पिछले साल कोरोना काल से ठीक पहले बिहार के जब विधानसभा चुनाव हुए तो इस चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी के जीतने और मुख्यमंत्री बनने की चर्चा इतनी नहीं हुई जितनी की असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के 5 विधायकों के जीतने की हुई। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने बिहार विधानसभा में 5 सीट जीतकर राजनीतिक सियासत में खलबली मचा दी। तब पूरे देश में राजनीतिक पंडितों ने एक बहस शुरू कर दी , वह यह की ओवैसी अब देश के अल्पसंख्यकों के प्रमुख नेता बनेंगे।
शायद इसी गुमान में ओवैसी रहे होंगे। जिसके चलते उन्होंने तेलंगाना से अपनी पार्टी का उदय होने के बाद पूरे देश में चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। लेकिन गत दिनों हुए बंगाल विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी की हवा फुस्स हो गई। बंगाल में ओवैसी ने 25 विधानसभा चुनाव पर अपने प्रत्याशी खड़े किए। तब कहा गया कि पश्चिमांचल में ओवैसी की पार्टी अपना जनाधार बना चुकी है। कयास लगाए जाने लगे थे कि बिहार की तरह ही बंगाल में भी ओवैसी को कई विधानसभा सीटों पर जीत मिलेंगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ओवैसी की पार्टी के कई प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त हो गई। पार्टी का खाता तक बंगाल में नहीं खुला। अल्पसंख्यक समुदाय का वोट एक तरफा ममता बनर्जी की टीएमसी पार्टी को मिला।
इसके बाद अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर ओवैसी को संभावनाएं नजर आने लगी। ओवैसी को लगता था कि यह राज्य उनके लिए राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। क्योंकि यहां अल्पसंख्यक समुदाय बहुतायत में है। कई सीट ऐसी है जहां अल्पसंख्यक सीटें ही जीत हार का फैसला करती है।
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यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व यह कयास लगाए जाने लगे कि जिस तरह बिहार में ओवैसी की पार्टी का मायावती की पार्टी से गठबंधन था, उसी तरह यूपी में भी एआईएमआईएम और बसपा साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। यह चर्चा जोरों पर चली तो मायावती प्रेस से मुखातिब हुई। बसपा सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने प्रेस से कहा कि वह ओवैसी की पार्टी से उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कोई गठबंधन नहीं करने जा रही है। इसी के साथ ही उन्होंने कहा कि जरूरी नहीं जिसके साथ हमने बिहार में गठबंधन किया हो उसके साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़े।
मायावती का इशारा साफ था कि ओवैसी उत्तर प्रदेश में उनके साथ मिलकर नहीं चल सकेंगे। आखिर क्यों ? जिस ओवेसी को लेकर तमाम तरह की कयासबाजिया चल रही थी। राजनीतिक बहस चल रही थी। चर्चाओं का बाजार गर्म था कि उनकी पार्टी से गठबंधन करने के लिए उत्तर प्रदेश में कई राजनीतिक दल उतावले हैं। आखिर वह दल बैक क्यों मार गए?
क्या वजह रही कि बसपा के साथ ही सपा, कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल ओवैसी से दूरी बनाने लगे। मजबूरी कहे या अति आशावाद कल ओवैसी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। जिसमें उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इन 100 सीटों में उसके साथ फिलहाल ओमप्रकाश राजभर की पार्टी भी होगी । हालांकि ओमप्रकाश राजभर की पार्टी का गठबंधन की अभी विधिवत घोषणा नहीं हुई है।
कहा जा रहा है कि ओवैसी की यह मजबूरी में की गई घोषणा है। चर्चा है कि अभी उन्होंने 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। लेकिन बाद में वह 25 से 30 विधानसभा चुनाव चुनाव तक सिमट सकते हैं। ओवैसी का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट यह रहा है कि उसे हिंदू वोट बैंक की ध्रुवीकरण का कारण मान लिया गया है।
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ओवैसी के विवादास्पद बयान बहुसंख्यक मतदाताओं को भाजपा की तरफ मुखातिब होने का अवसर प्रदान कर देते हैं। इसके चलते कहा भी जाता है कई बार चर्चाएं भी चली है कि ओवैसी भाजपा की ‘बी’ टीम है। आरोप भी लगें कि ओवैसी भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा पहुंचाते रहे हैं ।
शायद इसी फायदे को बसपा, सपा और कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बखूबी समझ चुकी है। इसके चलते ही तमाम पार्टियों ने ओवैसी से दूरी बना ली है। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक वोट उधर ही जाता है, जिधर भाजपा प्रत्याशी को जिस पार्टी का प्रत्याशी टक्कर देता हुआ दिखाई देता है। उस समय अल्पसंख्यक मतदाता के बारे में कहा जाता है कि वह पार्टी नहीं देखता बल्कि यह देखता है कि भाजपा को हराने की कूवत किस दल में है।
फिलहाल, समाजवादी पार्टी अल्पसंख्यक वोटों का अपनी पार्टी में आने में सबसे ज्यादा उम्मीद पाले हुए हैं । पिछले दिनों जिस तरह से त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी को बहुमत हासिल हुआ है उससे अखिलेश यादव अति उत्साहित है। शायद यही वजह है कि अखिलेश यादव अब किसी के साथ गठबंधन नहीं कर रहे हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात बसपा की रही है। जिस बसपा का जनाधार सिकुड़ता जा रहा है वह भी ओवैसी से दूरी बना रही है।
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यहां यह भी बताना जरूरी है कि ओवैसी की पार्टी एआईएमआई एम तेलंगाना की क्षेत्रीय पार्टी है। बंगाल विधानसभा और बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यह पार्टी कुछ ही राज्यों तक सीमित रही। इस पार्टी को सबसे पहले 2018 में तेलंगाना से सफलता मिली थी। तेलंगाना में ओवैसी की सात सीटों पर जीत हुई थी।
इसके बाद पार्टी को 2019 में सफलता मिली। जब लोकसभा में ओवैसी की पार्टी को 2 सीट मिली। यह सीटें महाराष्ट्र में मिली है। इसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटों पर जीतने के बाद ओवैसी का सपना पूरे भारत में चुनाव लड़ने का जगा। लेकिन इस सपने को बंगाल विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने चकनाचूर कर दिया।
याद रहे कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने पहली बार उत्तर प्रदेश का चुनाव लड़ा था । तब पार्टी के अधिकतर प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त हो गई थी। ओवैसी की पार्टी का सबसे गलत प्रचार यह रहा है कि उसे सेक्युलर पार्टी का तमगा दे दिया गया है । कहा भी जाता है कि वह जिस तरह से भाषण देते हैं और उन पर भड़काऊ भाषण देने के आरोप लगते रहे हैं उससे बहुसंख्यक वर्ग एकजुट हो जाता है। यही ओवैसी की सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता है। देखना यह होगा कि फिलहाल इस राजनीतिक विफलता को वह सफलता बनाएंगे या उत्तर प्रदेश में एक बार फिर विफलता की और जाएंगे?