कोरोना महामारी के चलते लाखों लोगों की नौकरियां चली गई। बड़ी संख्या में लोग अनाज के एक- एक दाने को मोहताज हैं। ऊपर से महंगाई चरम पर पहुंच चुकी है।इस हालत के बीच पिछले साल मानसून सत्र में तीन नए कृषि कानूनों को लेकर दोनों सदनों में विधेयक पास हुए । इन तीनों नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों का करीब आठ महीनों से विरोध प्रदर्शन जारी है। संसद के आगामी यानी 19 जुलाई से शुरू हो रहे मानसून सत्र में यह विरोध तेज होने के आसार हैं इस बीच भारतीय जनता पार्टी भाजपा के सांसद जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता पर गैर सरकारी विधेयक पेश करेंगे। यह जानकारी संसद के दोनों सदनों के सचिवालयों से हासिल हुई है। सत्र के दौरान जहां किसानों का मुद्दा गरमाएगा , वहीं भाजपा सांसदों के प्राइवेट बिल जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता भी बहस के ख़ास विषय होंगे। कोरोना को लेकर विपक्ष आक्रामक रहेगा। जाहिर है कि मानसून सत्र काफी हंगामेदार होने जा रहा है।

जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता पर प्रस्तावित विधेयक देश में राजनीतिक विमर्श का पुराना मुद्दा रहा है। यह भाजपा के वैचारिक एजेंडे का हिस्सा भी रहा है। लोकसभा में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के प्रतिनिधि रवि किशन और राजस्थान से राज्यसभा के सदस्य किरोड़ी लाल मीणा 19 जुलाई से आरंभ हो रहे संसद सत्र के पहले सप्ताह में जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता पर गैर सरकारी विधेयक प्रस्तुत करेंगे। संसद के किसी भी सदन का सदस्य जो कि मंत्रिपरिषद का सदस्य नहीं है, वह गैर सरकारी विधेयक पेश कर सकता है। बगैर सरकार के समर्थन के ऐसे विधेयकों के पारित होने की संभावना बहुत कम होती है। लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक रवि किशन और मीणा को अपने विधेयकों को पेश करने के लिए 24 जुलाई को मौका मिल सकता है।

जनसंख्या नियंत्रण पर इसी प्रकार का एक विधेयक पेश करने के लिए भाजपा के राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा ने भी नोटिस दिया है। प्रस्तावित विधेयक में दो से अधिक बच्चे वालों को सरकारी नौकरियों और अन्य सरकारी सहायताओं से वंचित करने का प्रावधान है। इससे पहले वर्ष 2019 जुलाई में भाजपा के राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा ने भी जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश किया था। इसमें दो बच्चे वाले ऐसे परिवारों को अतिरिक्त लाभ देने का प्रस्ताव था, जहां पति या पत्नी में से किसी एक ने नसबंदी या ऑपरेशन करा लिया है। इन फायदों में सरकारी नौकरी में अतिरिक्त वेतन वृद्धि, टैक्स में छूट, यात्रा सब्सिडी, स्वास्थ्य बीमा के लाभ और उच्च शिक्षण संस्थानों में प्राथमिकता जैसे प्रस्ताव थे। विधेयक पास होने के बाद तीसरा बच्चा करने वाले परिवारों को कई लाभ से वंचित करने का भी प्रस्ताव था। विधेयक के बारे में सिन्हा ने बताया कि जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और यह खतरे की घंटी है। उन्होंने जोर दिया कि इसके नियंत्रण के लिए एक केंद्रीय कानून की बहुत आवश्यकता है। यह विधेयक ऐसे समय में लाए जा रहे हैं जब उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक मसौदा विधेयक तैयार किया है। इसे अपनी वेबसाइट पर डालकर लोगों से 19 जुलाई तक सुझाव मांगा है। इसके मुताबिक दो से अधिक बच्चों के माता पिता सरकारी नौकरियों, स्थानीय निकाय के चुनावों और सरकारी लाभ से वंचित रहेंगे।

वर्ष 2019 में भाजपा के लोकसभा सदस्य अजय भट्ट ने जनसंख्या नियंत्रण विधेयक, 2019 पेश किया। इसमें एक व दो बच्चे वाले परिवारों को अतिरिक्त लाभ देने और तीन संतान वाले परिवारों को लाभ से वंचित करने व जुर्माना लगाने का प्रस्ताव था। यह प्रस्ताव भी था कि तीसरी संतान के लिए परिवार निर्धारित समिति से अनुमति लें।
इससे पहले देश की पहली लोकसभा के गठन से पहले ही वर्ष 1951 में परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत हो गई थी। आज 17 बार लोकसभा के चुनाव हो चुके हैं , लेकिन परिवार नियोजन पर चर्चा अब भी जारी है। महात्मा गांधी सरकार की ओर से जनसंख्या नियंत्रण की पहल के खिलाफ थे। गर्भनिरोधक उपायों को भी उनका समर्थन नहीं था। उनका जोर संयम पर था। उस समय की नीति भी लोगों को यह समझाने पर केंद्रित थी कि परिवार छोटा होना चाहिए। हालांकि आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण परिवार नियोजन केंद्र ही असल में परिवार विस्तार के केंद्र बन गए।
इस संबंध में कानून न बनने के पीछे भी कहानी है। वर्ष 1994 में भारत ने ‘इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट डिक्लेरेशन’ पर हस्ताक्षर करके विश्व समुदाय के समक्ष प्रतिबद्धता जताई है कि वह बच्चे पैदा करने के मामले में किसी दंपती के अधिकारों का सम्मान करेगा। उन्हें ही यह अधिकार भी होगा कि वे अपने बच्चों के बीच कितना अंतर रखते हैं।
एनएफएचएस-4 के आंकड़े दिखाते हैं कि 15 से 49 साल की करीब 13 फीसद करीब तीन करोड़ महिलाएं देर से बच्चा चाहती थीं या गर्भवती नहीं होना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने इसके लिए गर्भनिरोधक दवा नहीं ली। संभवत: इसकी वजह यह रही कि गर्भनिरोधकों तक उनकी पहुंच नहीं थी या उनके पास सही विकल्प नहीं था।
दरअसल , जनसंख्या नियंत्रण के लिए दो बच्चों की नीति ने वर्ष 1975 में आपातकाल के दौरान जोर पकड़ा था। यह वही समय था, जब चीन दो बच्चे से एक बच्चे की नीति पर आ गया था। आपातकाल के दौरान अधिकारियों ने लोगों की जबरन नसबंदी कराई। हालांकि समाज के रूप में इसका विपरीत असर पड़ा। आपातकाल हटने के बाद देश में जनसंख्या में तेज उछाल देखने को मिला था।
आबादी सीमित करने के अब तक कदम
साल 2002 में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा करने वाली सरकार की समिति ने एक निर्देशात्मक अनुच्छेद 47ए जोड़ने की सिफारिश की थी। इसमें कहा गया था, ‘जनसंख्या नियंत्रण राज्यों को शिक्षा एवं छोटे परिवार से जुड़े नियमों को लागू करते हुए सुरक्षित तरीके से जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास करना चाहिए।’ हालांकि यह अनुच्छेद जोड़ा नहीं गया।

साल 2016 में केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल
इसके बाद साल 2016 में केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने लोकसभा में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश किया था। इसमें उन परिवारों को सभी कल्याणकारी योजनाओं से वंचित करने का प्रस्ताव था, जहां विधेयक पास होने के बाद तीसरे बच्चे का जन्म हो। इसमें तीसरी संतान के लिए आधिकारिक अनुमति लेने की बात भी थी। इस विधेयक पर वोटिंग नहीं हुई।
प्रजनन दर में स्वाभाविक गिरावट
हाल में देश के 22 राज्यों को लेकर प्रजनन दर से संबंधित जारी आंकड़े भी ऐसे कानून की जरूरत को खारिज करते हैं। इन 22 में से 19 राज्यों में महिलाएं औसतन दो से कम बच्चों को जन्म दे रही हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 (एनएफएचएस 4) के आंकड़ों के मुताबिक, 1992-93 में 15 से 49 साल की उम्र की महिलाओं की प्रजनन दर 3.4 थी, जो 2015-16 में 2.2 पर आ गई। स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि 2025 तक यह दर 1.93 पर और 2030 तक 1.8 पर आ जाएगी। यानी बिना किसी सख्त कदम के ही स्वाभाविक रूप से एक परिवार में औसतन दो बच्चों से कम होंगे। इसमें यह भी ध्यान देने की बात है कि राज्यों में प्रजनन दर में बड़ा अंतर है। उदाहरण के तौर पर, एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के मुताबिक, 2019-20 में बिहार में 15 से 49 आयु वर्ग की महिलाओं में प्रजनन दर तीन थी, जबकि सिक्किम में मात्र 1.1 थी।
सख्ती के नकारात्मक असर
वर्ष 1991 की जनगणना के बाद कई राज्यों ने दो से ज्यादा बच्चे वालों को पंचायतों में कोई पद लेने से रोक दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि तीसरी बार गर्भवती हो जाने पर कई लोगों ने पत्नियों से तलाक ले लिया। लिंग जांच और भ्रूण हत्या के मामले बढ़ गए और लोग बेटे को प्राथमिकता देने लगे।
शिक्षा और जागरूकता
महिलाओं की शिक्षा परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता और गर्भनिरोधकों की आसान उपलब्धता किसी सख्त कदम की तुलना में ज्यादा प्रभावी हो सकती है। अभी नेशनल हेल्थ मिशन के बजट का करीब चार प्रतिशत हिस्सा परिवार नियोजन के कार्यक्रमों पर खर्च होता है। इसमें से भी बड़ा हिस्सा नसबंदी करवाने वाले परिवारों और इसे अंजाम देने वाले सíवस प्रोवाइडर्स को प्रोत्साहन के तौर पर दिया जाता है।