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आसान नहीं नीतीश-तेजस्वी की राह

  •    प्रियंका यादव

 

आसान नहीं नीतीश-तेजस्वी की राह बिहार की महागठबंधन सरकार एक ओर जहां राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर के निशाने पर है, वहीं दूसरी तरफ पहले आरसीपी सिंह और अब उपेंद्र कुशवाहा ने सत्ताधारी जदयू की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। कभी सीएम नीतीश के खास रहे दोनों नेता अब भाजपा के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। भाजपा को इस बात की खुशी है कि ये आने वाले चुनाव में महागठबंधन की राह में रोड़ा अटका सकते हैं

बिहार में महागठबंधन की सरकार का सातवां महीना चल रहा है। जब इसका गठन हुआ तब साझेदार दलों का मनोबल काफी बढ़ गया था। सभी दलों का कहना था कि भाजपा अकेली पड़ गई है। लेकिन अब सरकार गठन के 7 महीनों में जिस तरह समीकरण बदलते जा रहे हैं। उन्हें लेकर कहा जा रहा है कि आने वाले चुनावों में नीतीश और तेजस्वी की राह आसान नहीं होगी। नीतीश कुमार ने पिछले दिनों कहा था कि 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इसके साथ ही महागठबंधन में एकता का बंधन मजबूत होने की चर्चाएं हैं। कहा जा रहा है कि एक तरफ नीतीश कुमार को महागठबंधन 2024 में मोदी के विकल्प के तौर पर पेश कर सकता है तो वहीं 2025 में तेजस्वी यादव सीएम फेस होंगे। हालांकि राजनीति में कब क्या बदल जाए, कुछ भी भरोसा नहीं होता।

महागठबंधन में कुल सात दल शामिल हैं। इसमें नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड, लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर), सीपीआई, सीपीआई-एम और सीपीआई-एमएल शामिल हैं। इनमें से चार दल सरकार में हैं तो वहीं तीनों वाम दल बाहर से समर्थन दे रहे हैं। 7 पार्टियों के समर्थन से चल रही महागठबंधन सरकार के खिलाफ भी अब 7 दल खड़े नजर आ रहे हैं। हर दल नीतीश-तेजस्वी सरकार की राह में रोड़े डालने का प्रयास कर रहा है। नीतीश-तेजस्वी ने जिस तरह 7 दलों को साथ कर भाजपा के खिलाफ चक्रव्यूह रचा था। अब उसका जवाब भी सरकार को वैसे ही मिल रहा है।
निश्चित तौर पर मौजूदा समय में नीतीश- तेजस्वी सरकार के लिए सबसे बड़ी मुसीबत भाजपा है। भाजपा बिहार पर एकछत्र राज के लिए बार-बार कसमसा कर रह जाती है। 2015 में भाजपा इसी प्रयास में बिखर गई थी, लेकिन हर चुनाव में भाजपा प्रयास करती रही है। सरकार से अलग होने के बाद वह बिहार में जाति समीकरण को साधने की भरपूर कोशिश में है। इसके लिए उसने बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष विजय सिन्हा को नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर बिठाया। विजय सिन्हा भूमिहार जाति से आते हैं। विधान परिषद में नेता विपक्ष की कुर्सी पर कोइरी समाज के आने वाले सम्राट चौधरी को बिठाया।

सम्राट चौधरी राजनीति में लंबे समय से सक्रिय हैं। इनके पिता शकुनी चौधरी पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष, स्वास्थ्य मंत्री के साथ- साथ सांसद भी रहे हैं। ऐसे में विजय सिन्हा और सम्राट चौधरी को आगे करके भाजपा ने पिछड़ी एवं दलित जातियों को एक संदेश देने का काम किया है। नीतीश-तेजस्वी की दूसरी सबसे बड़ी मुश्किल खुद को पीएम मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान की अगुवाई वाली लोजपा (रामविलास) है। 2020 के चुनाव में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को बिहार में तीसरे नंबर पर धकेल दिया था। चिराग पासवान ने 2020 विधानसभा चुनाव में बीजेपी का एक ओर समर्थन किया, वहीं जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार देकर नीतीश कुमार की मुश्किलें बढ़ा दी थी।

चिराग के चलते नीतीश की पार्टी जेडीयू को कई सीटों पर करारी हार का सामना करना पड़ा था। पार्टी में टूट के बाद भी चिराग पासवान का जलवा कम नहीं हुआ। उपचुनावों में नीतीश -तेजस्वी दोनों के उम्मीदवारों को हरवाने में इनकी अहम भूमिका रही। यही वजह रही है कि सरकार से अलग होने के बाद बीजेपी चिराग पासवान के प्रति नरम हुई। बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पासवान को जेड कैटेगरी की सुरक्षा दे स्पष्ट संकेत दे डाला था कि चिराग उनके लिए अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं।

चिराग पासवान से अलग होने के बाद पशुपति कुमार पारस गुट वाली रालोजपा के पास भले ही कोई विधायक नहीं है, लेकिन पांच सांसदों के साथ रालोजपा बिहार से लोकसभा में तीसरे नंबर की पार्टी है। वह एनडीए की मुखर सहयोगी है और उम्मीद है कि आगे भी महागठबंधन के खिलाफ ही रहेगी। वहीं हाल ही में नीतीश से नाता तोड़ अपनी नई पार्टी राष्ट्रीय लोक समता का एलान कर उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। हालांकि कुशवाहा की इस नई पार्टी के पास कितनी ताकत है, इसका पता अभी नहीं चल सकता। ये तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। मगर कुशवाहा का दावा है कि जदयू से कई लोग उनकी पार्टी में शामिल होंगे। ऐसे में उनकी असली ताकत चुनाव में पता चलेगी। लेकिन इतना तो तय है कि इनकी ताकत जितनी भी हो, नीतीश-तेजस्वी के खिलाफ ही रहेगी। जिस तरह जेडीयू से अलग होने की घोषण के दौरान तेजस्वी और लालू परिवार पर हमलावर नजर आए। उनका साफ कहना है कि जिसके खिलाफ जेडीयू लड़कर सरकार में आई अब उस पार्टी के साथ वो नहीं रह सकते हैं। उन्होंने यहां तक कह डाला कि जेडीयू में अब कुछ बचा नहीं है, नीतीश कुमार पड़ोसी के घर में अपना उत्तराधिकारी खोज रहे हैं। कुशवाहा का यह बयान सीधे तौर पर लालू परिवार और तेजस्वी के खिलाफ ही था।

 


संजय जायसवाल से मिले उपेंद्र कुशवाहा और भाजपा के हुए आरसीपी सिंह (फाइल फोटो)

दूसरी तरफ जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने जब से पार्टी से इस्तीफा दिया है तब से लगातार वे नीतीश-तेजस्वी के खिलाफ मुहिम चलाए हुए हैं। पूरे बिहार में घूम-घूमकर नीतीश कुमार को अक्षम बता रहे हैं। आरसीपी कोई नया दल बनाएंगे या किसी दूसरे दल में शामिल होंगे, इसका खुलासा तो अभी तक नहीं किया है। लेकिन इतना तय है कि रहेंगे नीतीश-तेजस्वी के खिलाफ। प्रशांत किशोर : कभी नीतीश के ड्राइंग रूम में नीतियां बनाने वाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर अब उनके खिलाफ हैं। वह जन सुराज पदयात्रा कार्यक्रम में नीतीश-तेजस्वी सरकार को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। बिहार में खुद को स्थापित करने के लिए पदयात्रा पर निकले प्रशांत किशोर ने अभी तक कोई राजनीतिक दल नहीं बनाया है, लेकिन यह कह दिया है कि दल बनेगा तो उसका नाम जन सुराज ही होगा। यानी उनका भी राजनीति में आना तय है, लेकिन सक्रिय राजनीति में आने से पहले प्रशांत नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के खिलाफ ताल ठोंक चुके हैं।

 

विकासशील इंसान पार्टीः इन सबके बीच खुद को सन ऑफ मल्लाह बताने वाले मुकेश सहनी की भी चर्चा हो रही है। 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन से अलग होने के बाद सहनी एनडीए में शामिल हो गए थे। चुनाव में मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी से 4 विधायक चुने गए, लेकिन कुछ दिन बाद ही इनके विधायकों का मोहभंग हो गया और सभी ने बीजेपी का दामन थाम लिया। ऐसे में उन्हें मंत्री पद से भी इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि बिहार उपचुनाव में सहनी ने खुद उम्मीदवार उतारकर महागठबंधन और एनडीए को मैसेज दिया कि वो भी किसी से कम नहीं हैं। अब बिहार में हालात बदल चुके हैं। सहनी को केंद्रीय गृह मंत्रालय से वाई कैटेगरी की सुरक्षा मिली है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में सहनी एक बार फिर एनडीए में शामिल हो सकते हैं।

एआईएमआईएम : 2020 के चुनाव में
तेजस्वी यादव को सीएम की कुर्सी तक पहुंचने से रोक देने में अगर एनडीए का बड़ा योगदान था, तो हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को भी कम नहीं आंका जा सकता है। एआईएमआईएम ने जीत तो सिर्फ 5 सीटों पर दर्ज की थी, लेकिन दर्जन भर ऐसी सीटों को प्रभावित किया, जहां अल्पसंख्यक वोटरों की अच्छी खासी संख्या थी। जाहिर सी बात है ये वोटर कहीं न कहीं महागठबंधन के पक्ष में ही गोलबंद होते। हालांकि ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 5 में से 4 विधायक अब राजद में शामिल हो चुके हैं। लेकिन एआईएमआईएम ने अभी हार नहीं मानी है। 2022 में हुए 3 उपचुनावों में अगर महागठबंधन की हार हुई तो उसमें भी बड़ा फैक्टर एआईएमआईएम के उम्मीदवारों का रहा है। भले ही एआईएमआईएम और बीजेपी का गठबंधन नहीं हो सकता, लेकिन वोटों का
ध्रुवीकरण होने की स्थिति में भाजपा को ही फायदा होगा।

 

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