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गठबन्धन की राह में कांटे ही कांटे

यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर भाजपा को मात देने की गरज से दो कट्टर दुश्मन दलों का गठबन्धन चर्चा में तो जरूर है लेकिन मौजूदा समय में सपा-बसपा नेताओं के बीच जो मंथन और विचार-विमर्श चल रहा है उसे देखकर नहीं लगता है कि यह गठबन्धन अपना वह मुकाम हासिल कर पायेगा जिसे आधार बनाकर उसने इस गठबन्धन को न चाहते हुए भी स्वीकार किया।
गठबन्धन में पार्टी के दो बड़े नेता अखिलेश और मायावती ने भले ही जीत का ख्वाब संजो रखा हो लेकिन पार्टी के कार्यकर्ता और पदाधिकारियों को इस गठबन्धन से कोई विशेष लाभ मिलता नजर नहीं आ रहा। इतना जरूर है कि इन दोनों दलों को इस बार बढ़ी हुई सीटें देखने को अवश्य मिलेंगीं लेकिन जहां तक भाजपा को सत्ता में आने से रोकने की है और वह भी यूपी से तो इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं। वजह साफ है, भले ही दोनों दलों के शीर्ष नेताओं ने दिल मिलने की बात कही हो लेकिन सच्चाई यह है कि सपा-बसपा नेता एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं। जिन स्थानों पर सपा ने अपनी दावेदारी छोड़ बसपा नेताओं को समर्थन देने की बात कही है उन क्षेत्रों की स्थिति यह है कि सपा नेता अपने धुर-विरोधी दल के संभावित प्रत्याशियों को समर्थन देने पर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं। हालांकि पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने स्थानीय नेताओं को सख्त हिदायत दे रखी है कि वे खुलकर बसपा प्रत्याशियों को समर्थन करेंगे लेकिन उन स्थानों का क्या होगा जहां पर सपा और बसपा नेताओं के बीच विरोधाभास इतना है कि दोनों दलों के नेता किसी शर्त पर संगठन के दूसरे दल को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं है। स्थिति यह है कि दोनों दलों में फिलवक्त खामोशी इसलिए छायी हुई है क्योंकि अभी तक टिकट फाइनल नहीं किए गए हैं, टिकट फाइनल होते ही दोनों दलों के नेताओं के बीच सिर-फुटौव्वल की नौबत तय है। यह भी तय है कि शुरुआती दौर में दोनों ही दलों के प्रमुखों को सख्त कदम उठाते हुए पार्टी आदेशों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाना पड़े लेकिन इतना काफी नहीं है दोनों दलों के नेताओं के बीच जहर के बीज को आसानी से हटा पाना। छिटपुट तौर पर कई स्थानों पर विरोधाभासी बयानबाजी की बात भी सामने आ रही है। इस पर पार्टी प्रवक्ताओं का कहना है कि यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है कि इसे सुलझाया न जा सके। जिन स्थानों पर इस तरह की समस्याएं आ रही हैं उन स्थानों के नेताओं के साथ मीटिंग आयोजित कर समस्याओं का समाधान कर दिया जायेगा।
दोनों ही दल अपने-अपने रूठे नेताओं को कैसे मनायेंगे यह देखने वाला होगा लेकिन इसी बीच सपा-बसपा ने प्रत्याशियों की सूची जल्द जारी करने का संकेत दे दिया है। पार्टी प्रमुखों की तरफ से मिले इस संकेत के बाद से दोनों ही दलों के नेताओं के बीच चहल-कदमी एकाएक बढ़ गयी है। दोनों ही दलों के पार्टी कार्यालयों में चहल-कदमी भी आसानी से देखी जा सकती है।
बसपा ने इस बार टिकट तय करने की जो रणनीति अपना रखी है उसे देखकर ऐसा नहीं लगता है कि वह दोबारा वही गलती दोहरायेंगी जो गलती उन्होंने विगत लोकसभा चुनाव में की थीं। इस बार बसपा पूरी तरह से पार्टी महासचिव सतीश मिश्रा के फार्मूले ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के तर्ज पर उम्मीदवारों की सूची तैयार कर रही हैं। बसपा की इस बार की सूची में कुछ पुराने चेहरे तो अवश्य होंगे साथ ही नए चेहरों पर भी दांव लगाए जाने की बात कही जा रही है। नए चेहरों का इस्तेमाल आरक्षित सीटों पर किया जा रहा है जबकि जनरल सीटों पर कुछ पूर्व सांसदों के साथ ही विधायक और पूर्व मंत्री भी हो सकते हैं। दलित, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान, ब्राह्मण और चन्द क्षत्रिय बसपा टीम से चयनित किए जा सकते हैं। खास बात यह है कि टिकट बंटवारे के दौरान दलितों को सर्वाधिक संख्या में टिकट जायेगा। ऐसा इसलिए कि दलित वर्ग ही ऐसा है जो अभी भी बसपा में ही अपनी आस्था का प्रदर्शन करता आया है, लिहाजा मायावती दलितों की भावनाओं को किसी कीमत पर आहत करना नहीं चाहेंगी। इधर समाजवादी पार्टी ने भी अपने हिस्से की सीटों पर प्रत्याशी लगभग तय कर दिए हैं। यहां भी वही हाल है। विगत लोकसभा चुनाव में उतारे गए प्रत्याशियों में से कई चेहरे ऐसे नजर आयेंगे जिन्हें दोबारा टिकट दिया जायेगा। वहीं कुछ नए चेहरे भी चैंका सकते हैं। गिनती की सिटिंग सीटें एक बार फिर से परिवार के पास ही जायेंगी।
इस सबके बावजूद सपा-बसपा गठबन्धन के प्रमुख अपने-अपने कार्यकर्ताओं को किस तरह से दूसरे दल के नेताओं को समर्थन देने के लिए तैयार करेंगे यह देखने वाला होगा लेकिन प्रसपा नाम का एक नया दल इस गठबन्धन को नुकसान पहुंचाने की कोई कसर नहीं छोड़ेगा, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। सपा से रूठकर नया दल बनाने वाले शिवपाल यादव इस बात के संकेत दे चुके हैं कि वे अपमान का बदला जरूर लेंगे। जाहिर है कि शिवपाल यादव की चुनौती का सर्वाधिक असर सपा को होने वाला है साथ ही बसपा को भी इस दल से नुकसान होने की संभावना बनी हुई है। ऐसा इसलिए कि भले प्रसपा इस लोकसभा चुनाव में कोई भी सीट न जीत सके लेकिन शिवपाल में इतनी कूवत जरूर है कि जिस लोकसभा क्षेत्र में वे भाषण देने पहुंच जायेंगे उस क्षेत्र में बसपा को समर्थन देने वाले सपाइयों का तो मन खट्टा कर ही देंगे। यहां तक जा रहा है कि जो 38 सीटें सपा ने अपने सहयोगी दल बसपा को समझौते के तहत दी हैं उन सीटों के सपा नेता शिवपाल की नवगठित पार्टी प्रसपा में शामिल हो सकते हैं। जाहिर है ऐसी स्थिति में बसपा को सपा के साथ का कोई फायदा नहीं मिलेगा। यह बात बसपा भी जानती है, चूंकि बसपा का अपना परम्परागत वोट बैंक है लिहाजा उसे उतना नुकसान होता नजर नहीं आ रहा जितना नुकसान सपा को होने की संभावना ज्यादा है। सपा के हिस्से की 38 सीटों पर यादव परिवार को यदि छोड़ दिया ताए तो शेष सीटों पर जीत की उम्मीद कम ही नजर आ रही है क्योंकि इन स्थानों पर भी शिवपाल की पार्टी के कार्यकर्ता अभी से सपा-बसपा गठबन्धन को लेकर जहर के बीज बोने लगे हैं।
इन तमाम संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए यह बात तो तय है कि भाजपा के खिलाफ इस गठबन्धन के बावजूद भाजपा को इतना अधिक प्रभाव पड़ता नजर नहीं आ रहा जितना कि गठबन्धन के नेताओं ने आंकलन कर रखा है। यह भी तय है इस लोकसभा चुनाव में यदि अपेक्षाओं के अनुकूल परिणाम नजर नहीं आए तो निश्चित तौर पर यह गठबन्धन ज्यादा समय तक चलने वाला नहीं।

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