पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में होने जा रहे चुनाव से पहले सियासी तापमान चरम पर पहुंच चुका है। 2017 में साठ सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस 28 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी जरूर लेकिन 21 सीटें जीतने वाली भाजपा ने तुरत-फुरत अन्य दलों संग गठबंधन कर सरकार बना डाली। 2019 के लोकसभा चुनाव बाद कांग्रेस के कई विधायकों ने पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। अब लेकिन राज्य में राजनीतिक हालात एक बार फिर से कांग्रेस के पक्ष में बनते नजर आ रहे हैं। भाजपा के कई नेता पार्टी छोड़ नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल हो चुके हैं। भाजपा गठबंधन का हिस्सा होते हुए भी नेशनल पीपुल्स पार्टी एवं नेशनल पीपुल्स फ्रंट सरीखे क्षेत्रीय दल इस चुनाव में भाजपा संग औपचारिक गठबंधन किए बगैर चुनाव लड़ रहे हैं
देश की ‘7 सिस्टर्स’ में से एक मणिपुर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को लेकर सभी दलों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है। पहले चरण के मतदान में कुछ दिन ही शेष हैं। ऐसे में बीजेपी-कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेताओं को चुनावी मैदान में उतार दिया है। 21 जनवरी इतिहास का वो दिन था जब देश के संघीय इतिहास में मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा के तौर पर तीन राज्यों का उदय हुआ। पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा को अलग राज्य बने अब पांच दशक हो गए हैं। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम 1971 के तहत मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा को 21 जनवरी, 1972 को अलग राज्य का दर्जा दिया गया था। मणिपुर हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है। 1963 में पहली बार मणिपुर में विधानसभा के चुनाव हुए। पहले ही चुनाव में यहां कांग्रेस की जीत हुई और मैरेम्बम कोइरंग सिंह मुख्यमंत्री बने। तब से सबसे ज्यादा समय यहां कांग्रेस की सरकारें रही हैं। कांग्रेस के ओकरम इबोबी सिंह यहां 15 वर्षों से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं। 1977 में यहां पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार जनता पार्टी की बनी थी। यहां 10 बार राष्ट्रपति शासन भी रहा है।

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें हासिल हुई थी। 60 विधानसभा वाले मणिपुर में कांग्रेस को 28 सीटें और भारतीय जनता पार्टी को 21 सीटें मिली थी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने नेशनल पीपुल्स पार्टी, नागा पीपुल्स फ्रंट, लोक जनशक्ति पार्टी और 2 निर्दलीय विधायकों के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली थी। सूबे के मुख्यमंत्री पद के तौर पर शपथ भाजपा के एन बीरेन सिंह द्वारा ली गई।
पूर्वोत्तर के इस छोटे से राज्य में भले ही राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस का काफी लंबे समय तक दबदबा रहा हो लेकिन सरकार गठन में क्षेत्रीय पार्टियों की समय-समय पर बड़ी भूमिका रहती है। वर्तमान भाजपा सरकार में भी एनपीपी और एनपीएफ की बड़ी भूमिका है। इससे पहले मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, मणिपुर पीपुल्स पार्टी जैसे दल सरकार गठन में अहम साबित रहे हैं। इन राज्यों में कभी-कभी दलों का टूटना सरकार पर भारी पड़ जाता है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है कि पूरी पार्टी बिखर जाती है और नेता दूसरे दलों में चले जाते हैं। एन बीरेन सिंह की सरकार में भी कई बार घटक दलों का असंतोष उभरा परंतु भाजपा उसे शांत करने में कामयाब रही।
कांग्रेस कर रही है सत्ता वापसी के प्रयास
फिलहाल मणिपुर में कांग्रेस वापसी के प्रयासों में लगी है। 2017 में सबसे बड़ा दल बन उभरने के बाद भी सरकार न बना पाने का मलाल कांग्रेस को अब तलक है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू मणिपुर को ‘ज्वेल ऑफ इंडिया’ कहते थे। जिससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस के लिए मणिपुर कितना खास रहा है। मणिपुर में कांग्रेस के प्रभाव को समझने के लिए इस तरह से ओकराम इबोबी के नेतृत्व में साल 2017 तक लगातार 15 सालों से कांग्रेस की सरकार का कार्यकाल काफी है। 15 साल की एंटी इन्कमबेंसी भी यहां कांग्रेस का जलवा खत्म नहीं कर पाई। यही वजह रही कि पार्टी ने सबसे ज्यादा 28 सीटें 2017 के विधानसभा चुनावों में यहां हासिल की थी।
मतई समुदाय तय करता है हार-जीत
मणिपुर की सियासत में मतई समुदाय का दबदबा रहा है। मणिपुर में कुल 60 विधानसभा सीटें हैं। 20 सीटें पहाड़ी इलाके में पड़ती हैं और 40 सीटें घाटी इलाकों में। मतई समुदाय यहां निर्णायक भूमिका में रहता है। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि सूबे में उसी की सरकार बनती है जिसके साथ मतई समुदाय होता है। भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी समुदाय को साधने की कोशिश की थी। यही वजह थी कि सीटों में जबरदस्त इजाफा हुआ था।

दरअसल साल 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पास 42 सीटें थी। तब बीजेपी के पास एक भी सीट नहीं थी। अब बीजेपी की सरकार है और लगातार कांग्रेस की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। बीजेपी के नेता लगातार दावा करते रहते हैं कि पूर्वोत्तर में भाजपा की सरकारें बनने के बाद न केवल कानून व्यवस्था की स्थिति में भारी सुधार हुआ है बल्कि यह क्षेत्र विकास की मुख्यधारा से भी जुड़ पाया है। राज्य में बीजेपी अब एक ताकतवर फैक्टर बन चुकी है। कांग्रेस और बीजेपी की सीधी जंग होनी तय है लेकिन एक बार फिर स्थानीय दल बड़ी भूमिका सरकार बनाने में निभा सकते हैं।
राजनीतिक तौर पर राज्य में तृणमूल कांग्रेस, नागा पीपुल्स फ्रंट, लोक जनशक्ति पार्टी, नेशनल पीपुल्स के अलावा लेफ्ट पार्टियां भी सक्रिय हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को 1 भी सीटें हासिल नहीं हो पाई थी। 2017 में कांग्रेस 28, बीजेपी 21, टीएमसी 1, एनपीएफ 4, एलजेपी 1, एनपीपी 4 और एक निर्दलीय उम्मीदवार को जीत मिली थी।
अफस्पा है मुख्य चुनावी मुद्दा
यूं तो कई मुद्दे हैं जिनको देखते हुए ही मणिपुर की जनता इस बार वोट करेगी। लेकिन अफस्पा इस समय सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा है। इसे खत्म करने के लिए कांग्रेस पार्टी वकालत करती रही है। जब वह सत्ता में थी तो सात विधानसभा क्षेत्रों से इसे वापस भी ले लिया था। कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता में आने पर अफस्पा को रद्द करने का चुनावी वादा भी कर रखा है। जबकि बीजेपी के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने पिछले महीने एक इंटरव्यू में कहा था कि मणिपुर के लोग और वह खुद अफस्पा के खिलाफ हैं, लेकिन इसे तभी हटाया जाएगा, जब केंद्र की सहमति होगी।
कांग्रेस मणिपुर के लोगों की अस्मिता को भी मुद्दा बनाने में जुटी है। पार्टी के नेता राहुल गांधी अपनी जनसभाओं में वोटर को याद दिला रहे हैं कि कैसे कुछ अर्सा पहले केंद्रीय गृहमंत्री के निवास पर मणिपुर के नेताओं को अपमानित होना पड़ा था। दरअसल जनवरी के अंतिम सप्ताह में मणिपुर के जनप्रतिनिधियों का एक शिष्ट मंडल जब गृह मंत्री के सरकारी आवास पर भेंट करने गया था तब उन्हें गृह मंत्री के कक्ष के बाहर जूते उतारने को कहा गया। राहुल गांधी ने 2 फरवरी को लोकसभा में इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए इसे मणिपुर की जनता को छोटा साबित करने की भाजपाई मनोवृति से जोड़ते हुए सवाल उठाया था कि ऐसा भला क्योंकर हुआ? उन्होंने दावा किया था कि गृह मंत्री खुद तो चप्पल पहने हुए थे लेकिन मणिपुर के नेताओं को नंगे पांव मिलना पड़ा था। अब कांग्रेस इसे चुनावी मुद्दा बना इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ मेघालय में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चला रही नेशनल पीपुल्स पार्टी भी मणिपुर में भाजपा के खिलाफ जाती नजर आ रही है।
नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनार्ड संगमा अपनी चुनावी जनसभाओं में भाजपा पर गठबंधन धर्म का पालन न करने का आरोप लगा रहे हैं। बकौल कोनार्ड संगमा ‘दुख की बात यह है कि पिछले पांच वर्षों में कई मोर्चों पर हमें गठबंधन में बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और इसलिए हम लोगों से किए गए कई वादों को पूरा नहीं कर पाए। गठबंधन के बीच में हमारे विधायकों को काफी परेशानी हुई और इसलिए उन्होंने गठबंधन से बाहर आने का फैसला किया, मेरे और कुछ वरिष्ठ भाजपा नेताओं के हस्तक्षेप के बाद ही हमारे विधायक वापस लौटे।’