बंगाल में भी बीजेपी ममता सरकार को सत्ता से हटाकर सरकार बनाने को उतावली है, लेकिन दूसरे मोर्चे पर असम उसके लिए बड़ी चुनौती है। यहां भाजपा की परीक्षा होगी कि वह राज्य में फिर कैसे वापसी कर पाएगी। असम में उसकी सरकार पांच साल से चल रही है। जिसे बनाए रखने की कवायद उसे करनी है। सीएए को लेकर असम में भीषण बवाल भी हुआ था। नागरिकता कानून पर बात आगे बढ़ी तो राज्य में भाजपा के लिए हालात खराब हो सकती हैं। सीएए को लेकर बीजेपी बंगाल और असम के बीच फंसी हुई नजर आ रही है।
सीएए लागू होने के बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। असम के लोग सड़क पर उतर आए हैं। संगठनों द्वारा नागरिकता संशोधन कानून के संसद से पास होने की वर्षगांठ को काले दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में सबसे अप्रत्याशित बात यह रही कि कांग्रेस का वोट शेयर इस बार गिरकर 1 ़4ः पर पहुंच गया है। कांग्रेस को छोड़ दें, तब भी दशकों में किसी भी राजनीतिक दल के वोट बेस इस तरह की गिरावट नहीं देखी गई है। वोट बेस में पूरी तरह भाजपा के पाले में पहुंच गया है, जो केवल एक चुनाव में बिना किसी वोट बेस पर पहुंच गई है। भाजपा के इस नए वोट बेस का 80 प्रतिशत कांग्रेस से आया है।
कांग्रेस भी इतने बड़े स्तर पर हुए इस वोट बेस के बदलाव से दंग है। इसकी वजह क्या है? 2013 में दिल्ली में आई आम आदमी पार्टी की चुनावी सुनामी के बावजूद कांग्रेस अपने शेयर को बचाने में कामयाब रही थी। त्रिपुरा में कांग्रेस के प्रमुख प्रद्योत देब बर्मन ने द वायर के पत्रकार को कहा था कि पार्टी हर विधानसभा क्षेत्र में यह सुनिश्चित करने के लिए अपना प्रत्याशी उतार रही थी कि भले ही वह सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है, लेकिन पार्टी तंत्र और संगठन सक्रिय रहे। 1993 में त्रिपुरा में माक्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) सत्ता में आई, कांग्रेस का वोट शेयर औसत 34 बना रहा है। वर्ष 25 सालों में जब तक माकपा शासन रहा, कांग्रेस का वोट नीचे नहीं गया है। 25 सालों से यह कांग्रेस का इसका एक कारण यह है कि कांग्रेस के संगठनात्मक तंत्र को पूरी तरह भाजपा ने खरीद लिया और इसके साथ ही कांग्रेस का वोट शेयर भी चला गया। लेकिन यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि केवल पैसे के बल पर वोटर बेस में इस तरह का बदलाव नहीं आ सकता।
भाजपा ने बड़े स्तर पर कांग्रेस के संगठन और उम्मीदवारों में सेंध लगाई है, तब भी कांग्रेस के वोट बेस में इतने बड़े पैमाने पर आई इस गिरावट को नहीं समझा जा सकता। कांग्रेस को लगातार वोट देने वाले मतदाताओं ने पार्टी और त्रिपुरा का भविष्य तय करने में उसकी संभावित भूमिका को लेकर सभी उम्मीदें छोड़ दी हैं। इस बात से कांग्रेस को चिंता होना चाहिए। पार्टी मतदाता के दिमाग से पूरी तरह से नहीं निकल सकती
2016-17 के दौरान राज्य में गहरी पैठ रखने वाले कांग्रेस के ताकतवर नेता धीरे-धीरे भाजपा की ओर मुड़ गए। इस बात का प्रमाण यही है कि भाजपा के तरफ से 60 में से 44 उम्मीदवार पुराने कांग्रेस के ही थे। भाजपा ने बड़े स्तर पर कांग्रेस के संगठन और उम्मीदवारों में सेंध लगाई है, तब भी कांग्रेस के वोट बेस में इतने बड़े पैमाने पर आई इस गिरावट को नहीं समझा जा सकता। कांग्रेस को लगातार वोट देने वाले मतदाताओं ने पार्टी और त्रिपुरा का भविष्य तय करने में उसकी संभावित भूमिका को लेकर सभी उम्मीदें छोड़ दी हैं। इस बात से कांग्रेस को चिंता होना चाहिए। पार्टी मतदाता के दिमाग से पूरी तरह से नहीं निकल सकती।
त्रिपुरा के मतदाताओं के मन में कांग्रेस के सिस्टम की जगह पूरी तरह भाजपा ने ले ली है। कांग्रेस को इस बारे में चिंतित होना चाहिए और वोट शेयर की इस गिरावट का गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए। कांग्रेस ने त्रिपुरा में चुनावी लड़ाई का दिखावा ही किया होता, तो इससे माकपा की संभावनाएं बढ़ सकती। कांग्रेस ने इसके ऐतिहासिक 34 औसत वोट शेयर का तीसरा हिस्सा भी बरकरार रखा होता, तो भाजपा की संभावनाएं घट जातीं। माकपा और भाजपा दोनों को ही करीब 43 प्रतिशत वोट शेयर मिला है। भाजपा को इसकी सहयोगी इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) की मदद भी मिली। कांग्रेस इसके ऐतिहासिक वोट शेयर का 10-15 प्रतिशत भी बचा लेती भाजपा का कम पर आ जाता।
ऐसे में माकपा आसानी से जीत सकती थी। माकपा ने भी यही सोचा होगा। फिर जीतने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त दिख रही थी। यही हिसाब लगाया होगा कि कांग्रेस अपने वोट बेस का एक-तिहाई या आधा बचा लेगी, जिससे सत्ता-विरोधी वोट बंट जाएंग। कांग्रेस के नेताओं को थोड़ी और ज्यादा मेहनत करनी चाहिए, जो उन्होंने नहीं की राहुल गांधी ने राज्य में प्रचार के आखिरी दिन केवल एक रैली को संबोधित किया। कांग्रेस ने ये लड़ाई माकपा के जीतने के लिए छोड़ दी थी और अपने वोट बेस को बचाए रखने के लिए प्रयास भी नहीं किए।