। इसके बाद वे उतार पर आ जाती हैं।
उत्तर प्रदेश में यादव परिवार

यूपी के दिग्गज नेता और पिता मुलायम सिंह यादव से कमान हासिल करने के बाद अब तक समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव बड़ी सफलता खोज ही रहे हैं। साल 2014, 2017, 2019 और 2022 में पार्टी लगातार पराजित हुई है। यूपी उपचुनाव में पार्टी ने आजमगढ़ और रामपुर जैसी सीटें गंवा दी हैं।
पंजाब में बादल परिवार
कभी एनडीए के साथ मिलकर पंजाब पर राज करने वाली बादल परिवार के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल अब संकट से जूझ रही है। परिवार और पार्टी के मुखिया प्रकाश सिंह बादल ने यहां एक दशक तक मुख्यमंत्री के तौर पर शासन किया है। अब पार्टी की हालत यह है कि संगरूर उपचुनाव में पार्टी अपनी जमानत भी नर्ही बचा पाई। वहीं विधानसभा चुनाव में विक्रम सिंह मजीठिया समेत कई बड़े नेताओं को हार का सामना करना पड़ा।
इस हंगामे में किधर है कांग्रेस
महाराष्ट्र में कांग्रेस की स्थिति यह है कि राज्य स्तर पर कोई ठोस नेतृत्व नहीं है और हर कदम उठाने से पहले दिल्ली की तरफ देखा जाता है। वर्तमान संकट को संभालने के लिए भी राज्य के किसी नेता की भूमिका नजर आती दिख नहीं रही है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते पार्टी टूटने की यह स्थिति देख चुके कमलनाथ को यहां विधायकों को संभालने के लिए दौड़ाया गया। एनसीपी की सारी बागडोर शरद पवार के हाथों में है और सिर्फ उन्हीं की आवाज सुनी जाती है। ऐसे में कंपनियों की तरह चलाई जा रही, तीनों पार्टियां एकनाथ शिंदे के कदम से महाराष्ट्र में अचानक मुश्किल में घिर गई हैं।
दूसरी पार्टियों के लिए भी खतरे
यह स्थिति सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं है। भाजपा को छोड़ अन्य राष्ट्रीय या प्रादेशिक पार्टियों का हाल यही है कि वे एक परिवार की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चल रही हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी यादव परिवार की प्रॉपर्टी मानी जाती है। पश्चिम बंगाल में ममता और उनके भजीते, हरियाणा में चौटाला, पंजाब में बादल, ओडिशा में पटनायक से लेकर तमिलनाडु में डीएमके ऐसी राजनीति के कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं।