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पुलिस का काम कानून की रक्षा करना है, कानून तोड़ना नहीं

राजकुमार भाटी
वरिष्ठ पत्रकार

 

विकास दुबे प्रकरण में ऐसा क्या है जिसके लिए पुलिस की प्रशंसा की जाए? शुरुआत से लेकर अंत तक विकास दुबे की पूरी कहानी पुलिस की असफलताओं की कहानी है। 2001 में उसने थाने के अंदर 20 पुलिस वालों के सामने सरकार के दर्जा प्राप्त मंत्री की हत्या की और उसमें न्यायालय से बरी हो गया। एक भी पुलिस वाले ने उसके खिलाफ गवाही नहीं दी। क्या यह समूचे पुलिस विभाग के लिए शर्मनाक नहीं है? पिछले सप्ताह अपने घर पर दबिश डालने आई पुलिस पर गोलियां बरसाकर सीओ और एसओ समेत 8 पुलिसवालों की हत्या कर दी। क्या यह पुलिस की कमजोरी का सबूत नहीं है? बाद में पता चला कि विकास को स्थानीय थाने के एसओ ने ही खुद फोन करके पुलिस टीम के आने की मुखबिरी की थी। क्या यह पुलिस का अपराधियों के लिए काम करने का सबूत नहीं है?

आठ पुलिसकर्मियों की हत्या और छह को घायल करने के बाद जब पूरा देश इस घटना को लेकर उद्वेलित था तब भी विकास दुबे दो दिन तक कानपुर जिले में ही छुपा रहा। क्या यह पुलिस की अक्षमता और अयोग्यता नहीं है ? पूरे प्रदेश की पुलिस के अलर्ट होने के बावजूद विकास दुबे कानपुर से फरीदाबाद और फरीदाबाद से उज्जैन पहुंच गया। क्या यह पुलिस की लापरवाही और निकम्मेपन की मिसाल नहीं है ? जो लोग अभी भी उत्तर प्रदेश पुलिस को जांबाज, बहादुर और साहसी कहकर उसकी पीठ थपथपा रहे हैं और उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हैं क्या इन लोगों की समझ पर तरस खाने की जरूरत नहीं है ? हमें पता होना चाहिए की पुलिस का काम कानून की रक्षा करना और अपराधियों को कानूनी प्रक्रिया के तहत अदालतों से सजा दिलवाना है न कि गैर कानूनी तरीके से उनकी हत्या कर देना।

विकास दुबे प्रकरण में दो बातें तो शीशे की तरह साफ हैं। एक तो उसने उज्जैन के महाकाल मंदिर में अपनी मर्जी से पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया। दूसरे उसे मध्य प्रदेश से लेकर आ रही उत्तर प्रदेश पुलिस ने मुठभेड़ की फर्जी कहानी बनाकर उसकी हत्या कर दी।

 

इन दोनों तथ्यों की रोशनी में यदि अपने विवेक का प्रयोग करें तो मुझे ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार और सरकार में बैठे उसके आकाओं की सहमति और योजना के तहत ही उज्जैन में उसकी गिरफ्तारी हुई थी। और उसके राजनीतिक आकाओं ने हत्या से उसे बचाने की तैयारी कर ली थी। किंतु अपने साथियों की हत्या से क्रुद्ध पुलिस ने राजनीतिक आकाओं की नहीं सुनी और अपने साथियों का बदला लेने के लिए विकास दुबे का काम तमाम कर दिया। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि महाकाल मंदिर में जिस सुबह विकास दुबे की गिरफ्तारी हुई उससे पहली रात को मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और जिले के डीएम, एसएसपी उस मंदिर में थे। गृहमंत्री इस जिले के प्रभारी मंत्री भी हैं और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वह भाजपा की ओर से कानपुर जिले के प्रभारी थे। क्या ये सारी कड़ियां जोड़कर मेरा अनुमान सही नहीं लगता।

पुलिस के बारे में मैं आपको दो बातें बताना चाहता हूं। एक तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रहे आनंद नारायण ‘मुल्ला’ ने बहुत पहले अपने एक फैसले में यह टिप्पणी की थी कि पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है और पुलिस से बड़ा गुंडा कोई नहीं होता। दूसरे दाऊद इब्राहिम गिरोह के कुख्यात अपराधी बबलू श्रीवास्तव ने एक आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ‘अधूरा ख्वाब’ के नाम से लिखा जिसमें उसने अपने द्वारा किए गए कई अपराधों, खासतौर से अपहरण की घटनाओं के सच्चे विवरण लिखे हैं। इसमें बार-बार जिक्र आता है कि बड़े से बड़ा अपराधी भी पुलिस से टकराने में डरता है। गिरोह के सरगना अपने गुर्गों को खास हिदायतें देकर भेजते थे कि किसी भी परिस्थिति में पुलिस पर गोली नहीं चलानी है। इन अपराधियों का मानना था कि पुलिस के एक सिपाही को भी गोली लग जाए तो फिर पूरी पुलिस उस अपराधी को नेस्तनाबूद करने में जुट जाती है।

विकास दुबे प्रकरण में जस्टिस मुल्ला और बबलू श्रीवास्तव दोनों की बात प्रमाणित होती है कि अपने साथियों की हत्या के बाद पुलिस ने किसी की नहीं सुनी होगी और विकास दुबे का काम तमाम कर दिया। मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि बड़े-बड़े नेता, पत्रकार, बुद्धिजीवी और समाजसेवी भी इस प्रकरण पर पुलिस की प्रशंसा करते देखे जा रहे हैं। मेरी जरा भी सहानुभूति विकास दुबे अथवा उस तरह के अपराधियों के साथ नहीं है, किंतु मुझे चिंता इस बात की है कि क्या न्याय करने का काम पुलिस को ही दे दिया जाएगा ? क्या न्यायालय की कोई भूमिका नहीं रहेगी?

कितना भी बड़ा अपराधी हो और कितनी भी गंभीर घटना हो पुलिस को गैर कानूनी तरीके से किसी की हत्या की अनुमति नहीं दी जा सकती। अगर यह अनुमति दी जाएगी तो फिर कोई भी सुरक्षित नहीं है, कानून के राज की कल्पना करना ही बेकार है। ऐसा करने पर पुलिस दोनों तरह से विफल दिखाई देती है। एक तो पुलिस ने पेशेवर तरीके से और जिम्मेदारी के साथ अपना कार्य नहीं किया तब विकास दुबे जैसे अपराधी समाज में पनपे, दूसरे उन्हें खत्म करने के लिए भी संविधान और कानून से मिले अधिकारों का उपयोग न करते हुए गैर कानूनी तरीका अपनाया। यानी दोनों तरफ अपराधी खड़े हो गए। अपराधी तो अपराध कर ही रहे हैं पुलिस भी अपराध कर रही है।

यदि हमें एक सभ्य समाज का निर्माण करना है, एक संवैधानिक रूप से सफल लोकतांत्रिक राष्ट्र बनना है, तो पुलिस को कानून के दायरे में रहकर काम करना सिखाना होगा। जो लोग यह कुतर्क करते हैं कि पुलिस पर हमले होते हैं तो पुलिस भी क्यों ना इसी तरह अपराधियों को मारे, उनसे माफी के साथ कहना चाहता हूं कि सरकार पुलिस को यदि वेतन देती है, वर्दी देती है, हथियार देती है, अधिकार देती है तो सिर्फ कानून की रक्षा के लिए। यदि इन हथियारों का प्रयोग कानून तोड़ने के लिए किया जाने लगेगा तो फिर कानून की रक्षा कौन करेगा ? पुलिस का पहला कर्तव्य कानून की रक्षा करना है। इसलिए कुर्बानी देकर भी उसे कानून तोड़ने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

पुलिस सुधारों की बात समय-समय पर देश में उठती रहती है। इस बारे में कई आयोग और समितियों की रिपोर्ट भी अलमारियों में दबी पड़ी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक लोग अपने निहित स्वार्थों के कारण पुलिस सुधारों को लागू नहीं करना चाहते। किंतु यह भी सच है कि पुलिस में भी जो लोग पैसे कमाने की नीयत रखकर नौकरी करते हैं उन्हें भी पुलिस सुधार रास नहीं आते। वह भी मलाईदार पोस्टिंग के लिए अपने राजनीतिक आकाओं की जी हजूरी करते हैं। और उनके जरा से इशारे पर गैर कानूनी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं।अगर पुलिस यह सोच ले कि उन्हें अवैध कमाई नहीं करनी है, संपत्ति अर्जित नहीं करनी है और मलाईदार पोस्टिंग की चिंता नहीं करनी है तो उसी दिन से पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त हो जाएगा।

मैंने पुलिस सुधार के संबंध में किसी समिति अथवा आयोग की रिपोर्ट तो नहीं पढ़ी है, किंतु मैं अपनी सोच के आधार पर यह सुझाव देना चाहता हूं कि पुलिस को तीन विभागों में बांट देना चाहिए। अपराधिक घटनाओं के संबंध में तीन महत्वपूर्ण कार्य होते हैं। 1. अपराध का पंजीकरण। 2. अपराध का अन्वेषण और 3.न्यायालय में अभियोजन। इस समय तीनों कामों को एक ही पुलिस करती है। वहीं पुलिस अपराध का मुकदमा दर्ज करती है। वही पुलिस उसकी जांच करती है। और वही पुलिस न्यायालय में उस अभियोग का संचालन करती है। इससे पुलिस की पेशेवर क्षमता में दिक्कतें आती हैं। हमें तीनों कामों के लिए अलग-अलग पुलिसकर्मी नियुक्त करने चाहिए और उनकी ट्रेनिंग उसी के अनुरूप होनी चाहिए। जो पुलिस मुकदमों के पंजीकरण का काम करे उसे नागरिकों से सम्मानजनक व्यवहार और मुस्कुराकर बात करने की ट्रेनिंग होनी चाहिए। और उनके अंदर हर अपराध का जल्दी से जल्दी पंजीकरण करने का जज्बा होना चाहिए। अन्वेषण करने वाली पुलिस को आधुनिक तौर-तरीकों की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए ताकि वे विज्ञान और तकनीक का सहारा लेकर जल्द से जल्द असल अपराधियों को पकड़कर कानून के समक्ष खड़ा कर सकें और उनके खिलाफ पुख्ता सबूत पेश कर सकें। अभियोजन का संचालन करने वाले पुलिस कर्मियों को अदालत और कानून की पेचीदिगियों के साथ-साथ बिना कोई लापरवाही किये अपराधी को सजा तक जल्द से जल्द पहुंचाने की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए।

इसके साथ साथ पुलिस से दो काम फालतू के और लिए जाते हैं। एक यातायात का संचालन और दूसरे वीआईपी ड्यूटी। मेरा सुझाव है कि यातायात संचालन के लिए अलग और वीआईपी ड्यूटी के लिए अलग पुलिस व्यवस्था होनी चाहिए। इतने सुधार होने के बाद मुझे विश्वास है कि अपराधों की दर काफी घटेगी और नए अपराधी समाज में पैदा होने कम हो जाएंगे। और पुलिस के कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप भी बंद हो जाएगा।

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