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महामहिम जी! दागी को संरक्षण क्यों?

महामहिम राज्यपाल महोदय जी, मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी का दावा है कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति एसपी सिंह की नियुक्ति नियमों को ताक पर रखकर की गयी है। सोसायटी का यह भी दावा है कि जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार से सम्बन्धित मामला पंजीकृत करके जेल भेजा जाना चाहिए था वह लखनऊ विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में कुलपति कैसे बना बैठा है। शंका जतायी जा रही है कि इस मामले में या तो राजभवन के कुछ अधिकारियों की मिलीभगत हो सकती है या फिर सत्ता बदलने के साथ ही अपनी आस्थाएं बदलने वाले कुलपति एसपी सिंह को राजनीति संरक्षण।   
‘भ्रष्टाचार पर जीरो टाॅलरेेंस के दावे और भ्रष्टाचारियों को संरक्षण’, सिक्के के ये दो पहलू मौजूदा योगी सरकार के कार्यकाल में बिलकुट फिट बैठ रहे हैं। भ्रष्टाचार से सम्बन्धित दस्तावेजों के आधार पर की गयी शिकायत का हश्र देखिए। विधानसभा और राजभवन से महज 3-4 किलोमीटर की दूरी पर लखनऊ विश्वविद्यालय मौजूद है और इस विश्वविद्यालय की कमानर एसपी सिंह नाम के जिस शख्स के हाथों में है उस शख्स के खिलाफ तमाम दस्तावेजी शिकायतें महामहिम राज्यपाल के पास भेजी जा चुकी हैं और शिकायतों से सम्बन्धित यह क्रम उस वक्त से चलता चला आ रहा है जब महामहिम राज्यपाल राम नाईक को सूबे में महामहिम की जिम्मेवारी सौंपी गयी थी। चूंकि उस वक्त सूबे में सपा की सरकार थी और महामहिम राज्यपाल का सम्बन्ध सीधा भाजपा से सम्बन्धित था लिहाजा सभी को उम्मीद थी कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरोपी शख्स के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई होगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। समय बदला और इसी बीच सूबे में भाजपा की सरकार ने दस्तक दी। भ्रष्टाचार पर जीरो टाॅलरेंस की बात करने वाली इस सरकार में एक नामचीन आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई का यह हाल है कि लगभग डेढ़ वर्ष का समय बीत चुका है लेकिन सूबे की सत्ता बदलने के साथ ही अपनी आस्थाएं बदलने वाले एक शख्स के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकी।
यूपी सरकार के दावों की कलई खोलने के लिए सिर्फ इतना जान लेना जरूरी है कि यूपी में सरकार भाजपा की, महामहिम राज्यपाल भी भाजपा के और नियम-कानून के विपरीत संरक्षण मिल रहा है एक ऐसे शख्स को जिसे कभी समाजवादी युवजन सभा का बेहद करीबी माना जाता रहा है। जब सूबे में सपा की सरकार थी तब यह व्हाइट काॅलर शख्स अपर्णा यादव के आगे-पीछे घूमने पर स्वयं गौरवान्वित महसूस करता था। ये वह दौर था जब यह शख्स राजधानी लखनऊ के एक प्रतिष्ठित काॅलेज ‘नेशनल पीजी काॅलेज’ का प्राचार्य हुआ करता था। काॅलेज में अपर्णा यादव की उपस्थिति इस शख्स के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं हुआ करती थी। सपा के कार्यकाल में सपाइयों की चरण वन्दना ऐसी कि यदि सपा कार्यालय से किसी पदाधिकारी का फोन आ भी जाए तो यह शख्स समस्त नियम-कानून को धता बताते हुए कुछ भी कर गुजरने के लिए हमेशा तत्पर रहता था। समय और सूबे की सत्ता बदलने के साथ ही इस शख्स की आस्थाएं भी ऐसी बदली मानो कोई गिरगिट किसी दीवार से छलांग लगाकर किसी पत्ते पर बैठ गया हो और उसी रंग में परिवर्तित हो गया हो।
यहां बात हो रही है लखनऊ विश्वविद्यालय के बहुचर्चित एवं विवादित कुलपति डाॅ. एस.पी. सिंह की। लखनऊ विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के बाद भी ये लगातार

VC.Dr S.P Singh

सुर्खियां बटोरते चले आ रहे हैं। हाल ही में छात्रों की काॅशन मनी डकार जाने का आरोप भी इन पर लग चुका है। इनकी मुखालफत करने वालों में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ ही एनएसयूआई के युवक भी शामिल हैं। इस शख्स के कारनामों से सम्बन्धित तमाम दस्तावेजी आरोप महामहिम राज्यपाल कार्यालय से लेकर भाजपा के कुछ कद्दावर नेताओं तक भी पहुंचाए जा चुके हैं। सूबे की योगी सरकार के बीच इस शख्स की पैठ का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिस शख्स के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हो चुकी हो और छात्रों का एक बड़ा वर्ग लगातार उनकी खिलाफत करता आ रहा हो फिर भी राजभवन कार्यालय से कार्रवाई के बाबत एक कदम आगे नहीं बढ़ाया जाता। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के राजनीतिक सुपुत्र पंकज सिंह के साथ इस शख्स की गहरी पैठ इसके लिए किसी कवच से कम नहीं। हालांकि महामहिम राज्यपाल भी तमाम शिकायतों के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के समक्ष आपत्ति दर्ज करवा चुके हैं लेकिन आरएसएस में भी अच्छी पकड़ रखने वाले इस शख्स को लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति पद से हटाया जाना तो दूर की बात उनसे दस्तावेजों के आधार पर पूछताछ नहीं की गयी। प्रश्न गंभीर है और वाजिब भी कि आखिर क्या वजह है कि तमाम दस्तावेजी सुबूतों के बावजूद भाजपा और राजभवन एक ऐसे शख्स को संरक्षण देता चला आ रहा है जिसके खिलाफ विधि सम्मत कार्रवाई होनी चाहिए थी।

लखनऊ विश्वविद्यालय के मौजूदा कुलपति डाॅ. एसपी सिंह के काले पन्नों को खोले जाने की शुरुआत करते हैं पूर्ववर्ती सपा सरकार के कार्यकाल (वर्ष 2014) से। राम नाईक जी उस वक्त भी सूबे में महामहिम की कुर्सी पर विराजमान थे। महामहिम यानी लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलाधिपति। स्पष्ट है कि यूपी के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होने की वजह से इनकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। बताना जरूरी है कि जहां कहीं भी भ्रष्टाचार हो और दस्तावेजी सुबूतों के बावजूद कुलपति के खिलाफ कार्रवाई न की जा रही हो तो जान लीजिए कि महामहिम राज्यपाल किसी न किसी दबाव में अवश्य होंगे अन्यथा क्या वजह हो सकती है कि जिस शख्स के खिलाफ तमाम दस्तावेजों के साथ शिकायतें-दर-शिकायतें हो रही हों और महामहिम राज्यपाल चुप्पी साधकर बैठे हों।
Vimal Kumar Sharma

मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी के संस्थापक सदस्य विमल कुमार शर्मा ने पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार के कार्यकाल में (15 दिसम्बर 2014) महामहिम राज्यपाल राम नाईक के पाए डाॅ. एस.पी सिंह के खिलाफ एक शिकायती पत्र भेजा। इस शिकायती पत्र के साथ भ्रष्टाचार से सम्बन्धित ऐसे दस्तावेजी सुबूत भी संलग्न किए गए थे यदि उनको आधार बनाकर डाॅ. एसपी सिंह के खिलाफ कार्रवाई की जाती तो निश्चित तौर पर जो शख्स यूपी के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का कुलपति बना बैठा है उसे उसके पद से तो हटाया ही जाता साथ ही उसके खिलाफ विधि सम्मत कार्रवाई की प्रक्रिया को भी रोका नहीं जा सकता था। कहा तो यहां तक जा रहा है कि यदि समय रहते दस्तावेजी के आधार पर सख्त कार्रवाई होती तो डाॅ. एसपी सिंह आज सलाखों के पीछे नजर आते।

पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार के कार्यकाल में भी डाॅ. एसपी सिंह के रुतबे का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि राजभवन कार्यालय से कुलाधिपति के सचिव ने कुलपति के पास उनका जवाब जानने के लिए लगभग आधा दर्जन पत्र (पत्रांक संख्याः ई 8029/5जीएस/2013(मिस) दिनांक 10.10.2013, ई 8675/जीएस दिनांक 18.11.2013, ई 549/जीएस 16.01.2014, ई 719/5 जीएस2013 दिनांक11.02.2014, ई 5968/5 तह.एस/2013(मिस) दिनांक 21 जुलाई 2014, ई 7583/5जीएस/2013 (मिस) दिनांक18.09.2014 और ई 8586/5जीएस/2013(मिस) दिनांक 13 अक्टूबर 2014) भेजे लेकिन कुलपति ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया। उस वक्त भी मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी के संस्थापक सदस्य विमल कुमार शर्मा ने खेद जताते हुए यहां तक कटाक्ष किया था कि ‘यह पर्याप्त खेद का विषय है कि कुलपति द्वारा लगातार महामहिम राज्यपाल के आदेशों की अवज्ञा की जा रही है लेकिन कुलाधिपति कार्यालय (राजभवन कार्यालय) ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। जब कोई कुलपति निरंतर कुलाधिपति के सचिव द्वारा भेजे गए पत्रों की निरंतर अवज्ञा कर रहा हो तो इस प्रकरण में माननीय कुलाधिपति के स्तर से ही प्रभावी कार्यवाही की जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कुलपति को मात्र पत्र लिख देने भर से माननीय कुलाधिपति ने अपने अधिकारों का उपयोग मान रखा है।’ महामहिम राज्यपाल को लिखे गए पत्र में यहां तक कहा गया है कि ‘जो निर्णय कुलाधिपति के कार्य क्षेत्र में ही लिया जाना अपेक्षित हो, उस पर उदासीनता की स्थिति बनाए रखना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।’ सोसायटी के संस्थापक सदस्य विमल कुमार शर्मा ने यहां तक लिखा था कि ‘यदि उनकी शिकायतें अनर्गल और तथ्यहीन हों तो वे अपने प्रति कार्यवाही के लिए पूरी तरह से सज्ज हैं और कुलाधिपति के स्तर से कार्यवाही किए जाने का वे स्वागत करेंगे।’
महामहिम राज्यपाल की गरिमा और उनके अधिकारों को चुनौती देता यह पत्र और इस पत्र के बावजूद किसी प्रकार की कार्यवाही का न होना इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि या तो राजभवन कार्यालय में बैठा कोई अधिकारी कुलपति डाॅ.एस.पी. सिंह को बचा रहा है या फिर पार्टी के किसी बड़े नेता का दबाव महामहिम राज्यपाल के हाथ बांधे हुए है। हालांकि कहा तो यही जा रहा है कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. एसपी सिंह ने केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सुपुत्र पंकज सिंह का हाथ थाम रखा है और पंकज सिंह के ही कहने पर राजनाथ सिंह महामहिम राज्यपाल से मिलकर कुलपति के खिलाफ होने वाली कार्रवाई को कवच कर चुके हैं। इन चर्चाओं में कितना दम है यह शोध का विषय हो सकता है लेकिन तमाम दस्तावेजी सुबूतों के बावजूद कुलपति डाॅ. एसपी सिंह के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई का न किया जाना कहीं न कहीं दाल में काले की तरफ परिलक्षित करता है।
ज्ञात हो, जब डाॅ. एसपी सिंह को लखनऊ विश्वविद्यालय का कुलपति बनाए जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी उसी वक्त सोसायटी की तरफ से विरोध दर्ज किया जाने लगा था। ऐसा इसलिए क्योंकि नेशनल पीजी काॅलेज में बतौर प्रधानाचार्य एसपी सिंह पर भ्रष्टाचार के तमाम मामले इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि ऐसे किसी शख्स को एलयू का कुलपति न बनाया जाए जिस पर अनियमितता और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हों। विरोधस्वरूप विभिन्न माध्यमों से जमकर पत्राचार भी हुआ लेकिन हुआ वही जिसका बात का अंदेशा पहले से था। तमाम विरोध के बावजूद डाॅ. एसपी सिंह को लखनऊ विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया गया। इस पर सोसायटी के संस्थापक सदस्य विमल कुमार शर्मा ने महामहिम राज्यपाल को भेजे गए अपने पत्र में कटाक्ष करते हुए लिखा है कि ‘यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि डाॅ. एसपी सिंह को कुलपति बनाए जाने के पीछे आपका स्वःविवेक निर्णायक आधार नहीं रहा होगा। किसी न किसी अदृश्य दबाव ने आपके निर्णय को प्रभावित किया होगा। शैक्षिक जगत के लिए आपका यह निर्णय अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और शिक्षा जगत में श्रेष्ठ परम्पराओं की जब कभी चर्चा होगी तो आपके इस निर्णय को किसी कसौटी पर न्यायोचित नहीं माना जायेगा। जहां श्रेष्ठ कार्यों के लिए आपका सुखद स्मरण किया जायेगा वहीं इस निर्णय के लिए भी आप अपयश से बच नहीं पायेंगे। मेरी दृष्टि में यह आपके कार्यकाल की गंभीर त्रृटि है।’
तमाम शिकायतों के साथ महामहिम राज्यपाल को भेजे गए इस पत्र का हश्र यह हुआ कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति के खिलाफ तो कोई कार्रवाई नहीं की गयी अलबत्ता शिकायतकर्ता को हर तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा। मौजूदा स्थिति यह है कि न तो ‘भ्रष्टाचार पर जीरो टाॅलरेंस’ की बात करने वाली योगी सरकार ने ही इस गंभीर मामले में कोई सुधि ली और न ही राजभवन ने ही कोई रुचि दिखायी।
गंभीर प्रश्न यह है कि आखिर तमाम दस्तावेजी सुबूत प्रस्तुत किए जाने के बावजूद आरोपी कुलपति के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो पा रही? जवाब ढूंढने के लिए जब छात्र संगठनों से वार्ता की गयी तो सभी ने एक स्वर से यही कहा, ‘जब आरोपी कुलपति के मधुर सम्बन्ध केन्द्रीय मंत्री के सुपुत्र से हों तो फिर किसकी हिम्मत जो कार्रवाई कर सके। रही बात महामहिम राज्यपाल महोदय की तो वे सिर्फ रबर के स्टैम्प माफिक हैं।
तमाम दस्तावेजी सुबूत और शिकायतकर्ताओं का पक्ष जान लेने के बाद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कुलपति जैसे पदों के चयन में भी जब राजभवन गंभीर नहीं रह सकता तो उससे कोई और उम्मीद रखना बेमानी होगी। अंत में प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार किसके दामन पर दाग हैं, राजभवन पर या फिर उन नेताओं पर जो दागी कुलपति को संरक्षण प्रदान किए हुए हैं। 

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