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आपदा को अवसर में पलटना बखूबी जानते है मोदी

वर्ष 2001 के सितंबर माह में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। तब इसके आठ महीने पहले ही (जनवरी 2001) गुजरात के कच्छ में ज़बरदस्त भूकम्प आया था। प्रदेश में इस भूकम्प का व्यापक असर अहमदाबाद सहित कई शहरो में भी पड़ा था। इतना ही नहीं बल्कि मोदी के मुख्यमंत्री बनने के पाँच महीने बाद ही (फ़रवरी 2002) में गोधरा कांड हो गया।

 कहना अतिश्योक्ति ना होगा कि मोदी ने गुजरात में आई दोनों ही स्थितियों के साथ चतुराई से निपट लिया। भूकम्प से प्रभावितों के पुनर्वास के दौरान उनका एक ही नारा था कि यह आपदा को अवसर में पलटने का मौका है। कहा भी जाता है कि मोदी आपदाओं में भी अवसरों की तलाश कर लेते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के तेरह वर्षों के कार्यकाल से परिचित लोग जानते हैं कि वे फ़ैसले लेने के बाद पीछे नहीं देखते। अपना ‘राज धर्म’ और उसकी सीमायें वे स्वयं तय करते हैं।

इस समय भी शायद ऐसा ही हो रहा है। पुरे देश में किसान आंदोलन की गूंज है। सिंधु बॉर्डर पर पंजाब और हरियाणा के हजारो किसान आंदोलनरत है। किसान केंद्र सरकार पर आंदोलन करके दवाब डाल रहे है कि वह कोरोनाकाल में लोकसभा और राज्यसभा में पास हुए 3 कृषि बिल अध्यादेश वापिस ले।

पूर्व में कहा जाने लगा था कि केंद्र सरकार कृषि बिलो में एमएसपी की लिखित में गारंटी के साथ ही मंडियों को बहाल करने का निर्णय ले सकती है। लेकिन केंद्र सरकार किसानो के आगे झुकने को तैयार नहीं हुई। फ़िलहाल केंद्र सरकार ने अपने फैसले पर अड़े रहने का निर्णय लिया है। इसके मद्देनजर अब भाजपा ने नई रणनीति बनाई है। जिसके तहत भाजपा पुरे देश के किसानो के बीच पंचायत करेगी। इन पंचायतो के जरिए भाजपा अपने कृषि बिलो की विशेषताओ को सबके सामने रखकर किसानो को अपने पक्ष में लाएगी।

कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार के लिए मामला केवल कृषि क़ानूनों तक ही सीमित नहीं है। उसके लिए नाक का सवाल ‘दबाव की राजनीति’ है। किसानो के आंदोलन के माध्यम से विपक्षी दल केंद्र सरकार पर दवाब की राजनीती चाहे कितनी भी नैतिक ही क्यों न हो, लेकिन फ़िलहाल भाजपा के लिए मुद्दा उनके सामने झुकने या नहीं झुकने का बन गया है।

राजनितिक पंडितो की माने तो प्रधानमंत्री के स्वभाव में झुकना शामिल नहीं है। केंद्र सरकार फ़िलहाल तटस्थ की स्थिति में है। वह किसी भी सूरत में तीनो कृषि बिलो का फैसला वापिस लेने के मुंड में नहीं है। भाजपा को डर है कि जन-आंदोलन के दबाव में किसी एक भी मुद्दे पर अगर समझौता होता है तो  इसका अर्थ यही होगा कि उन तमाम आर्थिक नीतियों की धारा ही बदल दी जाएगी जिन पर सरकार पिछले छह वर्षों से लगी हुई थी। इस भय ने भाजपा को अब आगे की रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।

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