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  • वृंदा यादव

 

देशभर में स्वच्छता और प्रदूषण का परिदृश्य वर्षों से निराशाजनक रहा है। इसको लेकर समाज में जैसी चेतना होनी चाहिए, वैसी नहीं है। दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति गंभीर तो है ही, लेकिन अन्य राज्यों के प्रमुख शहरों में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं

ठंड के मौसम में साल दर साल यह कहानी दोहरायी जाती है। इस मौसम के आते ही हवा भारी हो जाती है और दिल्ली पर प्रदूषण की चादर छा जाती है। पिछले कई वर्षों से लगातार प्रदूषण पर चिंताजनक रिपोर्ट आ रही हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है। देश की सरकार जैसे किसी बड़े हादसे के इंतजार में हो। इसके पहले सभी छठ के अवसर पर दिल्ली में यमुना की स्थिति भी देखे थे। तस्वीरें सामने आई थीं कि झाग के पानी के बीच लोग अर्घ्य दे रहे थे। देश की राजधानी की यह स्थिति बेहद चिंताजनक है।

देश की राजधानी गैस चैंबर बन जाए और वह भी प्राकृतिक आपदा से नहीं, बल्कि मानव निर्मित कारणों से, फिर भी समाज में इस पर कोई विमर्श नहीं हो रहा है तो यह गंभीर सवाल है कि क्या हम किसी हादसे के बाद ही चेतेंगे? हर साल दिल्ली में प्रदूषण को काबू करने के तमाम जतन फेल हो जाते हैं, क्योंकि दिल्ली से सटे राज्यों में बड़े पैमाने पर पराली जलाई जाती है। यह देश का दुर्भाग्य है कि जनहित के विषय भी राजनीति से अछूते नहीं रह पाते हैं। हल निकालने के बजाय गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने की कोशिश होती है। पहले पराली जलाने के लिए पंजाब के किसानों को जिम्मेदार बता कर पंजाब सरकार से सहयोग न मिलने की बात कही जाती थी, लेकिन अब तो दिल्ली और पंजाब, दोनों में एक ही दल की सरकार है तो जाहिर है कि यह इच्छाशक्ति की कमी का मामला है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी पराली जलाते हैं। दिल्ली के प्रदूषण में ये भी योगदान देते हैं। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारों के साथ बैठक कर समाधान निकाले।

रोजाना खबरें आ रही हैं कि दिल्ली में संकट बढ़ता जा रहा है। वायु गुणवत्ता सूचकांक गंभीर श्रेणी में पहुंच गया है। हालात की गंभीरता को देखते हुए दिल्ली में मिनी लॉकडाउन लगा दिया गया है। दिल्ली सरकार ने सभी प्राथमिक स्कूलों को हवा की गुणवत्ता में सुधार होने तक बंद करने का आदेश दिया है। कोरोना काल के बाद जैसे-तैसे बच्चों के स्कूल खुले थे और उनकी पढ़ाई नियमित हुई थी। प्रदूषण की सबसे पहली गाज उन पर गिरती हुई नजर आ रही है। लगता है कि बच्चों को एक बार फिर ऑनलाइन पढ़ाई करनी होगी। दिल्ली सरकार के 50 फीसदी कर्मचारियों को भी वर्क फ्रॉम होम करने को कहा गया है।

दरअसल देश में स्वच्छता और प्रदूषण का परिदृश्य वर्षों से निराशाजनक रहा है। इसको लेकर समाज में जैसी चेतना होनी चाहिए, वैसी नहीं है। दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति गंभीर तो है ही, लेकिन बिहार और झारखंड के कई शहरों में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। देश के विभिन्न शहरों से अगर व्यवस्था ठान ले, तो परिस्थितियों में सुधार लाया जा सकता है। चीन का उदाहरण सामने है। वर्ष 2013 में दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहर में चीन के पेइचिंग समेत 14 शहर शामिल थे, लेकिन चीन ने कड़े कदम उठाए और प्रदूषण की समस्या पर काबू पा लिया।

ऐसे में उत्तर भारत में वायु प्रदूषण का संकट लगातार गहराने का असर लोगों की औसत आयु पर पड़ रहा है। कुछ समय पहले अमेरिका की शोध संस्था एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें उसने गंगा के मैदानी इलाकों में रह रहे लोगों की औसत आयु लगभग सात वर्ष तक कम होने की आशंका जताई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ समय पहले एक और गंभीर तथ्य की ओर इशारा किया था कि भारत में 34 फीसदी मौतों के लिए प्रदूषण जिम्मेदार है। ये आंकड़े किसी भी देश और समाज के लिए बेहद चिंताजनक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि प्रदूषण के कारण हर साल दुनियाभर में 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है, जिनमें 24 लाख लोग भारतीय होते हैं। वायु प्रदूषण से हृदय व सांस संबंधी बीमारियां और फेफड़ों का कैंसर जैसे घातक रोग तक हो जाते हैं। वायु प्रदूषण उत्तर भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है।

भारत की आबादी का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा इसी इलाके में रहता है। वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा बच्चे और बुजुर्ग होते हैं। एक आकलन के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण हर साल छह लाख बच्चों की जान चली जाती है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि लोगों को स्वच्छ हवा में सांस लेने का बुनियादी अधिकार है और कोई भी समाज पर्यावरण की अनदेखी नहीं कर सकता है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली- एनसीआर में दीपावली के बाद से प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। अभी उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड शुरू भी नहीं हुई है, लेकिन आसमान में धुंध छाई रहती है, जो असल में प्रदूषण की मोटी चादर है। दिल्ली और उसके आस-पास के लोगों के लिए सांस लेना भी दूभर हो चुका है। फेफड़ों को धूम्रपान से जिस तरह का नुकसान पहुंचता है, लगभग वैसा ही नुकसान इस वक्त राष्ट्रीय राजधानी में रहने वालों का हो गया है।

अगर ऐसा आलम पहली बार होता तब सरकारों की निष्क्रियता समझ में आ सकती थी। मगर साल दर साल दिल्ली का ऐसा ही हाल बना हुआ है, क्योंकि राजनीतिक दलों में और सरकारों में प्रदूषण की गंभीर समस्या पर चर्चा की इच्छाशक्ति ही नजर नहीं आती है। चुनावों के घोषणापत्रों में अलग-अलग वर्गों के मतदाताओं को लुभाने वाले तमाम मुद्दे मिल जाएंगे। धर्म से लेकर व्यापार तक सभी पर राजनीतिक दलों का जोर रहेगा, लेकिन अभी की सरकारों को प्रदूषण या पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे से मानो कोई लेना-देना ही नहीं है। ऐसा लगता है मानो देश के ताकतवर लोग यानी वीआईपी किसी और ग्रह में जाकर अपने लिए प्राणवायु का इंतजाम कर चुके हैं। जिस तेजी से विज्ञान तरक्की कर रहा है, उसमें यह संभव भी है कि इंसान किसी दूसरे ग्रह पर जाकर बसेगा। लेकिन वे इंसान दुनिया के मुट्ठी भर पैसे वाले लोग ही होंगे, आम आदमी को तो इसी धरती पर सांस लेना है और यहीं दम तोड़ना है। मगर अभी दिल्ली में हालात ऐसे बने हुए हैं कि न सांस ली जा रही है, न पूरी तरह से दम निकल रहा है।

फिलहाल दिल्ली के लोग इसी माहौल में घुट-घुटकर जी रहे हैं। यहां जिन दो सरकारों का बोलबाला है, यानी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र की एनडीए सरकार, उन दोनों के मुखिया इस वक्त हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनावों में ध्यान लगाए हुए हैं, और बार-बार इन राज्यों के दौरे कर रहे हैं। जब वे दिल्ली में होते हैं, तब भी उनके दफ्तर का वातानुकूलित माहौल उन्हें घुटन का वैसा अहसास नहीं कराता होगा, जैसा इस वक्त सड़क पर निकलने को मजबूर लोगों को होता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पिछले साल तक दिल्ली में हो रहे प्रदूषण के लिए पंजाब पर दोष डालते थे कि वहां के किसान पराली जलाते हैं, इस वजह से दिल्ली की हवा खराब होती है। मगर अब पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सरकार है और पराली का प्रदूषण अब भी जारी है तो केजरीवाल का तर्क है कि प्रदूषण केवल दिल्ली या पंजाब की समस्या नहीं है। बिहार से लेकर राजस्थान तक प्रदूषण की स्थिति बेहद खराब है। वहीं पंजाब में पराली जलाने पर रोक में नाकामी को लेकर उनका तर्क है कि हमारी सरकार को पंजाब में 6 महीने हुए हैं, जो बहुत कम है। मान लिया कि छह महीने का वक्त किसी बड़े काम को करने के लिए कम है, मगर केजरीवाल यह पहले से जानते थे कि स्वच्छ हवा की राह में पराली का जलना एक बड़ी अड़चन है, तो इसका समाधान ढूंढने की कोशिश उन्होंने पहले से क्यों नहीं की, ताकि सत्ता में आने का मौका मिलते ही वे उस पर अमल कर पाते।

जाहिर है उनकी प्राथमिकता अपने विरोधियों की आलोचना और हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने की है। इसके साथ ही दूसरे राज्यों में अपनी सरकार बनाने का लक्ष्य है। यही स्थिति भाजपा की है, जो बार-बार अपने मजबूत प्रशासन और त्वरित निर्णय क्षमता का दंभ भरती है। जब अपने बहुमत का फायदा उठाकर संसद में भाजपा कई तरह के विधेयक पारित करवा सकती है, जब रातों-रात जम्मू-कश्मीर की भू-राजनीतिक स्थिति बदल सकती है, जब नोटबंदी और लॉकडाउन के फैसले चंद घंटों की मोहलत देकर देश पर थोप सकती है, तो फिर इसी ताकत का इस्तेमाल प्रदूषण को रोकने के लिए क्यों नहीं किया जाता। आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी है, या किन्हीं शक्तियों का दबाव है कि दिल्ली की हवा को स्वच्छ होने से रोका जा रहा है।

क्या इसके पीछे कोई व्यापारिक षड्यंत्र है, जिससे प्रदूषण की मार से आम आदमी बीमार हो और इसका फायदा दवा कारोबारियों, अस्पतालों को हो। गौर कीजिए कि शरीर में कम होती प्रतिरोधक क्षमता का डर दिखाकर किस तरह च्यवनप्राश आदि की बिक्री बढ़ जाती है। हवा को स्वच्छ करने वाले पौधे दोगुनी-तिगुनी कीमतों पर दवा दुकानों में मिलने लगते हैं। मास्क की बिक्री बढ़ जाती है। जो संपन्न लोग होते हैं, वे घरों में वायु शुद्धता उपकरण यानी एयर प्यूरीफायर खरीद कर रख लेते हैं और अब तो ऑक्सीजन भी बिकने की चीज हो चुकी है।

जब तीन-चार दशक पहले बोतलबंद पानी बहुतायत में बिकने लगा था या घरों में लोग पानी के फिल्टर लगाने लगे थे, तो उस समय अक्सर बातचीत में कहा जाता था कि क्या जमाना आ गया है, अब पानी भी बिकने लगा है। तब यह कल्पना कम ही लोगों ने की होगी कि ऐसा वक्त भी आएगा जब स्वच्छ हवा के लिए भी आम आदमी को तरसना पड़ेगा और जो शक्तिशाली रहेगा वह अपने लिए उसका भी इंतजाम करके रहेगा। प्रदूषण को राजनीति का विषय बनाकर इस कल्पना को भी सच कर दिया गया है। फिलहाल दिल्ली में सांस की तकलीफ से गुजरते मरीजों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ गई है। सरकार ने हालात की गंभीरता को देखते हुए डीजल गाड़ियों पर रोक लगाई है, दिल्ली के प्राथमिक स्कूल बंद कर दिए गए हैं और बहुत-से दफ्तरों में घर से काम की व्यवस्था फिर से शुरु कर दी गई है।

सरकार फिर से सम-विषम की व्यवस्था पर विचार कर रही है। कई तरह के निर्माण कार्य भी बंद हो गए हैं। इन सब प्रतिबंधों से कुछ लोगों को आराम मिल सकता है, लेकिन बड़ी आबादी के रोजगार पर संकट आ सकता है। वैसे भी इन फौरी उपायों से दो-चार दिन की राहत से अधिक कुछ हासिल नहीं होगा। वातावरण में जो जहर घुला हुआ है, उसे दूर करने के लिए राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर कड़े फैसले लेने होंगे। मगर अभी ‘भाजपा’ और ‘आप’ दोनों की प्राथमिकता गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव हैं।

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