बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में एक तरफ नीतीश कुमार की थकी हुई छवि है तो दूसरी ओर चिराग पासवान की महत्वाकांक्षा, कन्हैया कुमार की वैचारिक ऊर्जा और प्रशांत किशोर की नीति- आधारित राजनीति। दलित चेतना, बेरोजगारी, गठबंधन का गणित और युवा आकांक्षाओं की पृष्ठभूमि में यह चुनाव केवल चेहरों की टक्कर नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य की दिशा तय करने वाला है
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की हलचल तेज हो गई है और इस बार मुकाबला पारम्परिक सीमाओं से बाहर जाता दिख रहा है। नीतीश कुमार की अनुभवशीलता और गठबंधन नीति के समक्ष अब तीन नए विकल्प खड़े हो गए हैं। चिराग पासवान, कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर। इन तीनों की शैली, पृष्ठभूमि और उद्देश्य भिन्न हैं, लेकिन एक बात समान है। बिहार को बदलने का दावा। सवाल यह है कि क्या ये दावे केवल नारों तक सीमित रहेंगे या वास्तव में कोई नया सामाजिक- राजनीतिक समीकरण उभरेगा? गौरतलब है कि जनवरी 2024 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए का दामन थामा। लेकिन यह वापसी अब पहले जैसी नहीं रही। गठबंधन सहयोगियों, विशेषकर भाजपा के साथ उनके सम्बंधों में दरारें स्पष्ट हैं। भाजपा अब उन्हें ‘बोझ’ की तरह देख रही है। कई सर्वेक्षणों में जनता की प्राथमिकता में नीतीश नीचे खिसकते जा रहे हैं।
बीते दो दशकों में नीतीश कुमार ने शासन में कई सकारात्मक हस्तक्षेप किए। पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण, स्कूल ड्रेस योजना, सड़कों और बिजली में सुधार, परंतु अब ये उपलब्धियां ‘पुरानी हो चुकी फाइलें’ बनती जा रही हैं। नई पीढ़ी विकास की नई भाषा चाहती है।
भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन में नीतीश की बरअक्स चिराग पासवान नया चेहरा बन उभरने का प्रयास कर रहे हैं। चिराग पासवान ने अपने पिता रामविलास पासवान की विरासत को संभालते हुए अब खुद को एक स्वतंत्र दलित नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। 2020 में जब उन्होंने जदयू को टारगेट कर अकेले चुनाव लड़ा और नीतीश को नुकसान पहुंचाया, तब से उन्होंने खुद को एनडीए के भीतर ‘बागी विकल्प’ के रूप में पेश किया है। अब वे खुलकर कह रहे हैं- ‘मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखना गलत नहीं है।’ उन्होंने बिहार के आरा में ‘नव संकल्प महासभा’ कर स्पष्ट कर दिया कि वे अब सिर्फ किसी के सहयोगी नहीं रहना चाहते, बल्कि सत्ता के लिए तैयारी में हैं। उनका फोकस तीन बातों पर है- दलित चेतना, युवा अपील ‘बिहार फस्र्ट, बिहारी फस्र्ट’ के जरिए नया विमर्श। हालांकि पासवानों से इतर अन्य दलित समुदायों में उनकी पकड़ अभी सीमित है। उन्हें दुसाध समाज से बाहर जाकर मतदाता जोड़ने होंगे।
दूसरी तरफ राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्र्रेस बिहार की राजनीति में अपना खोया वर्चस्व वापस पाने के लिए छटपटा रही है। कांग्रेस ने इस बार कन्हैया कुमार को फ्रंटफुट पर उतारा है। कन्हैया, जो भूमिहार जाति से आते हैं, बिहार के मध्यमवर्गीय, शिक्षित, बेरोजगार युवाओं में अपील रखते हैं। ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा के जरिए उन्होंने राज्य के हर जिले में युवाओं के साथ संवाद किया है। उनके भाषणों में जेएनयू की वैचारिक छाया होती है, लेकिन उनका टोन अब जमीनी हो चला है। वे बेरोजगारी, शिक्षा और संवैधानिक मूल्यों की बात करते हैं और हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से बचते हैं। लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी खेमेबाजी और तेजस्वी यादव से तालमेल की कमी उनके असर को सीमित कर सकती है। कांग्रेस का एक तबका अब भी कन्हैया को ‘बाहरी’ मानता है। इन दोनों से इतर बिहार में एक नाम और चर्चा में है। वह है पुराने रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके)। वे एकमात्र ऐसे नेता हैं जो किसी गठबंधन से नहीं जुड़े, बल्कि जनता के बीच जाकर अपनी पार्टी का ढांचा खड़ा कर रहे हैं। ‘जन सुराज यात्रा’ के जरिए उन्होंने बिहार के कोने-कोने में संवाद किया है। वे शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक जवाबदेही को प्रमुख मुद्दा बना रहे हैं। पीके ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी का पहला अध्यक्ष एक दलित होगा। उन्होंने जातीय समीकरण से ऊपर उठने की बात कही है, लेकिन बिहार की राजनीति जाति से परे जाने को तैयार नहीं दिखती। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती संसाधनों की है, दूसरा- कोई ठोस सामाजिक आधार उनके पास नहीं है।
दलित राजनीति की नई परिभाषा?
बिहार में दलित समुदाय लगभग 20 प्रतिशत है, लेकिन इनमें भी गहरी आंतरिक खाई है। नीतीश कुमार ने ‘महादलित’ श्रेणी बनाकर कभी इन वर्गों को अलग- अलग करने की कोशिश की थी। आरजेडी ने भी दलित नेताओं को स्थान दिया, लेकिन नेतृत्व की सीट नहीं। चिराग इस गैप को भरने का प्रयास कर रहे हैं। वे दलित स्वाभिमान को ‘सत्ता के हक’ से जोड़ रहे हैं। पीके इसे जमीनी सशक्तिकरण के जरिए कर रहे हैं। कांग्रेस के पास फिलहाल दलित चेहरा नहीं है, लेकिन कन्हैया की अपील वर्गीय-वैचारिक स्तर पर दलित युवाओं तक पहुंचने की कोशिश जरूर कर रही है।
गठबंधन, मतदाता और युवा की भूमिका
बिहार में जातीय गठबंधन ही सरकार बनाता है। 2025 में लड़ाई केवल भाजपा-जदयू और आरजेडी-कांग्रेस तक सीमित नहीं होगी। चिराग और पीके के अलग रास्तों ने समीकरण बदल दिए हैं। मतदाता, विशेषकर युवा और महिला वर्ग अब निर्णायक भूमिका में आ सकते हैं। बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पलायन जैसे बुनियादी मुद्दों पर जनता अब सीधे जवाब चाहती है। जो नेता स्पष्ट नीति, क्रियान्वयन और ईमानदार संवाद देंगे, वही नई पीढ़ी को आकर्षित कर पाएंगे। कुल मिलाकर 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव सत्ता परिवर्तन की नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति के पुनर्निर्माण की परीक्षा है। चिराग की दलित चेतना, कन्हैया की वैचारिक ऊर्जा, पीके की जन भागीदारी और नीतीश की शासन परम्परा, इन चारों धाराओं के बीच बिहार की जनता एक नया संतुलन तलाश रही है। क्या यह चुनाव बिहार को पुराने ढांचों से मुक्त करेगा या सिर्फ चेहरे बदलकर वही व्यवस्था दोहराएगा? यही सवाल सबसे बड़ा है।