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सावधान! मानसून आ गया है। लेकिन यह क्या? मानसून का रंग-रूप बदला-बदला है। कहीं मानसून का प्रलय है। कहीं इसका नामो-निशां नहीं। जहां बरस रहा, वहां लोग बेघर हो रहे हैं। जहां नहीं बरसा, वहां सूखे से लोग अपना घर छोड़ रहे हैं। यानी अब दोनों स्थिति में मानसून लोगों को विचलित कर रहा है। जबकि पहले मानसून आते ही लोगों के चेहरे खिल जाते थे। पेड़-पौधों में मुस्कान और ताजगी आ जाती थी। पक्षियां चहकने लगती थीं। जानवर अटखेलियां करने लगते थे। मगर अब मानसून अभिशाप बनता जा रहा है।
इस बार मानसून देश में विलंब से आया। कहीं खूब आया तो कहीं लोग अभी आसमान निहार रहे हैं। दिल्लीवासियों का इंतजार भी लंबा होता जा रहा है। राजधानी ही नहीं इस वक्त देश का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है। केंद्रीय कøषि मंत्रालय के आंकड़ों को माने तो कमजोर मानसून की वजह से 28 जून तक धान की बुआई में 24 फीसदी की गिरावट आई है। बीते जून में मानसून सामान्य से 33 फीसदी कम हुआ। देश में खेती अब भी एक बड़ी आबादी के लिए रोजगार का जरिया है। इसलिए मौसम प्रतिकूल होते ही विस्थापन तत्काल होने लगता है। ज्यादातर लोग वहां का रुख करते हैं, जहां उन्हें मुश्किलें कुछ कम दिखती हैं। यानी छोटा-मोटा रोजगार मिल जाए। खासकर वह अर्द्ध शहरी या शहरी क्षेत्र होते हैं, जहां रोजगार की उम्मीद होती है। हालांकि यह अस्थायी विस्थापन होता है। क्योंकि मौसम और खेती की स्थिति सामान्य होने पर यह विस्थापित आबादी अपनी जड़ों की ओर वापस भी लौटती है।
मगर बीते कुछ वर्षों में जिस तरह मौसम की मार लगातार देश के अलग-अलग इलाकों पर पड़ रही है, उसके चलते यह विस्थापन अब स्थायी बनता जा रहा है। यानी अब मौसम की मार झेलने वाले फिर से अपने पुराने आवास की ओर जाने से बचते हैं। साल दर साल इस तरह स्थायी रूप से विस्थापित होने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों पर काम करने वाली संस्था- नाॅर्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल के इंटरनल डिस्प्लेसमेंट माॅनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) ने इस पर एक विस्तृत अध्ययन किया है। इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में दुनिया में 4.13 करोड़ लोगों को अपने ही देश के भीतर विस्थापित होने के लिए मजबूर होना पड़ा। इनमें 1.72 करोड़ को मौसम संबंधी आपदा की वजह से अपना बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा। इन आपदाओं में चक्रवात, बाढ़ और सूखे की हिस्सेदारी 94 फीसदी रही। आज से पांच साल पहले यानी 2013 में आतंरिक विस्थापन का दंश झेलने वालों की संख्या 2.2 करोड़ थी। इनमें सबसे अधिक 87 फीसदी लोग एशिया से थे।
2013 की तरह पिछले साल भी एशियाई देशों को ही मौसम की सबसे अधिक मार झेलनी पड़ी है। इनमें फिलीपींस और चीन के साथ भारत भी शीर्ष तीन देशों में शामिल है। इन देशों में मौसम की मार से विस्थापित होने वालों की संख्या एक करोड़ से अधिक है। आईडीएमसी की रिपोर्ट की मानें तो अकेले भारत में बीते साल 26.8 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए थे। यह संख्या साल 2017 की तुलना में दोगुने से अधिक है। वहीं, पिछले साल लोगों के विस्थापित होने की बड़ी वजह हमेशा की तरह ही बाढ़ रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से 20 लाख लोग बाढ़ प्रभावित थे। यानी आजादी के सात दशक बाद भी देश में बाढ़ लोगों से घर छिनने की एक बड़ी वजह बनी हुई है।
विस्थापितों की संख्या के लिहाज से देखें तो केरल में आई भारी बाढ़ बीते साल देश के लिए सबसे बड़ी आपदा साबित हुई थी। इसकी वजह से राज्य के करीब 15 लाख लोगों को अपना घर छोड़ विस्थापित होना पड़ा था। इससे सूबे को 20,000 करोड़ रुपये की संपत्ति का भी नुकसान हुआ था। इसके अलावा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में आए चक्रवाती तूफानों के चलते भी 6.5 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। इस साल भी प्राकृतिक आपदा का यह सिलसिला रुकता हुआ नहीं दिखता। ओडिशा को इस साल भी विनाशकारी चक्रवाती तूफान ‘फानी’ का सामना करना पड़ा है। इसके चलते राज्य में बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा है। हालांकि, इससे जूझने के लिए राज्य सरकार द्वारा पहले से पर्याप्त तैयारी की गई थी। इसके बावजूद इस तूफान से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या करीब एक करोड़ तक पहुंच गई। साथ ही, पांच लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। उधर, ओडिशा को इस चक्रवाती तूफान की वजह से 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। अब बाढ़ की खबरें आने लगी हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में पानी के उफान के चलते एक बांध टूट जाने से सात से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 20 से ज्यादा लापता हैं। ऐसी ही खबरें पूर्वोत्तर से भी आ रही है। 2013 में केदारनाथ में आई आपदा ने भी हजारों लोगों को बेघर कर दिया था। हजारों लोग स्थायी रूप से पूरे केदारघाटी से विस्थापित हो चुके हैं।
देश के अधिकांश हिस्सों में अब तक मानसून कमजोर रहा है। लेकिन, हालिया वर्षों में यह देखा गया है कि कुछ खास इलाकों में एक-दो दिनों की भारी बारिश भारी की वजह से लोगों को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ता है। मुंबई इसका उदाहरण है जहां इसी हफ्ते बारिश में एक दशक पुराना रिकाॅर्ड तोड़ दिया। जानकारों की मानें तो बारिश में यह अनियमितता जलवायु परिवर्तन की देन है। इस वजह से एक ओर देश के एक बड़े हिस्से में लोगों को सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है तो दूसरी ओर भारी बाढ़ का। इन दोनों की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों की जिंदगी प्रभावित होती है।
जलवायु परिवर्तन के चलते हालिया वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती संख्या पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने भी चिंतित है। यूएन ने भी कई शोध का जिक्र कर अपनी चिंता का इजहार किया है। उसके मुताबिक कई शोध बताते हैं कि धरती पर जलवायु में बदलाव वैज्ञानिक अनुमानों के मुकाबले कहीं तेजी से हो रहे हैं। इसके चलते पैदा होने वाली प्राकृतिक आपदाएं बड़ी संख्या में लोगों को अपना घर छोड़ शरणार्थी वाली जिंदगी गुजारने पर मजबूर कर रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक अब भी दुनिया नहीं चेती तो आगे हालात बदतर होने वाले हैं। यही चेतावनी बार-बार पर्यावरणविद् भी देते रहे हैं। फिर न तो सरकार चेतती है और न ही आम लोग अपनी सुविधाओं में कमी लाने को तैयार है।
‘प्रकृति से प्रेम का प्रण लेना होगा’
 
जलपुरुष राजेंद्र सिंह से बातचीत के मुख्य अंश।
मानसून का रूप क्यों बदल रहा है?
जब हम पेड़ को पेड़ नहीं समझेंगे। उसे अपनी बपौती मान लेंगे तो यही होगा। कानून होने के बाद भी पेड़ धड़ल्ले से काटे जा रहे हैं, जबकि एक पेड़ चाहे किसी के निजी जमीन या बगान में ही क्यों न हो, वह समाज का है। उसे सुरक्षित रखने के लिए समाज को आगे आना होगा, क्योंकि अब सरकार से लोगों ने उम्मीदें छोड़ दी हैं।
 
एक रिपोर्ट आई है, जिसके मुताबिक मानसून के दौरान विस्थापन में तेजी आ रही है?
यह सच्चाई है। जब बारिश प्रलय का रूप ले लेगी तो वह तहस-नहस तो करेगी। प्रलय और आपदा पहले भी आती थी। लेकिन तब प्रलय या आपदा का समय अंतर अधिक हुआ करता था। अब तो हर साल ही कहीं न कहीं आपदा आती है। दुनिया की छोड़ दीजिए, अपने देश में ही पिछले कुछ सालों पर नजर डालिए।
क्या है, इसका इलाज?
इसका एक मात्र इलाज है। प्रकøति से प्रेम। उससे लगाव। उससे कोई छेड़छाड़ न करने का प्रण हर एक को लेना होगा।

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