गौरव की बात है कि कोई व्यक्ति अपने देश के लिए खेलता है और मेडल जीत कर लाता है। देश के हर व्यक्ति का सीना ये देखकर फक्र से चौड़ा हो जाता है। खेल और खिलाड़ी देश के अभिमान होते हैं। लेकिन वहींजब वही अभिमान अगर सड़क किनारे बैठ कर सब्जी बेचने लगे को देश के लिए शर्म का विषय होता है। कुछ ऐसी ही कहानी है सोनी खातून की।
सोनी खातून जिसने तीरंदाजी में मेडल जीतकर देश का नाम रौशन किया था पर वह आज सड़क के किनारे सब्जियां बेच रही हैं। राष्ट्रीय विद्यालय तीरंदाजी प्रतियोगिता में पदक जीतने वाली सोनी आज झरिया में सड़क किनारे सब्जी बेचने को मजबूर है। उसकी सुध न खेलप्रेमी ले रहे हैं न सरकार ले रही है और न ही तीरंदाजी संघ ले रही है। सोनी ने 2011 में पुणे में आयोजित 56वीं राष्ट्रीय विद्यालय तीरंदाजी प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीती थी। उसके बाद 2016 तक कई राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में भाग ली।
टाटा आर्चरी एकेडमी के फीडर सेंटर में उसे अपने हुनर को मांजने का मौका भी मिला। लेकिन उनका धनुष क्या टूटा, तीरंदाजी की दुनिया में सितारा बनकर चमकने का सपना ही टूट गया। तीर-धनुष के लिए उन्होंने कई बार खेल मंत्री से लेकर विभाग के अधिकारियों के चक्कर काटे, लेकिन उसे सिर्फ आश्वासन ही मिलता रहा। अब उनके पास अभ्यास करने के लिए न तीर-धनुष है और न ही खेल का मैदान।
सोनी मात्र 23 साल की हैं। हरी सब्जियां लिए झरिया के जियलगोरा की सड़क के किनारे बैठती हैं। इससे मुश्किल से वह अपने परिवार का गुजारा कर पाती है। परिवार में माता- पिता के अलावा दो और बहनें हैं। पिता इरदीश मियां घरों में रंगरोगन का काम करते हैं। लॉकडाउन में उनका काम ठप है। मां शकीला गृहिणी हैं। बड़ी बहन पीजी की पढ़ाई कर रही है, छोटी बहन इंटर में है। उनकी पढ़ाई का खर्च भी सोनी ही उठाती है। खुद सिर्फ दसवीं तक पढ़ पाई।
परिवार की हालत ऐसी है कि एक दिन घर में पैसा नहीं आए तो चूल्हा न जले। किराए के खपरैल मकान में रहते हुए सोनी ने तीरंदाजी के बड़े-बड़े सपने देखे पर अब उसकी आंखों में सपने की जगह आंसू हैं। सोनी कहती है कि लॉकडाउन में घर चलाना मुश्किल हो गया इसलिए सब्जी बेचना शुरू कर दी। रोज घर से करीब एक किमी दूर झरिया-सिंदरी मार्ग पर वह सब्जी बेचने आती है। वह कहती है कि आज भी अगर संसाधन मिले तो वह अपनी प्रतिभा से सूबे के लिए गौरव अर्जित कर सकती है।