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भारत के लिपुलेख-कालापानी हिस्से को नेपाल ने अपना बताया, नेपाली नक्शे में दर्शाया

भारत के लिपुलेख-कालापानी को नेपाल ने बताया अपना क्षेत्र, नेपाली नक्शे में दर्शाया

अभी कल की ही बात है जब भारत के मित्र देश नेपाल ने कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए सहयोग के हिस्से के रूप में चिकित्सा परीक्षणों और 30,000 परीक्षणों के लिए किट उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार का आभार प्रकट किया और धन्यवाद दिया था। लेकिन इसके एक दिन के बाद ही नेपाल द्वारा एक विवादास्पद नक्शे को जारी करने का निर्णय ले लिया। नेपाल सरकार ने उत्तराखंड स्थित लिपुलेख और कालापानी को अपना क्षेत्र बताते हुए नया नक्शा जारी कर दिया है। सभी जानते है कि भारत और नेपाल के बीच इस इलाके को लेकर वर्षो से तनाव बरकरार है। नेपाल सरकार लिपुलेख और कालापानी को अतिक्रमण बताकर इसका पहले से ही विरोध जताता रहा है। जबकि भारत इसे अपने हिस्से में बताता रहा है।

अपने नक्शा में दिखाने से पहले नेपाल ने बाकायदा मंत्रिपरिषद की बैठक की। इसके बाद ही लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को नक्शे में दिखाने का फैसला किया गया। गौर करने वाली बात यह है कि इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने की। उस ओली ने जिसे भारत के साथ मित्रवत सबंध बनाने के लिए जाना जाता है। नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली ने तो इस मामले को लेकर ट्वीट भी किया। जिसमें उन्होंने लिखा कि मंत्रिपरिषद ने सात प्रांतों, 77 जिलों और 753 स्थानीय प्रशासनिक प्रभागों को दर्शाते हुए देश का एक नया नक्शा प्रकाशित करने का निर्णय लिया था, जिसमें लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी भी शामिल हैं।

 

नेपाल के विदेश मंत्री ने कहा कि भूमि प्रबंधन मंत्रालय द्वारा आधिकारिक नक्शा जल्द ही प्रकाशित किया जाएगा। इसके साथ ही नेपाल के संस्कृति और पर्यटन मंत्री योगेश भट्टराई ने एक ट्वीट में ओली को धन्यवाद दिया और कहा कि मंत्रिपरिषद के इस फैसले को इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। याद रहे कि नेपाल के प्रधनमंत्री केपी शर्मा ओली को पहले से ही चीन समर्थक माने जाते रहे है।

 

दूसरी तरफ नेपाल के इस कदम को लेकर भारत ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। विदेश मंत्रालय ने पहले ही कहा था कि लिपुलेख- कालापानी पूरी तरह भारत के क्षेत्र के भीतर है। अभी एक सप्ताह पहले ही यहां चीन से लगने वाली सीमा के निकट सड़क निर्माण का कार्य किया गया। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में 80 किमी रोड का शुभारंभ किया था, जो लिपुलेख दर्रे पर समाप्त होती है। इस सड़क का निर्माण इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि कैलाश-मानसरोवर जाने वाले श्रद्धालु सिक्किम और नेपाल के रास्ते खतरनाक ऊंचाई वाले मार्गों से जाने से बच सकें।

भारत के नक़्शे के अनुसार नेपाल-भारत व तिब्बत के ट्राई जंक्शन पर 3600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस इलाके से महाकाली नदी भी गुजरती है। इसका 35 वर्ग किमी क्षेत्र उत्तराखण्ड के जनपद पिथौरागढ़ में आता है। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से ही यहां आईटीबीपी तैनात है। नेपाल इसे अपने दारचुला क्षेत्र में मानता है। यह क्षेत्र जनपद पिथौरागढ़ के विकासखंड धारचूला मुख्यालय से 99 किमी दूर है। यहां आईटीबीपी व एसएसबी की चैकियां हैं। यह कैलाश मानसरोवर यात्रा का भी एक पड़ाव रहा है। अब तो भारत ने कालापानी तक सड़क का विस्तार भी कर दिया है।

याद रहे कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को नए केन्द्र शासित प्रदेश के गठन के बाद देश का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। इस नक्शे में लिपुलेख कालापानी क्षेत्र को भारतीय क्षेत्र में दिखाया गया। इसके बाद नेपाली प्रधानमंत्री ने अपनी प्रतिक्रिया दी जिससे यह विवाद तब भी चर्चा में आ गया था। यह पहली बार नहीं है कि किसी नेपाली शासक ने ऐसा बयान दिया हो। वर्ष 1996 में भी यह विवाद गहराया था जब नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन-यूएमएल) ने कालापानी पर दावा किया। वर्ष 2009 में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी एमाले के कार्यकर्ताओं ने ‘कालापानी हमारा है’, के नारे लगाकर इस विवाद को गर्माने की कोशिश की।

नेपाल के कई वामपंथी लिपुलेख-कालापानी से लेकर कुटी नदी तक नेपाल का हिस्सा बताते हैं। वर्ष 1998 में भी यह मामला गर्माया था जब मार्क्सवादी लेनिनवादी के समर्थकों ने कालापानी में अवैध कब्जा जमा दिया था। तब तत्कालीन विधायक कृष्ण चन्द्र पुनेठा ने यह सवाल अविभाजित उत्तर प्रदेश विधानसभा में उठाया था। तब जाकर जिला प्रशासन से लेकर गृह मंत्रालय सक्रिय हुआ था। नेपाल में आयोजित होने वाले अधिकतर चुनावों में कालापानी का मुद्दा उठता रहा है।

नेपाल बहुत पहले से लिपुलेख -कालापानी पर अपना दावा करता रहा है। अपने दावे के पीछे वह 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हुई सुगौली संधि को आधार मानता है। लेकिन वहीं सुगौली संधि के आर्टिकल 5 में वर्णित है कि नेपाल काली नदी के पश्चिम में पड़ने वाले इलाके पर अपना दावा नहीं करेगा। वर्ष 1860 में इस इलाके का सर्वें भी हुआ था। वर्ष 1929 में इसे भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया था।

भारत और नेपाल का यह विवादास्पद हिस्सा सुगौली संधि के नाम से भी जाना जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी व नेपाल के राजा के बीच हुआ एक करार हुआ था जिसे सुगौली संधि के नाम से जाना गया था। 2 दिसम्बर 1815 को ईस्ट इंडिया कंपनी व नेपाल के राजा के बीच एक करार पर हस्ताक्षर हुए। 4 मार्च 1816 को इसका अनुमोदन हुआ। इस संधि के तहत नेपाल ने अपने नियंत्रण वाले भू-भाग का एक तिहाई हिस्सा गंवा दिया।

नेपाल राजा ने संधि से पूर्व 25 सालों में पूर्व में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं-गढ़वाल, दक्षिण में तराई के अध्कितर क्षेत्र जिसमें उसने कब्जा किया था उसे गंवाने पड़े। हालांकि, तराई का कुछ हिस्सा नेपाल को वापस मिला। लेकिन इस संधि की सबसे बड़ी खामी यह रही कि इसके परिसीमन को स्पष्ट नहीं किया गया। जिसके चलते भारत व नेपाल के बीच में इसमें दावे-प्रतिदावे होते रहे हैं। जो वर्षो से विवाद की जड़ बनता आ रहा है।

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